अदालत से पहले जनता सुना सकती है फ़ैसला ।

#pradepsinghप्रदीप सिंह।
बुधवार, 20 जुलाई को महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सुप्रीम कोर्ट से तिहरा झटका मिला है। एक दिन पहले मंगलवार को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने शिवसेना के 19 में से 12 सांसदों को राहुल शेवाले के नेतृत्व में अलग गुट की मान्यता दे दी। पहला झटका लगा था शिवसेना के विधायक दल के बाद संसदीय दल में भी फूट हो गई। लेकिन यह झटका सुप्रीम कोर्ट से बाहर का था।

पहला झटका

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे गुट की याचिका पर सुनवाई करते हुए पूरे महाराष्ट्र मामले की सुनवाई एक अगस्त तक टाल दी। न्यायालय ने शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट की जल्द से जल्द सुनवाई की मांग को नहीं माना और कहा कि 27 जुलाई तक सभी पक्ष हलफनामा दाखिल करें कि वे किन किन मुद्दों पर सुनवाई चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन मामलों में कई संवैधानिक प्रश्न हैं जिनका जवाब खोजना है। इसलिए यह मामला एक बड़ी बेंच के पास जाएगा। एक अगस्त को सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि कितनी बड़ी बेंच होगी, उसमें कौन कौन न्यायाधीश होंगे- यानि बेंच का गठन होगा और उसके बाद सुनवाई होगी। इस तरह उद्धव ठाकरे को यह तो सुप्रीम कोर्ट से पहला झटका मिला कि इस मामले की जल्दी सुनवाई नहीं हो रही है।

दिग्गज वकीलों की दलीलें

सुनवाई में उद्धव ठाकरे की ओर से कपिल सिब्बल और शिवसेना के उनके पक्ष की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी वकील के तौर पर पेश हुए। एकनाथ शिंदे की ओर से हरीश साल्वे पेश हुए। कपिल सिब्बल और सिब्बल ने कहा कि 40 विधानसभा सदस्यों ने पार्टी छोड़ दी और जैसे ही उन्होंने व्हिप का उल्लंघन किया उनकी सदस्यता चली जानी चाहिएI 10th शेड्यूल यानी संविधान की दसवीं अनुसूची का इस्तेमाल डिफेक्शन को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। उधर हरीश साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट में कहां के एक ही पार्टी के 40 विधायकों ने तय किया कि उनका नेतृत्व एकनाथ शिंदे करेंगे। इस तरह पार्टी में कोई टूट नहीं हुई है। पार्टी में केवल नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। ऐसे में किसी की सदस्यता जाने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन इन सब मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट बाद में फैसला करेगा।

दूसरा झटका

सुप्रीम कोर्ट में दूसरा झटका उद्धव ठाकरे को यह लगा कि उनकी पिछली सरकार ने महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय- खासतौर से बम्बई म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) और राज्य के अन्य स्थानीय निकायों- के चुनावों में ओबीसी आरक्षण के लिए जो  रिपोर्ट रखी थी उसको रिजेक्ट कर दिया। नया आयोग बनाने का आदेश दिया था- उसकी रिपोर्ट आई- सुप्रीम कोर्ट में पेश हुई- और सुप्रीम कोर्ट ने उसे स्वीकार करते हुए महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय में ओबीसी आरक्षण की इजाजत दे दी। तो अब उद्धव और शिंदे दोनों ही सरकारें इस रिपोर्ट के बारे में अलग-अलग दावे करेंगी। नई सरकार कहेगी कि हमारे आने के बाद यह हुआ… और पिछली सरकार कहेगी कि हम ने ही कमेटी बनाई थी जिसकी अनुशंषाओं (रेकमेंडेशन्स) को सुप्रीम कोर्ट ने माना।

