सपा को मिली 125 सीटें भाजपा की… और भाजपा को मिली 273 सीटें सपा की होतीं

दयानंद पांडेय।

पहले तो कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव मोदी-योगी नहीं जनता खुद लड़ रही थी- सपा के जंगल राज से बचने के लिए। नहीं तो भाजपा में चल रही रस्साकसी को देखते हुए यह दो तिहाई बहुमत इस तरह नहीं मिलता। याद कीजिए कि कुछ समय पहले भाजपा गुजरात, उत्तराखंड समेत अपने सभी मुख्य मंत्रियों को ताश की गड्डी की तरह फेंट रही थी। उस समय अगर योगी आदित्यनाथ भी सरेंडर कर ताश की गड्डी में शामिल हो गए होते तो उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में क्या यही परिणाम होते? निश्चित रुप से परिणाम यह नहीं होते। ठीक उल्टा होते। जितनी सीट भाजपा को मिली हैं, वह संख्या समाजवादी पार्टी के खाते में दर्ज होती… और जितनी सीट समाजवादी पार्टी को मिली हैं वह संख्या भाजपा के खाते में दर्ज होती। फिर नरेंद्र मोदी चाहे जितना शीर्षासन कर लेते, अखिलेश सिंह यादव के साईकिल का जंगल राज नहीं रोक पाते। किसी सूरत नहीं रोक पाते।

तो ये आंकड़ा 350 होता…

वह तो योगी ने हठयोग का सटीक उपयोग किया और ताल ठोंक कर खड़े हो गए। अगर इस रस्साकसी में दो-तीन महीने ख़राब नहीं हुए होते तो भाजपा आज 350 सीट पर जीत का झंडा लिए उपस्थित मिलती। क्योंकि इस आपसी रस्साकसी के असर ने न सिर्फ़ विपक्ष को भरपूर लाभ दिया बल्कि मतदाता भी भ्रमित हुआ। इधर-उधर हुआ। पूर्व आईएएस अफ़सर अरविंद शर्मा के मंत्री बनने, न बनने के विवाद ने भी भाजपा की सीटों में माठा डाला था। फिर केशव प्रसाद मौर्य का पिछड़ा होने का गुमान और मुख्यमंत्री पद पाने की लालसा में योगी के ख़िलाफ़ जब-तब बिगुल बजाने ने भी भाजपा का बहुत नुकसान किया। केंद्र ने केशव मौर्य को निरंतर शह दी और अरविंद शर्मा का वितंडा खड़ा किया। लेकिन योगी झुके नहीं कभी। अड़े रहे हठयोगी बन कर। मोदी भूल गए थे कि वह न सिर्फ़ योगी हैं। नाथ पंथ के योगी हैं। जिसका एक सूत्र हठयोग भी है।

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अंदर बाहर दोनों तरफ से हमला

जल्दी ही योगी के हठयोग का नुकसान होता मोदी को दिखने लगा। पूर्वांचल एक्सप्रेस पर पैदल छोड़ कर  पीछे-पीछे चलने वाले योगी को, लखनऊ के राज भवन में कंधे पर हाथ रख कर अनुजवत बराबरी में ले कर चलने लगे मोदी। तो भी मोदी के काफिले के पीछे-पीछे पैदल चल रहे योगी के संदेश का लोग अलग-अलग पाठ निकालने लगे। जो भी हो बीच की खाई पटने लगी। मोदी अपने भाषणों में योगी राज के बुलडोजर का हवाला देने लगे। योगी को यूपी के लिए बहुत उपयोगी कहने लगे। लेकिन अब तक जंगल राज के प्रतीक अखिलेश यादव और उनके जातीय और अपराधी सलाहकारों को पर्याप्त आनंद और मसाला मिल गया था। मीडिया में सपा के पक्ष में माहौल बनाने के लिए अखिलेश द्वारा पर्याप्त पैसा बंट चुका था। सोशल मीडिया पर पेड वर्कर ने भाजपा के खिलाफ बैटिंग शुरू कर दी थी। ख़ासकर यूट्यूबर्स की बटालियन ने तो ग़ज़ब माहौल बना दिया। सबको लगने लगा कि योगी सरकार तो गई। भाजपा संगठन में अलग शतरंज बिछी हुई थी। भितरघात की बिसात पर लोग शेयर मार्केट की तरह उछाल मार रहे थे। योगी को अयोध्या, मथुरा घुमा रहे थे। अजब-ग़ज़ब के गुणा-भाग बता रहे थे। लेकिन योगी अभिमन्यु नहीं, अर्जुन की भूमिका में उपस्थित थे। यह बात विपक्ष भी नहीं देख रहा था और भाजपा के भितरघाती भी नहीं देख पा रहे थे। वह तो योगी को अभिमन्यु की तरह घेर कर बस किसी भी तरह मार देने के लिए व्यूह दर व्यूह रच रहे थे। मतलब पूरा चक्रव्यूह।

