बंसी कौल नाट्योत्सव -4
सत्यदेव त्रिपाठी ।
नाटक का पहले आलेख तैयार होता है, फिर मंचन होता है। आज तो यही होता है– कभी पहले ऐसा होता था कि मंचन के साथ-साथ आलेख तैयार होता था, जो आज भी कहीं कार्यशालाओं व प्रशिक्षण आदि के दौरान प्रयोग की तरह दिखाया जाता है। आलेख व प्रस्तुति का रिश्ता चित्र और रेखाओं जैसा होता है – चित्र के अनुसार घूमती रेखाओं की तरह है प्रस्तुति भी।
अनोखा आलेख
प्रतिमा सिन्हा लिखित ‘अवरुद्ध’ का आलेख अनोखा है। इसमें कथा नहीं, प्रलाप है, जो करता है एक इकला पात्र, जिसका वजूद भी उसी प्रलाप से ही बनता है। मूलतः वह अपने होने में दूसरों द्वारा बनाए जाने की स्थिति से एतराज करता है – अध्यापक (टीचर है आलेख में) के सिखाए हुए के अनुसार बनने का नाम लेता है। अपने नाम में भी वह अपनी पसंद नहीं पाता – यहाँ अनकहे रूप से इशारा माता-पिता से है – याने उसके होने—बनने में उसका कोई चुनाव नहीं – कोई स्वतंत्रता नहीं।
असल में किसी व्यक्ति के होने और बनने का जो यह सवाल है, वह एक पूरी थियरी से बावस्ता है। उसे ‘अस्तित्ववाद’ के नाम से जाना जाता है। पिछली सदी के इस दर्शन ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। पर हुआ कुछ नहीं। लहरें उठीं आसमान की तरफ़, पर अनिवार्य तटबंधों से टकराके समुद्र में लौट आयीं। जीवन जैसा था, कमोबेस वैसा ही चल रहा है। अस्तित्ववाद में तो ‘अवरुद्ध’ के अध्यापक व माता-पिता से कहीं आगे बढ़कर कहा गया है – ‘हर दूसरा आदमी नरक है – द हेल इज अदर पीपल’। इस दूसरों से त्रस्त इस अनाम या बहुनाम नायक के प्रलाप में इस व्यवस्था से विरोध का एक भाव है, जो आलेख का मुख्य स्वर है। और अस्तित्ववाद के एक मध्यवर्ती प्रमुख विचारक कामू ने कहा – ‘मैं विरोध करता हूँ, इसीलिए अस्तित्वमान हूँ’। इस थियरी के मुताबिक़ ‘ज़िंदगी हर व्यक्ति पर थोपी हुई (इम्पोज़्ड़) है, जिसे ढोने (जीने) के लिए वह अभिशप्त है। इसके सिवा उसके पास कोई विकल्प (च्वायस) नहीं है। यहाँ तक कि वह मरने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है’। ऐसे ही ऊहापोहों व सवालों में डूबता-उतराता-भटकता नाटक का नायक ऐसी अजान घाटियों में घिरा (अवरुद्ध) है, जिससे निजात का रास्ता नहीं। और लेखिका के पास है, तो आलेख में आता नहीं।
मकसद की तलाश
सो, ‘अवरुद्ध’ के पात्र की बात यहीं तक है। लेकिन अस्तित्ववाद के परवर्ती, पर अग्रणी चिंतक सार्त्र ने कहा – ‘स्वतंत्रता किसी के भी होने की बुनियादी शर्त है, लेकिन यह चुनाव, निर्णय, क्रिया और दायित्व से बंधा हुआ है। इसके माध्यम से ही मनुष्य अपनी सम्भावनाएँ अन्वेषित करता है, जो उसकी अपनी होती हैं। यूनिक होती हैं। स्वतंत्र होकर ही वह प्रामाणिक ज़िंदगी जी सकता है’। और हम देखते हैं कि ऐसी स्वतंत्र व संयत-संयमित-मर्यादित जिंदगियाँ भी हैं दुनिया में। यही उस चिंतन का उपराम भी है और महानता भी। लेखिका इसे अवश्य जानती होगी, लेकिन दर्जन भर चिन्तकों की मेधा-परंपरा से गुजरते हुए यह चिंतन यहाँ तक पहुँचा है, जिसकी उम्मीद न हम ‘अवरुद्ध’ जैसे एक नाटक से कर सकते, न उसकी लेखिका से।