तीसरा झटका

तीसरी बात- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दो हफ्ते के अंदर स्थानीय निकाय चुनावों की अधिसूचना जारी करें। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि मुंबई समेत पूरे प्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनावों का शेड्यूल घोषित किया जाएगा। जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने बाकी मामलों की सुनवाई के लिए तारीख लगाई है उसे देखते हुए ऐसा लग रहा है की अदालत का फैसला आने से पहले जनता की अदालत का फैसला आ जाएगा। यही डर था उद्धव ठाकरे को। उनको लग रहा था कि स्थानीय निकाय के चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाए और उनके पक्ष में आ जाए। इससे उनके लिए इन चुनावों में मुकाबला करना आसान हो जाएगा। अगर उद्धव ठाकरे के गुट को मुख्य या असली शिवसेना के तौर पर मान्यता मिल गई तो उनके लिए शिवसेना पर कब्जे की लड़ाई आसान हो जाएगी। अब उनके लिए मुश्किल यह है कि एक तरफ अदालत की लड़ाई और दूसरी तरफ जनता की अदालत में लड़ाई। कानून की अदालत की लड़ाई तो अपना समय लेगी और अपने समय पर उसका फैसला आएगा। लेकिन दो हफ्ते के अंदर जनता की अदालत में लड़ाई की तारीख तय हो जाएगी।

एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई

इस हालत में उद्धव ठाकरे की शिवसेना के लिए मुंबई समेत बाकी स्थानीय निकाय के चुनावों में जीतना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि महाराष्ट्र विकास अघाडी है या नहीं है यह किसी को मालूम नहीं है। उद्धव ठाकरे अगर महाराष्ट्र विकास अघाड़ी के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो उसका मतलब है कि वह सेक्युलरिज्म के जिस रास्ते पर चले थे उस पर टिके हुए हैं। अगर उससे हटते हैं- क्योंकि उन्होंने दावा किया है कि हिंदुत्व का रास्ता छोड़ा नहीं है- तो चुनाव में उतरना और मुश्किल। अगर वह महाराष्ट्र विकास आघाडी में बने रहते हैं तो उसका फायदा शिवसेना का एकनाथ शिंदे गुट उठाएगा। वे कहेंगे कि जैसा हम पहले से कह रहे थे कि उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व का रास्ता छोड़ दिया है देखिए वह उसी रास्ते पर हैं। उद्धव ठाकरे के लिए समस्या यह है कि अगर एमवीए से गठबंधन नहीं होता है तो इन चुनावों में लड़ना, उम्मीदवार खड़ा करना उनके लिए कठिन होगा- अपेक्षाकृत अगर उनकी पार्टी एक रहती और बीजेपी के साथ एलाइंस होता।

महाभय- बीएमसी हाथ से निकल गई तो…

महाराष्ट्र में पिछले 30 साल में (किसी जिले में हुए एकाध अपवादों को छोड़ दें तो) शिवसेना और बीजेपी मिलकर निकाय चुनाव में उतरे हैं- खासकर बीएमसी का चुनाव। बीएमसी पर ज्यादा जोर इसलिए दे रहा हूं क्योंकि यह देश की सबसे बड़ी और धनी म्युनिसिपल कारपोरेशन है। कई राज्यों के बजट से ज्यादा बड़ा बजट है इसका। शिवसेना के लिए तो यह ब्रेड बटर है। उसका आर्थिक स्रोत यही बीएमसी है। अगर बीएमसी शिवसेना के हाथ से निकल गई तो शिवसेना के लिए संसाधन की दृष्टि से राजनीति में सरवाइव करना बहुत कठिन हो जाएगा। अब ये जो झटके लगे हैं उद्धव ठाकरे को- तो क्या जनता भी झटका देगी या नहीं देगी, यह जब नतीजे आएंगे तब पता चलेगा। लेकिन उनके लिए मुश्किल जरूर खड़ी हो गई है।

क्या है संविधान की दसवीं अनुसूची?
भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची जिसे लोकप्रिय रूप से ‘दल बदल विरोधी कानून’ (Anti-Defection Law) कहा जाता है, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के द्वारा लाया गया है। यह ‘दल-बदल क्या है’ और दल-बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है।