राहुल को पीछे छोड़ दिया अखिलेश ने

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नेहा राठौर की गायकी में यूपी में का बा गीत में योगी-मोदी से घायल लोगों को थोड़ी राहत ज़रुर मिली पर इस एक गाने का संदेश अच्छा नहीं गया। उत्तर प्रदेश के लोगों ने इस गीत को अपने अपमान, उत्तर प्रदेश के अपमान से जोड़ कर देखा। फिर इस गीत ‘यूपी में का बा’ के जवाब में अनगिनत गीत आ गए। जो यूपी की महत्ता के बखान में पगे हुए थे। इस गाने की ही तरह आचार संहिता के पहले जब भी कोई काम होता- हर काम को अखिलेश अपना काम बताने लगे। नतीज़े में अखिलेश यादव और उनके काम को लेकर हज़ारों लतीफ़े सोशल मीडिया पर घूमने लगे। इतना कि लतीफ़ा सीरीज में वह राहुल गांधी को बहुत पीछे छोड़ गए। दुनिया के हर काम में अखिलेश का नाम लोग जोड़ने लगे। ताजमहल के निर्माण तक में। न्यूटन और आर्कमिडीज के सिद्धांत तक में अखिलेश यादव का नाम जुड़ने लगा। तो क्या यह सब अखिलेश यादव के कान तक कभी पहुंचा नहीं। इसकी काट क्या खोजी उन्होंने, दिखा तो नहीं अभी तक। नेहा राठौर के गीत के जवाब में तो इतने वर्जन आ गए कि लोग गिन नहीं सकते। तो अखिलेश ने अपने इर्द-गिर्द सिर्फ़ चाटुकार ही पाल रखे हैं। फिर बाद में जिस तरह अखिलेश और उनके लोगों ने फर्जी और प्रायोजित ख़बरों का खेल खेला, वह तो और भी हास्यास्पद था।

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भ्रामक खबरों की क्रांति

क्या तो अखिलेश यादव की सरकार बनती देख एक वरिष्ठ आईएएस अफ़सर रात के अंधेरे में अखिलेश से मिले। तब जबकि इस अफ़सर की लिखित शिकायत अखिलेश चुनाव आयोग से कर चुके थे। हटाने के लिए कहा था। एक और ख़बर चलवाई कि अखिलेश की सरकार बनती देख एक वरिष्ठ आईएएस अखिलेश को रोज चार बार गुड मॉर्निंग भेजने लगा। अखिलेश ने उसे ब्लॉक कर दिया। क्या आईएएस अफ़सर इतने उठल्लू होते हैं? फिर डीएम अयोध्या के निवास की नाम-पट्टिका हरी होने की ख़बर चली कि अखिलेश सरकार को आता देख नाम पट्टी का रंग भगवा से हरा किया। और तो और- एक अख़बार भास्कर में ख़बर छपी कि अखिलेश और मुलायम के पुराने सरकारी बंगले की रंगाई, पुताई शुरू। जनेश्वर मिश्र पार्क, गोमती रिवर फ्रंट पर काम शुरू। ऐसी फर्जी और तथ्यहीन ख़बरों पर भी अखिलेश यादव का ख़ूब मजाक उड़ा। पर मोदी-योगी विरोध में पागल लेफ्ट लिबरल बिरादरी ने सोशल मीडिया पर ऐसी भ्रामक खबरों की क्रांति कर दी। गोलबंद हो कर नैरेटिव बनाने लगे अखिलेश सरकार के आमद की। अरे अखिलेश और मुलायम को वह घर अब नहीं मिल सकते। मुख्यमंत्री बन कर भी नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने ख़ाली करवाया है। यह मतिमंद वामपंथी क्या नहीं जानते थे। इतनी धूर्तता। इंतिहा थी यह। लेकिन चक्रव्यूह तो चक्रव्यूह। फर्जी ही सही। एक हवा में ही उड़ जाए तो क्या। आख़िर यादव राज के जहांपनाह ठहरे।