लेकिन फिर लेखिका ने इसे किस मक़सद से लिखा, इतने प्रौढ़-परिपक्व-स्थापित दर्शन का एक उच्छिष्ट इस रूप में क्यों प्रस्तुत किया, पर विचार का कोई सूत्र रचना नहीं देती – कम से कम मुझे नहीं देती। कल मैंने दूसरी बार देखा, लेकिन वहीं हूँ, जहां पहली बार था। हाँ यह कह सकता हूँ की ‘शिव सम्भव’ के लिए इसे प्रस्तुत करके निर्देशक सुमित श्रीवास्तव और इकले पात्र बने यशवीर चौधरी ने इसे इतना अर्थ तो ज़रूर दिया कि यह सैकड़ों दर्शकों को एक घंटे बांधे रहता है– आनंदित भी करता होगा, तभी न! या फिर अब कोई निष्कर्ष निकलेगा, की उत्सुक प्रतीक्षा में बैठा रहता है– जैसे मैं पहली बार रहा था। दूसरी बार पात्र के साथ मैं भी व्यर्थताबोध से ग्रस्त होता रहा बल्कि वह तो सबके सामने अपने ‘करके दिखाने’ का लुत्फ़ भी पाता रहा। लेकिन मेरा बोध (व्यर्थता-बोध पहुँचाना) भी शायद ‘अबरुद्ध’ का इष्ट हो, क्योंकि आनंद मात्र ही तो नही होता कला का उद्देश्य। किंतु व्यर्थताबोध भी तो नहीं होता कला का मक़सद।
हर तरह की उन्मुक्तता
फिर लेखिका ने भले जिस सवाल को शिद्दत से उठाया, उसे कोई दिशा न दे सकी, लेकिन उसमें ऐसे तत्त्व भर सकी, जिससे दर्शकों को बाँधा जा सके। इसमें सबसे महत्तवपूर्ण हैं – उदाहरण। जैसे नाम तक की परतंत्रता की बात करते हुए मोहन-सोहन जैसे आम नामों के बदले ग़ालिब-जावेद अख़्तर आदि जैसे नामों के उदाहरण आते हैं और दर्शक को हंसने-खुश होने का मौका मिल जाता है। और इसमे दर्शक का दोष नहीं। आम दर्शक तो इसी खोज व प्राप्ति के लिए आता ही है नाटक देखने और ऐसी गम्भीर थीम में भी नाटक वाले उसकी मनचाही को मुहय्या कराके नाटक का यही उद्देश्य सिद्ध भी कर देते हैं और साध भी लेते है – सधा भी ले जाते हैं। रुचि-निर्माण आदि की न आज नीयत रही, न ज़माना रहा, तो चेतना ही लुप्त हो गयी। सो, गम्भीरता व हास्य की कोई संगति व सोद्देश्यता ही नहीं बची। अपनी कथा व कथ्य के साथ सही सलूक के इल्म की ज़रूरत ही नहीं। ‘अवरुद्ध’ में इसी तरह के और तत्त्व भी हैं– बातचीतपन ‘चाय पीएँगे’, ‘आप क्या सोचते हैं’? ऐसी संवादात्मत्कता में नाटकपन भी बनता है। इस प्रक्रिया में ऐसे जुमले भी आते हैं, जो नाटक की थीम की तरफ़ भी जाते हैं और फ़िकरे बन कर मज़ा भी देते हैं- ‘पागल अवरुद्ध नहीं होता, मैं पागल होना चाहता हूँ’। या ‘मैं फिर से प्यार करना चाहता हूँ, बिना किसी डर के’। या ‘फ़्रस्टेटेड आदमी की दास्तान’ आदि। याने रचना-यात्रा कहीं तक पहुँचती तो नहीं और खेलने लगी – खुद से, नायक से, दर्शक के साथ और सार्थक भी करती रही नाट्य को व रंगविधा को। इस रचना का आदि तो है, जो कहीं भी हो सकता था, लेकिन अंत कहीं नहीं हो सकता था- तो एक जगह कर दिया गया। यह लचीलापन भी क़ाबिलेगौर है। शायद इसमें समय का मानक रखा गया कि कितना सहना-सहाना सम्भव हो सकता है – कितना ‘शिव’ ‘सम्भव’ हो सकता है!!
