आपका अखबार ब्यूरो।

इंदौर। अपने जन्म के समय से ही भारत में फिल्मों ने जनमानस पर अपना प्रभाव छोड़ना शुरू कर दिया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि सिनेमा ने लोगों की ज़िदगियों को छुआ है। आज सिनेमा भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। इसीलिए यह कोई अचरज की बात नहीं है कि दुनिया में सबसे अधिक संख्या में फिल्में भारत में ही बनती हैं। लोग सिनेमा जगत के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं। फिल्मों के वर्तमान और इतिहास के बारे में जानने की लोगों की इच्छा का ही परिणाम है कि समाचार माध्यमों में, चाहे वह समाचारपत्र हों, पत्रिकाएं हों, टीवी हो, रेडियो हो, चाहे डिजिटल मीडिया हो, सिनेमा से जुड़ी सामग्री अपरिहार्य हो गई है। दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के विजेता प्रसिद्ध गीतकार, गायक और अभिनेता स्वानंद किरकिरे ने कला के रूप में सिनेमा को सीखने के महत्त्व पर जोर देते हुए इसकी तुलना हमारी सांस्कृतिक चेतना के रहस्यों को उजागर करने से की। किरकिरे के अनुसार, आधुनिक भारतीय सिनेमा का हर फ्रेम हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य की आकांक्षाओं को दर्शाता है, जो इसे हमारे सांस्कृतिक विकास को समझने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बनाता है।

यह बात उन्होंने इंदौर में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) और देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (डीएवीवी), इंदौर द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में सिनेमा अभिलेखागार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कही। छात्रों के साथ सिनेमा के विविध पहलुओं पर बातचीत करने के लिए आईजीएनसीए ने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के साथ मिलकर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्यूनिकेशन विभाग के सभागार में एक पैनल चर्चा का आयोजन किया था। इस दौरान इंदौर के प्रख्यात फिल्म पत्रकार स्व. श्रीराम ताम्रकर द्वारा तैयार किए गए हिन्दी में हिन्दी सिनेमा के पहले इनसायक्लोपीडिया का विमोचन भी किया गया, जिसे आईजीएनसीए ने प्रकाशित किया है।

स्वानंद किरकिरे ने छात्रों को बताया कि वो फिल्म जगत में कैसे आए। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में अपने एडमिशन का रोचक किस्सा भी छात्रों के साथ साझा किया। उन्होंने बताया, करियर को लेकर मेरे मन में कोई स्पष्टता नहीं थी, बस एक बात स्पष्ट थी कि मुझे कला से प्रेम है। सामान्य मध्यवर्गीय परिवारों में आमतौर पर करियर को लेकर जो सोच होती है, मेरे परिवार की सोच भी वैसी थी। मैं इंदौर में ग्रेजुएशन के दौरान नाटक किया करता था। एक बार मैंने एनएसडी में दाखिले के लिए परीक्षा दी, लेकिन सफल नहीं हो पाया। मैंने अपनी मां से कहा कि मुझे एक साल और दो, अगर मेरा चयन नहीं होगा, तो मैं फिर वैसा ही करूंगा, जैसा आप कहोगी। लेकिन दूसरे साल मेरा फॉर्म ही नहीं पहुंचा। मैं निराश हो गया था। इंदौर में ही एक लड़के ने एनएसडी का फॉर्म मंगाया था, उसका फॉर्म आ गया था, लेकिन उसको एनएसडी जाने का मन नहीं था। वो मेरे पास आया और बोला कि मेरा मन एनएसडी जाने का नहीं है, मेरा फॉर्म तुम ले लो। इस तरह, उससे लेकर मैंने फॉर्म भरा और मेरा सिलेक्शन एनएसडी में हो गया।

उन्होंने यह भी कहा कि आज जिस तरीके से डिसेंट्रलाइजेशन हो रहा है, उसमें अच्छा सिनेमा कहीं से भी आ सकता है। छोटे जगहों पर भी अच्छी फिल्में बन सकती हैं। श्रोताओं के आग्रह पर उन्होंने अपने द्वारा रचित दो फिल्मी गीतों- ‘डूबती है तुझमें, आज मेरी कश्ती गुफ़तगू में उतरी बात की तरह’ और ‘बावरा मन देखने चला एक सपना’ को गाकर सुनाया।

आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि आईजीएनसीए सिनेमा से सम्बंधित पुस्तकों और संसाधनों के निरंतर प्रकाशन के लिए प्रतिबद्ध है। डॉ. जोशी ने सिनेमा के क्षेत्र में संगठन के योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने छात्रों, विशेषकर पत्रकारिता का अध्ययन कर रहे छात्रों से कहा कि सिनेमा महज ग्लैमर और स्टारडम नहीं है, बल्कि यह हजारों रचनात्मक लोगों का सामूहिक प्रयास होता है। डॉ. जोशी ने छात्रों को फिल्म अध्ययन में करियर के अन्य पहलुओं, जैसे अभिलेखन (आर्काइविंग) और लेखन को भी एक्सप्लोर करने के लिए प्रोत्साहित किया। अपने जीवन के वास्तविक संदर्भों का उदाहरण देते हुए उन्होंने युवा पीढ़ी से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को अंगीकार करने, उनका दस्तावेजीकरण करने और अपने अनुभवों को समृद्ध करने का आग्रह किया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कुछ अल्प विराम’ का भी उल्लेख किया, जो साधारण लोगों के जीवन अनुभवों पर प्रकाश डालती है।

देवी अहिल्या विवि के एस.जे.एम.सी. विभाग की निदेशक डॉ. सोनाली नरगुन्दे ने कहा, हमारी कोशिश रहती है कि अपने विभाग के बच्चों को क्लासिक फिल्में दिखाएं। बच्चों को उतसुकता रहती है सिनेमा के प्रति, लेकिन आज के बच्चे क्लासिक फिल्में देख कर सोने लगते हैं। तो, ये शिक्षक की जिम्मेदारी है कि बच्चों को जगाए और बताए कि फिल्म क्या कहना चाहती है। उन्होंने कहा कि सिनेमा एक टीम वर्क है। उसमें निर्देशक का भी महत्त्व है, लेखक का भी महत्त्व है, एडिटर का भी महत्त्व है और फिल्म से जुड़े अन्य लोग भी महत्त्व रखते हैं। उन्होंने कहा कि बचपन में देखी गई फिल्में हमेशा याद रहती हैं।

प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक मयंक शेखर ने सिनेमा विरासत के संरक्षण और प्रचार में आईजीएनसीए के प्रयासों की सराहना की। इस चर्चा में आईआईएमसी के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी और मोटिवेशनल वक्ता श्रीमती मंजूषा राजस जौहरी ने भी हिस्सा लिया। चर्चा का संचालन आईजीएनसीए के मीडिया सेंटर के नियंत्रक श्री अनुराग पुनेठा ने किया।

सिनेमा अभिलेखागार के महत्व पर केंद्रित इस कार्यक्रम का उद्देश्य भारत की समृद्ध सिनेमाई विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करना था। आईजीएनसीए और देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर का सहयोग भारतीय सिनेमा और इसके सांस्कृतिक महत्त्व की गहरी समझ को बढ़ावा देने की दोनों संस्थाओं की प्रतिबद्धता का एक प्रमाण है।