अंधविश्वास पर विश्वास

अखिलेश यादव को अपने ऐसे फर्जी अनगिन चक्रव्यूह से भी ज़्यादा एक-दो अंधविश्वास पर भी कुछ ज़्यादा विश्वास था। एक अंधविश्वास नोएडा जाने को ले कर था। अभी तक एक मान्यता थी कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए जो भी कभी नोएडा गया, फिर मुख्यमंत्री नहीं रहा। कांग्रेस के शासनकाल का यह अंधविश्वास था। नोएडा बसाने वाले नारायणदत्त तिवारी की कुर्सी जाने से इस अंधविश्वास का क़िला बना था। फिर तो नोएडा बाद में नारायणदत्त तिवारी भी नहीं जाते थे। वीरबहादुर सिंह भी नहीं गए। इस अंधविश्वास पर मुलायम, मायावती, कल्याण, राजनाथ, राम प्रकाश गुप्त, अखिलेश यादव हर किसी ने विश्वास किया। मुख्यमंत्री रहते हुए इनमें से कोई भी नोएडा नहीं गया। हालाँकि इसी नोएडा से मुलायम, मायावती और अखिलेश ने डट कर अपनी-अपनी तिजोरी भरी है। दो-दो आईएएस अफ़सर जो बाद में चीफ सेक्रेटरी भी बने मुलायम राज में- अखंड प्रताप सिंह और नीरा यादव- इसी नोएडा के भ्रष्टाचार में जेल गए। दर्जनों अफ़सर जेल जाने की तैयारी में हैं। नोएडा से सर्वाधिक कमाई मायावती ने की है। मनुवाद का विरोध करती हैं। पर अंधविश्वास भरपूर मानती हैं। नोएडा से अथाह कमाई की- पर चार बार मुख्यमंत्री  रहते कभी नोएडा नहीं गईं। नोएडा में निठारी कांड हुआ मुलायम राज में। बहुत सारे बच्चों का यौन शोषण कर हत्या कर दी गई। पर अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम नोएडा नहीं गए। भाई शिवपाल को भेजा। और शिवपाल नोएडा जा कर बच्चों के परिजनों के घाव पर नमक छिड़कते हुए एक बेहूदा बयान दे कर चले आए।

योगी ने खींची नयी लकीर

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इसी अपशकुन नोएडा में योगी दर्जन भर से ज़्यादा बार गए मुख्यमंत्री रहते हुए। तो अखिलेश यादव को योगी के इस नोएडा जाने पर विश्वास बहुत था कि योगी तो गए। अपनी मित्रमंडली में शाम को पेय पदार्थ लेते हुए चर्चा करते रहते थे। अखिलेश भूल गए कि योगी गोरखनाथ की नाथ परंपरा से आते हैं। गोरखनाथ रुढ़ियों और अंधविश्वास को तोड़ने के लिए भी परिचित हैं। फिर दूसरा अपशकुन था कि कोई भी मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश में दूसरे कार्यकाल का सपना भी नहीं देखता था। कांग्रेस राज में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी अपने ही मुख्यमंत्री को साल, दो साल में बदल देने का शौक़ रखते थे। बाद में जैसे इनिंग हो गई थी। मुलायम और मायावती में सरकार की अदला-बदली बीते तीस सालों में उत्तर प्रदेश ने लगातार देखा है। अखिलेश खुद भी रिपीट नहीं कर पाए थे। तो योगी के लिए भी अखिलेश के मन में यही तमन्ना थी।