इन सबकुछ का जितना बेहतर इस्तेमाल हो सकता है, उतना किया है अभिनेता यशवीर चौधरी ने और कराया है निर्देशक सुमित श्रीवास्तव ने। प्रस्तुतियों के बाद अभिनेता भी मंज गया है और अभिनय कुछ अनछुई ऊँचाइयाँ छूने की तरफ़ अग्रसर है। जब आलेख का कुछ तय नहीं, तो प्रस्तुति का भी कुछ तय क्यों हो? तो यशवीर को खुलकर खेलने की छूट मिली है और सुमित को खेलाने की। न सेट व मंच की कोई बंदिश, न परिधान की, न गति की, न अन्य पात्रों-कलाकारों के साथ युति व सामंजस्य की याने हर तरह की उन्मुक्तता। क़ाबिलेतारीफ यह भी है कि इस छूट के बावजूद प्रस्तोताओं ने स्वच्छन्द होने की छूट न ली, जिसका अवकाश (स्पेस) रचना की प्रकृति देती है। लेकिन प्रस्तोताओं ने सारी छूटों-अनिश्चितताओं में एक स्वानुशासन की जो मर्यादा बनायी, वह रंगकर्म की सार्थकता है। वैसे नाटक उठाना हिम्मत का काम था, लेकिन हिम्मत कर देने से जाने-अनजाने ही सही एक ऐसी चीज़ बन गयी है, जो मिसाल बन सकती है, यदि यही दल या अन्य सहयोगी दल ऐसे खुले-बंधनों या उन्मुक्त-कसाव वाले प्रयोग करें। क्योंकि थिएटर प्रथमत: व अंतत: नित-नूतन प्रयोग की कला है।
छबि, वैचारिकता, बहसों का न वक़्त रहा, न ज़रूरत
लेखिका मेरी अच्छी परिचित है और निर्देशक-अभिनेता तो काफ़ी क़रीब। मैंने कभी नहीं पूछा लेखिका से कि ऐसी थीम व ऐसे लेखन के उत्स कहाँ हैं, मंतव्य क्या रहा, यह ‘पागल, फ़्रस्ट्रेटेड पात्र’ कहाँ से आया। न निर्देशक से कभी पूछा कि ऐसे क्रांतिकारी बुद्धिजीवी की कोई पहचान (सिगनीफ़िकेंस) क्यों निर्धारित नहीं की? उसकी कोई प्रतिमा, कोई छबि क्यों न बनी दिमाँग में, जो कुछ बनाती दर्शक के मन में। जैसे हमारी जवानी में यह होता या आज से दो दशक पहले होता, तो रूखे लंबे बाल – घुंघराले या बिखरे, मुचमुचाती आँखों पर मोटा या स्टाइलिश चश्मा होता। जींस पर ढीला-ढाला लम्बा कुरता होता। कंधे पर शबनम (लटकता झोला) होता। वह चाय के साथ सिगरेट पीता हुआ कहीं कैंटीन-पार्क-समुद्र के किनारे बैठा होता और लगातार आत्मालापी बहसें करता होता। पर उसकी एक छबि होती। वह आम आदमी जैसा न होता। भीड़ में न खोता! या फिर सचमुच का पागल ही बनाया होता। लेकिन ऐसा कुछ होता, तो नाटक ज्यादा नाटक होता, असरदार होता या कुछ भी, कैसा भी करके जो बना है– सहज- सामान्य जैसा, यह ज्यादा नाटक है, ज्यादा असरदार है! यह छबि वैसी ही न होके, और कुछ होती – आज की होती, पर कोई छबि तो होती! लेकिन शायद छबि, वैचारिकता, बहसों आदि का ज़माना ही न रहा। वक़्त न रहा, ज़रूरत न रही।
आयोजन में इस दिन के प्रमुख अतिथि रहे – श्री गिरीशचंद दुबे – अपर नगर मैजिस्ट्रेट, वाराणसी (प्रथम) और सुश्री अमृता सिंह, अपर नगर मैजिस्ट्रेट, वाराणसी (चतुर्थ)। इनके स्वागत और इनके द्वारा दीप-प्रज्ज्वलन के साथ नाटक शुरू हुआ और अंत में इन दोनो महानुभावों ने नाटक पर सारगर्भित टिप्पणी भी दी। इनके साथ महानगर इकाई के अध्यक्ष श्री नीरज अग्रवाल, संगठन मंत्री श्री दीपक शर्मा आदि नेतृत्वकारियों ने कलाकारों को सम्मानित किया। सौरभ श्रीवास्तव के ‘वन्दे मातरम’ गान व मंत्री सुमित श्रीवास्तव के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
(क्रमश:)