बलिदान दिवस पर विशेष।

रमेश शर्मा।
अमर क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 छोटा नागपुर कहे जाने वाले क्षेत्र में हुआ था। यह क्षेत्र अब झारखंड में है। उनकी माता सुगना देवी और पिता करमी मुंडा का गाँव झारखंड प्रांत के रांची जिले में पड़ता है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा ग्राम साल्वा में हुई। बाद में अंग्रेजी शिक्षा के लिये वे चाईंवासा गाँव में भेजे गये। चाईवांसा गांव का यह स्कूल ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित था। यहां उन्होंने अंग्रेजों का व्यवहार और भोले आदिवासियों को भ्रमित कर मतान्तरण का अभिमान देखा। यह व्यवहार दोनों प्रकार का था। एक तो शोषण का और दूसरा झूठे आरोपों में कड़े दंड देने का। अंग्रेज और उनके अधिकारी आदिवासियों के साथ ऐसा शोषण और अपमान जनक व्यवहार इसलिये भी करते थे कि भय ग्रस्त होकर आदिवासी समाज मतान्तरण केलिये तैयार हो जायें। भावुक किन्तु संकल्पनिष्ठ विरसा मुंडा इससे बहुत दुखी हुए तथा समान व्यवहार के लिये अपनी बात रखने लगे।

इसी बीच 1894 में उस क्षेत्र में भयानक अकाल पड़ा। किन्तु किसानों से लगान बसूली जारी रही। इधर वनवासियों से महंगी से महंगी वनोपज के बदले व्यापारी भरपेट रोटी भी न देते। इससे उनके मन में विद्रोह उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने मुंडा समाज के युवको को एकत्र करके वनवासियों के शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की।

Bhagwan Birsa Munda: The Hijacking of an Identity - Rashtriya Chhatra Shakti

उनका संघर्ष दो मोर्चों पर एक साथ। एक तरफ साहूकार का शोषण और दूसरी तरफ लगान माफी के लिये अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन। उन्होंने सभायें करना शुरू की और किसानों से लगान न देने का आव्हान किया। अंग्रेजों से लगान माफी का आव्हान भी किया। उन्होने अक्टूबर 1894 में   आदिवासी समाज और वन में रहने वाले सभी बंधुओं की एक विशाल सभा का आयोजन कर  लगान कर माफी के लिये आन्दोलन आरंभ किया। पहले तो अंग्रेज पुलिस अपने डंडे के आतंक से आदिवासियों को डराना चाहा किन्तु आदिवासी अडिग रहे तो उन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा  सहित सौ से अधिक नौजवानों  को गिरफ्तार कर लिया। सबको अलग-अलग जेलों में रखा गया और बिरसा मुंडा को हजारीबाग के केन्द्रीय कारागार भेजा गया। उनपर मुकदमा चलाया और दो साल की सजा सुनाई गयी। लेकिन फिर भी यह आंदोलन ठंडा न पड़ा बिरसा मुंडा जी ने शिष्यों और अनुयायियों ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। एक ओर लगान माफी आदोलन जारी रहा और दूसरी ओर अकाल पीड़ितों की सेवा सहायता का काम भी आरंभ हुआ। यह ऐसा काम था जिससे अकाल और भूख से पीड़ित क्षेत्र वासियों ने उन्हे देवरूप में देखा। वे उन विरले महापुरुषों में से हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में ही देव दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती आबा”के नाम से पुकारते और पूजा करने लगे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे क्षेत्र में मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। एक ओर समाज में जहाँ उनके प्रति पूज्य भाव बढ़ रहा तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार भयभीत हो रही थी। इस आन्दोलन का दमन करने केलिये नये नये हथकंडे अपनाये जाने लगे। इसके बाद बिरसा मुंडा जी के संघर्ष और गिरफ्तारी और जेल जाने का सिलसिला शुरू हुआ।

Birsa Munda-The first tribal martyr – shwetank's-pad

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच अनेक सशस्त्र संघर्ष हुए। और हर बार बिरसा मुंडा जी टोली ही भारी पड़ती। अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा जी के नेतृत्व में चार सौ नौजवान आदिवासी सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला और बंदियों को छुड़ा ले गये, शस्त्र भी लूट लिये। इस घटना से अंग्रेज सरकार बौखलाई भी और सेना की अतिरिक्त टुकड़ी रवाना की। अंग्रेजी सेना ने कुछ विश्वासघाती तलाश किये जिससे इस मुंडा टोली की गतिविधि पता लग सके। सूचना के आधार पर अंग्रेज सेना ने  1898 में तांगा नदी के किनारे मोर्चा लगाया। जब आदिवासियों की सैन्य टोली आई तो मुकाबला आरंभ हो गया। पहले तो अंग्रेजी सेना कुछ पीछे हटी लेकिन बाद में गोलाबारी तेज की इससे आदिवासी सेना में अग्र पंक्ति के नौजवान बलिदान हो गये। इससे आदिवासी सेना में घबराहट हुई। इसका लाभ अंग्रेज सेना ने उठाया और माफी का प्रलोभन देकर हथियार डालने की बात कही। जैसे ही आदिवासियों ने हथियार डाले वे गिरफ्तार कर लिये गये। बिरसा मुंडा किसी प्रकार निकलने में सफल हो गये। उन्होने नये सिरे से पुनः संघर्षशील टोली बनाई और अंग्रेजों के खिलाफ फिर से मोर्चा खोल दिया। इस बार जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर भीषण संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में महिलाओं ने भी हिस्सा लिया। अंग्रेजों की अतिरिक्त कुमुक आई जिसने कयी गाँवों में घेरा डालकर सामूहिक नर संहार आरंभ कर दिया। जिसमें असंख्य स्त्री बच्चे मारे गये। सेना ने गाँव में आग लगा दी। यह हमला अचानक हुआ। बिरसा जनसभा सम्बोधित कर रहे थे। इस मुठभेड में भी बिरसा मुंडा जी निकल गये। अन्त में एक विश्वासघाती की सूचना के आधार पर 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर जमकोपाई जंगल से वे गिरफ़्तार कर लिये गये। जेल में प्रताड़ना का दौर चला और उन्होने 9 जून 1900 को इस संसार से विदा ली। इस प्रकार एक महानायक का बलिदान हो गया।

बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा मुण्डा जी की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है। 10 नवंबर 2021 को भारत सरकार ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)