जाति की राजनीति करने वाले उन्हें कैसे बता सकते हैं अपना आदर्श

#pradepsinghप्रदीप सिंह ।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया भारत के दो ऐसे नेता हैं, जिनकी राजनीति विचारधारा से कभी डिगी नहीं। दोनों ने सत्ता के लिए सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। भाषणों से नहीं आचरण से राजनीति में उदाहरण पेश किया। उनके नाम पर राजनीति करने का दावा करने वाले विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बने, पर उनके सिद्धांतों का अनुसरण करने के बजाय, इस बात का ध्यान रखा कि उसके आसपास भी न जाना पड़े। आज के जो नेता जेपी और लोहिया के नाम की दुहाई देते हैं, उनमें से कोई अपवादस्वरूप भी उनके रास्ते पर नहीं चला।
मंगलवार को जेपी की जन्म जयंती के अवसर पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके गांव सिताबदियारा में थे। उनकी प्रतिमा के अनावरण सहित दूसरे कार्यक्रम थे। अपने को जेपी का अनुयायी बताने वाले नेता नदारद थे। समय का चक्र देखिए कि जेपी ने जिनको बढ़ाया, वे उनसे दूर हो गए। जेपी से दूर रही भाजपा आज उनके सिद्धांतों और आदर्शों के करीब है। 1974 के आंदोलन के समय वाम दलों ने जयप्रकाश नारायण से कहा था कि यदि जनसंघ और आरएसएस इस आंदोलन में रहेगा तो हम नहीं रहेंगे। जेपी का जवाब था कि वे तो हैं, आप अपने बारे में सोच लीजिए। जेपी से संघ परिवार का संपर्क-संबंध उसी दौर में बना और प्रगाढ़ हुआ।

गुलामी के लिए जाति प्रथा जिम्मेदार: लोहिया

जेपी और डा. लोहिया, दोनों ही जातिवाद के खिलाफ थे। लोहिया तो मानते थे कि भारत की गुलामी के लिए जाति प्रथा ही जिम्मेदार थी। लोहिया ने लिखा है कि जाति रूढ़िवादी शक्ति है, जो जड़ता को बढ़ावा देती है। जातिवाद समाज को बंधी-बंधाई लीक पर चलने को विवश करता है। इसके मुकाबले वर्ग एक गत्यात्मक शक्ति है, जो सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाती है। इन दोनों शक्तियों में परस्पर संघर्ष चलता रहता है। जेपी ने जाति तोड़ो सम्मेलन आयोजित किए। उनका कहना था कि समाजवाद को सफल होना है तो उसकी परिणति सर्वोदय में ही होगी। जिस जाति प्रथा को ये दोनों नेता भारतीय समाज के लिए अभिशाप मानते थे, उनके शिष्यों ने उस जाति प्रथा की नींव में खाद-पानी देने का काम किया। जाति की राजनीति करने वाला कोई नेता या दल इन्हें अपना आदर्श कैसे कह सकता है? शिष्य संप्रदाय की समस्या यह है कि जातिवाद को छोड़ दें तो उनका राजनीतिक अस्तित्व ही नहीं बचेगा। वास्तव में जाति प्रथा को बनाए रखने में राजनीतिक दलों और नेताओं का सबसे बड़ा योगदान है।

