लीडिया पॉवेल। अखिलेश सती। विनोद कुमार तोमर।
रूस पर पश्चिमी देशों के लगाए गए प्रतिबंधों के चलते भारत का तेल आयात प्रभावित हुआ है जिसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है।
तेल की क़ीमतों को लेकर अनुमान
यूक्रेन में संकट को देखते हुए रूसी तेल पर तेल कारोबारियों के स्वत: प्रतिबंध लगाने और पश्चिमी देशों द्वारा रूसी तेल पर आयात पर पाबंदियां लगाने से भुगतान को लेकर कमियों की चिंता ने ब्रेंट क्रूड तेल की क़ीमतों को 17 फरवरी 2022 की 90.81 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से ब़ढ़ाकर 8 मार्च 2022 को 129.8 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचा दिया। रूस यूक्रेन संकट के लंबा खिंचने की आशंका के चलते ज़्यादातर पुर्वानुमानकर्ताओं ने साल 2022 के लिए तेल की क़ीमतों में संशोधन किया। जनवरी 2022 के संकट से पहले, एनर्ज़ी इन्फ़ॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआईए) ने पूर्वानुमान लगाया था कि साल 2022 में ब्रेंट क्रूड की क़ीमतें औसतन 75 अमेरिकी डॉ़लर प्रति बैरल और साल 2023 में 68 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल रहेंगी। इसके साथ ही तेल की सप्लाई, जो कि मांग और स्टॉक से ज़्यादा हो गई है उसके चलते उम्मीद की जा रही है कि तेल की क़ीमतों पर इसका दबाव होगा जिससे क़ीमतों में कमी आएगी। साल 2022 में क्रूड के उत्पादन में 5.5 मिलियन बैरल प्रतिदिन की बढ़ोतरी का अनुमान है और इस बढ़ोतरी में अमेरिका, रूस, और ओपेक ( तेल उत्पादक और निर्यातक देश ) देशों की हिस्सेदारी क़रीब 84 फ़ीसदी (4.6 एमबी/डी) है। हालांकि तेल उत्पादन में प्रति दिन 3.6 एमबी/डी की बढ़ोतरी की उम्मीद है जिसमें अमेरिका और चीन में तेल उत्पादन में 39 फ़ीसदी की बढ़ोतरी होने की उम्मीद की जा रही है। साल 2022 में तेल का स्टॉक 0.5 एमबी/डी तक बढ़ने का अनुमान लगाया गया था। हालांकि मार्च में यूक्रेन में सैन्य हस्तक्षेप के बाद, ईआईए ने साल 2022 के लिए अपने ब्रेंट क्रूड मूल्य पूर्वानुमान को संशोधित कर 101 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल (30 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से अधिक) कर दिया और 2023 के लिए 85 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल कर दिया। यह पूर्वानुमान संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा रूसी कच्चे तेल पर आयात प्रतिबंध से पहले किया गया था, जो एक और संशोधन की संभावना की गुंजाइश छोड़ देता है। गोल्डमैन सैक्स ने अपनी ब्रेंट क़ीमत की उम्मीद को 2022 के लिए संशोधित कर 138 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से अमेरिकी डॉलर 98 प्रति बैरल कर दिया, साथ ही बाज़ार से निकाले गए रूसी कच्चे तेल के 1.6 मिलियन बैरल प्रति दिन की संभावना के बारे में भी बताया। जेपी मॉर्गन ने 2022 के लिए इन उम्मीदों को संशोधित कर 125 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के उच्च स्तर पर पहुंचा दिया।
व्यापक आर्थिक प्रभाव
तेल की क़ीमतें विभिन्न माध्यमों से भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। कम समय में कच्चे तेल की बढ़ी क़ीमतें मुद्रास्फ़ीति की दर को बढ़ा सकती हैं अगर कच्चे तेल की बढ़ी क़ीमतें खुदरा उपभोक्ताओं तक पहुंच जाती हैं। ये भी हो सकता है कि आरबीआई (भारतीय रिज़र्व बैंक) द्वारा साल 2022-23 के लिए 4.5% की मुद्रास्फीति का अनुमान लगभग 1% बढ़ सकता है अगर तेल की क़ीमतें लगभग 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल पर रहती हैं। हालांकि पेट्रोल और डीज़ल पर करों को कम करके तेल की क़ीमतों