डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
मोटे तौर पर ट्रेवेल सिकनेस का मतलब होता है कि बस या कार में, हवाई जहाज में या पानी के जहाज में सफर करने के दौरान जी मिचलाना और उल्टियाँ (Vomiting) होना।
मुझे ट्रेवेल सिकनेस का पहली बार अनुभव ब्रिटेन में हुआ। मैं अक्टूबर 1989 से मार्च 1993 तक ब्रिटेन में था और वहाँ कार्डिफ यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. कर रहा था। अपनी रिसर्च के सिलसिले में मुझे कार्डिफ से लन्दन जाना पड़ता था। अक्सर बस से जाता था, जिसे वहाँ कोच कहते हैं। लम्बी दूरी वाली बसों को वहाँ कोच कहते हैं। और उनका डिजाइन भी नगर बसों से थोड़ा भिन्न होता है। थोड़ा ज्यादा सुविधाजनक भी होती हैं।
ट्रेवेल सिकनेस होती क्यों है?
कार्डिफ से लन्दन जाने में मुझे उल्टियाँ होने लगती थीं। कोच में शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं, परन्तु वे खुलती नहीं थीं। इस कारण मुझे कोच के पीछे बने टायलेट में दौड़ कर जाना पड़ता था उल्टी करने के लिए। कार्डिफ से लन्दन के विक्टोरिया कोच स्टेशन का सफर सबेरे-सबेरे करीब तीन घंटे का होता था। उल्टियाँ होने में बिल्कुल जान सी निकल जाती थी। लेकिन जब मैं शाम को कोच में बैठ कर लन्दन से लौटता था, तब कभी भी ट्रेवेल सिकनेस महसूस नहीं हुई। मैंने वहाँ डाक्टर को दिखाया। डाक्टरी इलाज मुझे फ्री था, क्योंकि पीएच.डी. करने के लिए मुझे ब्रिटिश सरकार की स्कालरशिप मिली हुई थी। डाक्टर ने मुझे कुछ ट्रेवेल सिकनेस टैबलेट्स लेने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि सफर शुरू करने के आधा घण्टा पहले एक टेबलेट ले लें। मैंने उनसे पूछा कि यह ट्रेवेल सिकनेस होती क्यों है? भारत में तो मुझे कभी नहीं होती थी। तब उनका जवाब था कि यह आपको अचानक शुरू हुई है और कभी एक दिन अचानक खत्म भी हो जाएगी।
वह ट्रेवेल सिकनेस टैबलेट कारगर थी। पर जब कभी उसे लेना भूल जाता था, तो दिक्कत हो जाती थी।
पहाड़ से उतरते वक्त ट्रेवेल सिकनेस
जब भारत लौट कर आया, तब मुझे बस में सफर करने में कहीं भी ट्रेवेल सिकनेस नहीं हुई। फिर एक बार सन् 1994 की बात है। तिरुपति की पहाड़ी पर बस से चढ़ रहा था, तो कोई ट्रेवेल सिकनेस नहीं हुई, परन्तु उतरते वक्त फिर उल्टियों उल्टियाँ होने लगीं। बहुत परेशानी हुई। और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ट्रेवेल सिकनेस शायद ढाल से उतरने वाले बस के सफर में होती है।
ट्रेन में ट्रेवेल सिकनेस
उस समय तक मुझे कभी भी ब्रिटेन में या भारत में ट्रेन से सफर में ट्रेवेल सिकनेस नहीं हुई थी। परन्तु जब मैं शिमला में था, तब ट्रेन से शिमला-कालका यात्रा में भी ट्रेवेल सिकनेस होने लगी। बड़ी मुसीबत थी। शिमला-कालका यात्रा पहाड़ से उतरने की है, चढ़ने की नहीं।
हवाई सफर में ट्रेवल सिकनेस
हवाई सफर में मुझे कभी ट्रेवल सिकनेस नहीं हुई। परन्तु एयर इंडिया के हवाई जहाज में देखता हूँ कि सीट के आगे जहां कुछ कागजात रखे रहते हैं, वहाँ एयर सिकनेस बैग भी रखा रहता है। ताकि यात्री उसी बैग में उल्टी कर सकें। बाहर गंदगी न फैले। ऐसे सिकनेस बैग मैंने कुछ और एयर लाइंस में भी देखे हैं।
एक बार मैंने कनाडा में Greyhound के कोछ में सफर कर रहा था। वहाँ सीट के बगल में मजबूत पालीथीन के बैग लटके हुए थे। उनका इस्तेमाल यात्री ट्रेवेल सिकनेस के लिए भी कर सकते थे या फिर उनमें छोटा-मोटा कचड़ा भी रख सकते थे, ताकि कोच में गंदगी न फैले।
अखबारी इलाज
एक बार मैं गौहटी (असम) से शिलांग (मेघालय) टैक्सी से जा रहा था, तब फिर सफर में उल्टियाँ होने लगीं। यह यात्रा पहाड़ पर चढ़ाई की थी, उतरने की नहीं। बहुत परेशानी हुई। मैंने टैक्सी ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। उसने एक चाय के ढाबे पर गाड़ी रोक दी। मैं वहाँ जाकर एक कुर्सी पर बैठ गया। ढाबे वाले ने पूछा – चाय पिएंगे?
मैंने कहा – नहीं, कुछ भी खाएँगे-पिएंगे नहीं। मेरे तबियत ठीक नहीं है। मुझे टैक्सी से सफर में उल्टियाँ हो रहीं थीं। बस मैं थोड़ी देर यहाँ बैठ कर आराम करना चाहता हूँ।
इस पर ढाबे वाले ने सलाह दी – आप टैक्सी की सीट पर अखबार रख कर उसके ऊपर बैठिए और पीठ पर भी अखबार लगा लीजिए।
बात तो उसकी बेतुकी सी थी, परन्तु उसको मानने में कोई हर्ज भी नहीं था। उसने मुझे एक पुराना अखबार भी दे दिया। मैंने उसे टैक्सी की सीट पर बिछा कर और पीठ से भी लगाकर आगे का सफर किया। फिर शिलांग तक के सफर में कोई दिक्कत नहीं हुई। शिलांग से लौटते वक्त भी मैंने वही फार्मूला अपनाया, तो भी कोई ट्रेवेल सिकनेस नहीं हुई। लौटते वक्त का रास्ता तो पहाड़ से उतरने का था।
अभी हाल ही में मैं टैक्सी से लखनऊ से कानपुर जा रहा था, तब फिर ट्रेवेल सिकनेस शुरू हुई। परन्तु इसके पहले कि मुझे उल्टियाँ होना शुरू हों, मैंने फिर वही अखबार वाला फार्मूला अपनाया, तो उससे रास्ते में कोई उल्टी नहीं हुई। परन्तु, हाँ तबियत थोड़ा ठीक नहीं लग रही थी। शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जाड़े का समय था और मैं पर्याप्त कपड़े भी नहीं पहने था। वहाँ कानपुर पहुंच कर एक ने मुझे एक दवा दी जो एसिडिटी कम करती थी और लइया खिलाई, उससे मैं दो-चार मिनट में ही बिलकुल ठीक हो गया।
पर यह अखबार वाला नुस्खा तो कमाल का रहा। इस अखबारी नुस्खे का वैज्ञानिक आधार क्या है – यह मुझे पता नहीं है। इंटरनेट पर एक बार देख रहा था तो वहाँ भी एक जगह लिखा था कि Brown Paper पर बैठने से ट्रेवेल सिकनेस नहीं होते। परन्तु मुझे Brown Paper वाले फार्मूले का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)