कांग्रेस समाधान नहीं, समस्या

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आजादी के बाद जेपी ने न केवल सत्ता को ठुकरा दिया, बल्कि चुनावी राजनीति से भी किनारा कर लिया। वे चाहते तो आसानी से नेहरू की सरकार में उपप्रधानमंत्री बन जाते। सरदार पटेल के निधन के बाद नेहरू ने इसकी पेशकश भी की थी, पर जेपी सर्वोदय की ओर चले गए। डा. लोहिया चुनावी राजनीति में कांग्रेस विरोध का प्रतीक बन गए। देश में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के जनक वही थे। उनका मानना था कि कांग्रेस समाधान नहीं, समस्या है। वे कांग्रेस विरोधी ताकतों को एकजुट करने का काम करते रहे। निधन से पहले वह पटना गए और जेपी से मिले। उनसे अनुरोध किया कि वह फिर से सक्रिय राजनीति में लौट आएं। जेपी ने मना कर दिया। पटना के गांधी मैदान की अपनी आखिरी सभा में डा. लोहिया ने कहा था, आज जेपी ने मना किया है, लेकिन एक दिन उन्हें आना पड़ेगा। 1974 में जेपी को आना पड़ा।

वोट का एटीएम

जातिवाद, भ्रष्टाचार और परिवारवाद इन सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों पर जेपी और लोहिया ने कभी समझौता नहीं किया। इन तीनों बुराइयों को गले लगाने वाले लोग आज अपने को उनकी राजनीति का वारिस बता रहे हैं। आजादी के बाद कांग्रेसजनों ने भी यही किया। उन्होंने वह सब किया, गांधी जिसके विरुद्ध थे। गांधी उनके लिए वोट का एटीएम थे। खादी के कुर्ते और गांधी टोपी में कांग्रेस ने जातिवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को अपने चार प्रण बना लिए। इनसे वह आज तक नहीं डिगी। उसका वह परिणाम भुगत रही है।

ये समाजवादी तो समाजवाद विरोधी कौन?

गृहमंत्री अमित शाह ने सिताबदियारा में कहा कि जेपी के शिष्य सत्ता के लिए कांग्रेस की गोद में बैठ गए। वास्तव में वे कांग्रेस की ही नहीं, भ्रष्टाचार और परिवारवाद की भी गोद में बैठ गए हैं। सत्ता की भूख ऐसी है कि कोई भी किसी से भी समझौता करने के लिए सदैव तैयार है। वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन जेपी और लोहिया का नाम लेना छोड़ दें। विडंबना देखिए कि नीतीश कुमार कह रहे हैं कि अमित शाह की उम्र इतनी नहीं है कि वह जेपी की बात करें। इस हिसाब से तो आज के किसी नेता को और यहां तक कि नीतीश कुमार को भी गांधी की बात नहीं करनी चाहिए। उत्तर भारत और खासतौर से बिहार और उत्तर प्रदेश के गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई नेता समाजवादी होने का दावा करते हैं। लालू यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं को यदि समाजवादी माना जाए तो समाजवाद विरोधी किसे माना जाए? क्या यह कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव का समाजवाद से कोई नाता है?

लोगों को हमेशा बेवकूफ नहीं बना सकते

नव समाजवादियों और उनकी पालकी उठाने वालों से यदि पूछ लिया जाए कि लोहिया के चौखंभा राज का सिद्धांत क्या था, तो मुझे नहीं लगता कि कोई ढंग से बता पाएगा। अच्छा होगा कि समाजवाद की बात करने वाली पार्टियां और नेता पाखंड का परित्याग करें। वही बोलें और बताएं, जो वे हैं। मुश्किल यह है कि ऐसा करते ही सारी कलई खुल जाएगी। कपड़े की तरह गठबंधन और सिद्धांत बदलने वालों से भारतीय राजनीति को मुक्त कराने की जरूरत है। गांधी के नाम पर लोगों ने कांग्रेस पर विश्वास करना छोड़ दिया। जेपी और लोहिया के शिष्यों की मंडली का जल्द ही यही हश्र होने वाला है। आप लोगों को हमेशा बेवकूफ नहीं बना सकते। जनता कथनी-करनी का अंतर समझती है। वह इसलिए चुप नहीं कि समझती नहीं। वह चुप रहकर कुछ समय तक सुधरने का मौका देती है। कभी-कभी यह अवधि कुछ लंबी खिंचती है, जिससे इन नेताओं को गलतफहमी हो जाती है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)