बात भारत की
अजय विद्युत।
यह निहित स्वार्थ से भरा कुप्रचार है कि भारत शासन संचालन के सूत्रों के लिए विदेशों पर निर्भर था। एक राष्ट्र के रूप में राज व्यवस्था का हमें कोई ज्ञान या अनुभव नहीं था। आचार्य चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ ग्रंथ की रचना सम्राट चंद्रगुप्त (321-298 ई.पू.) के प्रशासकीय सहयोग के लिए की थी जिससे आज भी कोई राष्ट्र पर्याप्त कुशलता से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का संचालन कर सकता है।
हालांकि उससे सैकड़ों वर्ष पहले भी ऐसे कई ग्रंथ रचे जा चुके थे जिसका उल्लेख अर्थशास्त्र में है। इसमें राज्यव्यवस्था, अर्थशास्त्र, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि विषयों के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। यहां हम प्रमुख रूप से इस ग्रंथ में उल्लेखित आर्थिक विषय पर चर्चा कर रहे हैं- जैसे जनता पर कितना टैक्स लगे, भ्रष्टाचार कर अंकुश कैसे लग सकता है, भ्रष्ट अधिकारियों की पहचान कैसे हो।
सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का स्वरूप
कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का स्वरूप प्रस्तुत किया है- प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्। नात्मप्रियं प्रियं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (1/19) यानी- प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
शासन-पद्धति का विधान
अर्थशास्त्र एक ऐसी शासन-पद्धति का विधान है जिसमें राजा या शासक प्रजा के कल्याण के लिए शासन करता है। वह स्वेच्छाचारी होकर शासन नहीं कर सकता। उसे मन्त्रिपरिषद की सहायता से ही प्रजा पर शासन करना होता है। राज्य-पुरोहित राजा पर अंकुश के समान है, जो धर्म-मार्ग से च्युत होने पर राजा का नियन्त्रण कर सकता है और उसे कर्तव्य-पालन के लिए विवश कर सकता है।
यह मुख्यत: शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है। यह अर्थव्यवस्था, राजव्यस्था, विधि व्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्म व्यवस्था से संबंधित शास्त्र है। यह भी स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र के पूर्व भी शासन संचालन संबंधी अनेक शास्त्र उपलब्ध थे जिनका सार चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिया- ‘सब शास्त्रों का अनुशीलन करके और उनका प्रयोग भी जान करके कौटिल्य ने राजा (चन्द्रगुप्त) के लिए इस शासन-विधि (अर्थशास्त्र) का निर्माण किया है।’ (अर्थशास्त्र 2/10)
इस अर्थशास्त्र से पहले भी कई अर्थशास्त्रों की रचना की जा चुकी थी। यानी उन्नत राज व्यवस्था के सूत्र लिखित भाष्य के रूप में भारत के पास हजारों वर्षों से रहे हैं। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में कई सन्दर्भों में आचार्य वृहस्पति, भारद्वाज, शुक्राचार्य, पराशर, पिशुन, विशालाक्ष आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र के लिए प्राचीन समय में ‘वार्ता’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। कौटिल्य के अनुसार वार्ता के तीन अंग हैं- कृषि, व्यापार तथा पशु-पालन, जिनसे जीविकोपार्जन किया जाता था।
मनमाने कर नहीं लगा सकता राजा
कुछ प्राचीन भारतीय राज्यों के दो प्रमुख स्तंभ थे- कोष और सैन्य बल। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में उल्लेख है कि कोष राज्यरूपी वृक्ष के लिए अत्यंत आवश्यक है जिसे भरने का प्रमुख साधन है कर ग्रहण यानी लोगों से टैक्स लेना। राजा मनमाने कर नहीं लगा सकता। वह केवल स्मृतियों (शास्त्रों) द्वारा निर्धारित कर व्यवस्था लागू कर सकता था। कर कितना होगा- यह वस्तुओं के मूल्य तथा समय पर निर्भर था। राजा साधारणतया उपज का छठा भाग ले सकता था।
अर्थशास्त्र में कहा गया कि राजा अनुपजाऊ या बंजर भूमि पर कर नहीं लगा सकता। विपत्ति या आपदा के समय राजा को एक से अधिक बार कर नहीं लगाना चाहिए। हालांकि कोष में कमी आने पर राजा तत्काल उस पर ध्यान दे और प्रजा से सहमति बनाकर कृषि उत्पादन का 1/3 या 1/4 भाग कर के रूप में ले सकता है। अर्थशास्त्र में यह भी साफ साफ लिखा है कि कोष खाली हो और अचानक विपत्ति आ जाए तो राजा धनी किसानों, व्यापारियों व अन्य कारोबार करने वालों से विशिष्ट याचना कर उनकी सामर्थ्य के अनुसार स्वर्ण (सोना) देने का अनुरोध कर सकता है। और दरबार में उन्हें कोई ऊंचा पद, छत्र या पगड़ी आदि सम्मान देकर बदला चुका सकता है। उस काल में राज्य की आय के प्रमुख एवं सतत साधन तीन थे- उपज पर राजा का भाग, चुंगी और दंड से प्राप्त धन।