आपका अखबार ब्यूरो ।
हलमा आदिवासियों की एक ऐसी परम्परा है, जो विपत्ति में पड़े व्यक्ति की सहायता का संदेश देती है। वर्तमान समय में इस तरह की परम्परा की प्रासंगिकता को उजागर करने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के जनपद सम्पदा प्रभाग ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के साथ मिलकर ‘हलमा एंड अदर कम्यूनिटी-ड्रिवेन ट्रेडिशंस ऑफ द इंडियन ट्राइब्स’ (भारतीय जनजातियों की हलमा तथा अन्य समुदाय संचालित परम्पराएं) विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आईजीएनसीए के समवेत सभागार में किया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री डॉ. भारती प्रवीण पवार थीं। विशिष्ट अतिथि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष श्री हर्ष चौहान एवं शिवगंगा, झाबुआ के संस्थापक पद्मश्री श्री महेश शर्मा थे। इस अवसर पर आईजीएनसीए के सदस्य सचिव प्रो. (डॉ.) सच्चिदानंद जोशी और जनपद सम्पदा के विभागाध्यक्ष डॉ. के. अनिल कुमार की गरिमामय उपस्थिति भी रही।
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए डॉ. भारती प्रवीण पवार ने इस तरह के प्रासंगिक विषय पर संगोष्ठी आयोजित करने के लिए आईजीएनसीए की सराहना की। उन्होंने आगे कहा कि कि हलमा जैसी परम्पराएं हमें समकालीन समय में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की चुनौतियों का सामना करने में मदद कर सकती हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे हलमा परम्परा ने उस क्षेत्र में सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचे के विकास में मदद की है, जहां इसका प्रचलन है। डॉ. पवार ने कहा कि हलमा और इस तरह की अन्य परम्पराएं हमें दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय आत्मनिर्भर बनना सिखाती हैं। उन्होंने कहा, “हलमा सबके लिए है और सबके साथ है।” उन्होंने यह भी कहा कि हलमा जैसी परम्पराएं हमारे समाज में मौजूद हैं, हमें ऐसी और परम्पराओं और प्रथाओं की पहचान करने और उन्हें हमारे समाज के समग्र विकास के लिए मुख्यधारा में लाने की जरूरत है।
अपने संबोधन के अंत में उन्होंने कहा कि सही दिशा में काम करने के लिए हमें ऐसी परम्पराओं से जुड़ने और ‘पृथ्वी सभी के लिए है’ की भावना के साथ काम करने की आवश्यकता है। जब हम ‘जी-20’ की अध्यक्षता कर रहे हैं, जिसका ध्येय वाक्य ‘एक पृथ्वी एक परिवार एक भविष्य’ है, तो ऐसी परम्पराएं और प्रथाएं अधिक प्रासंगिक हो जाती हैं। इस संदर्भ में उन्होंने प्रधानमंत्री के संबोधन से उद्धरण देते हुए कहा कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का हमारा दर्शन वर्तमान समय में दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है।
इस अवसर पर डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि हलमा जैसी परम्पराएं सामाजिकता और सामूहिकता की शिक्षा देती हैं, जो हमारे भारतीय दर्शन और मूलभूत मान्यताओं से निकली है। दोपहर के सत्र में देश के विभिन्न हिस्सों से आए विद्वानों ने हलमा परम्परा के विभिन्न पहलुओं पर शोधपत्र प्रस्तुत किए गए।
इस मौके पर पद्मश्री महेश शर्मा भी मौजूद थे, जो 25 वर्ष पहले (1998 में) झाबुआ में जनजातीय परितंत्र (ईकोसिस्टम) का अध्ययन करने आए थे। इन वर्षों में उन्होंने जनजातीय परितंत्र की गहरी समझ विकसित की है और अब 800 से अधिक गांवों में उनका नेटवर्क है। उन्होंने आदिवासियों को एक साथ लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने भी हलमा परम्परा पर अपने विचार संगोष्ठी में रखे।
अंत में, प्रोफेसर के. अनिल कुमार ने सभागार में उपस्थित सम्मानित अतिथियों, विद्वानों, छात्रों और श्रोताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया। इस दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन 20 जून, मंगलवार को होगा।