सामंती अखिलेश और यादवी लंठई

पेड न्यूज़ ने उनकी इस तमन्ना को और रवां किया। किसान आंदोलन की आग में वह अपनी बढ़त देख रहे थे। जयंत चौधरी फिर ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे जातीय मोहरों ने उनका दिमाग और ख़राब किया। यादव वोटर उनके बंधुआ हैं ही। मुसलमान वोटरों के निशाने पर सर्वदा से भाजपा चली आ रही है। तो अखिलेश यादव को लगा कि जातीय गणित एम-वाई (मुस्लिम-यादव) फैक्टर के बूते वह अपना जंगल राज और यादव राज बड़ी शान से लौटा लेंगे। मनबढ़ई और अहंकार में चूर, सामंती अखिलेश अपनी यादवी लंठई में यह कभी नहीं समझ पाए कि अमित शाह बहुत पहले मंडल-कमंडल की दूरी ख़त्म कर सोशल इंजीनियरिंग के तहत इसकी फसल 2014 से निरंतर काट रहे हैं। किसान आंदोलन की आग में भी पानी डाल चुके हैं। लेकिन सत्ता प्राप्ति के मद में अखिलेश को यह सब नहीं दिखा। आईएएस अफ़सर और पूर्व मुख्य सचिव रहे आलोक रंजन अखिलेश के मुख्य चुनावी सलाहकार रहे। तमाम एनजीओ, यूट्यूबर और मीडिया को फंडिंग करके नकली माहौल बना कर, भाड़े की भीड़ बटोर कर अखिलेश का मन बढ़ाए रहे। कभी चुनाव नहीं लड़ने वाले दुर्योधन मनोवृत्ति वाले राम गोपाल यादव रहे अखिलेश यादव के गाइड और फिलास्फर।

मोदी-योगी नहीं जनता खुद लड़ रही थी यह चुनाव

वामपंथियों के लाल सलाम का साथ भी अखिलेश को मिला हुआ था। वामपंथी ख़ुद अपनी चुनावी ज़मीन कब का गंवा चुके हैं पर दूसरों को जीत का सपना दिखाना और सपना बेचना बहुत अच्छी तरह जानते हैं। कांग्रेस को इसी सपने में बरबाद कर अब वामपंथियों ने अखिलेश यादव को बरबाद करने की ठान ली है। अखिलेश ने लेकिन मेहनत बहुत की। पानी की तरह पैसा बहाया। 47 सीट से आगे बढ़ कर इतनी बढ़त ली। यह भी आसान नहीं था। लेकिन योगी के बुलडोजर राज की हनक और धमक ने अखिलेश यादव के सत्ता के सपने को, अखिलेश राज के संभावित जंगल राज को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया है। अगर बीते दिनों मोदी और योगी की रस्साकसी न हुई होती तो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को विधानसभा में खड़े हो पाना कठिन होता। दहाई में ही होती। लोकसभा में जैसे कांग्रेस खड़ी नहीं हो पाती। बैसाखी ले कर खड़ा होना पड़ता है। यहां उत्तर प्रदेश विधानसभा में अखिलेश का भी यही हाल होता। पूर्व में मिली 47 सीट भी नहीं मिलती। जो भी हो- उत्तर प्रदेश में जंगल राज के साइकिल के पहिए को पूरी तरह से रोक देने के लिए उत्तर प्रदेश की जनता को कोटिश: प्रणाम कीजिए। नहीं तो उत्तर प्रदेश की हालत बिहार से भी ज़्यादा बुरी होती। सारी फिजिक्स-केमेस्ट्री धरी रह जाती और हमारे ग्लोबल लीडर नरेंद्र मोदी सिर्फ़ टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते। 2024 में जीत का सपना भी सांसत में पड़ता सो अलग। अभी तो बुलडोजर राज के मार्फ़त योगी के क़ानून व्यवस्था को सैल्यूट करने का समय है। क्योंकि यह चुनाव मोदी-योगी नहीं जनता खुद लड़ रही थी। सपा के जंगल राज से बचने के लिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं। आलेख सोशल मीडिया से साभार)