में कमी लाई जा सकती है, तब इसका प्रभाव कम हो सकता है, लेकिन ख़तरा यह है कि इससे भारत के राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी होगी। यह अनुमान है कि पेट्रोल पर 27.9रुपए/लीटर(l) और डीज़ल पर 21.9रुपए/लीटर के मौजूदा उत्पाद शुल्क में 7 रुपए/लीटर की कमी की गई है, इससे सरकार को 1 ट्रिलियन रूपए के क़रीब के राजस्व का नुकसान हो सकता है, भले ही 2022-23 में पेट्रोल और डीज़ल की खपत में 8-10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। यह 2022-23 के लिए 16 ट्रिलियन रुपए से अधिक के अनुमानित राजकोषीय घाटे का 6 प्रतिशत से अधिक है।
असंतुलन में बढ़ोतरी
अगर तेल की क़ीमतें लंबी अवधि तक ऊंची बनी रहती हैं तो भारत का चालू खाता घाटा (सीएडी) काफी बढ़ सकता है। तेल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण अंग है और कम समय में मांग क़ीमत के अनुकूल नहीं है, जिसका मतलब यह है कि जब तेल की क़ीमत बढ़ती है, तो तेल आयात बिल आनुपातिक रूप से बढ़ता ही है। साल 2020-21 में भारत के कुल आयात बिल में तेल की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से अधिक थी। अकेले तेल आयात ने 102 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के कुल व्यापार घाटे का लगभग 56 प्रतिशत योगदान दिया है। जबकि साल 2020-21 में कच्चे तेल (भारतीय बास्केट) की औसत क़ीमत प्रति बैरल 44.82 अमेरिकी डॉलर थी। पिछले 11 महीनों में कच्चे तेल की भारतीय बास्केट की क़ीमत 83 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल (मार्च 2022 शामिल नहीं) से अधिक है और मार्च 2021-जनवरी 2022 के लिए तेल आयात बिल 2020-2021 में 82.684 बिलियन अमेरिकी डॉलर की तुलना में 114.141 बिलियन अमेरिकी डॉलर है।
क़ीमतों में बदलाव की प्रकृति
पिछले तेल की क़ीमतों के उठापटक के विश्लेषण से पता चलता है कि तेल की कीमतों के झटकों के प्रभावों को समझने में तेल की क़ीमतों में बदलाव की प्रकृति मायने रखती है। तेल को लेकर होने वाली उठापटक के कुल मांग से प्रेरित, तेल-विशिष्ट मांग से प्रेरित, या वर्तमान मामले की तरह आपूर्ति संचालित हो सकते हैं। आपूर्ति-संचालित तेल की क़ीमतों को लेकर उठा पटक मांग-संचालित झटके की तुलना में चालू खाता असंतुलन में बढ़ोतरी करते हैं, और आपूर्ति-संचालित झटके के प्रभाव ऊर्जा निर्भरता के अलग-अलग स्तर से संबंधित होते हैं। मांग-संचालित तेल के झटके में, चालू खाते के असंतुलन पर प्रभाव कम होता है, क्योंकि तेल की क़ीमत में वृद्धि वैश्विक आर्थिक गतिविधि में तेजी से आती है। निष्कर्ष यह है कि कारोबार चैनल (परिसंपत्ति मूल्यांकन या विनिमय दर चैनलों के बजाय) तेल की क़ीमतों से मिलने वाले झटकों के लिए मुख्य समायोजन तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में मौजूदा भू-राजनीतिक उथल-पुथल, वस्तुओं की क़ीमतों और आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं की परिस्थितियों में निर्यात बढ़ाना भारत के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की तेज दर भले ही हासिल की गई हो लेकिन ज़रूरी नहीं कि यह तेल की ऊंची क़ीमतों के प्रतिकूल प्रभाव को कम कर दे। यह अनुमान लगाया गया है कि सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर में 1 प्रतिशत की वृद्धि भी सीएडी और जीडीपी के अनुपात को महत्वपूर्ण रूप से नहीं बदल सकती है।
तेल की क़ीमत के झटके
लंबे समय में तेल की क़ीमतों में निरंतर वृद्धि का आर्थिक गतिविधि और उत्पादन पर प्रभाव पड़ सकता है। उत्पादन की लागत में वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में कमी भी मज़दूरी, रोज़गार और आख़िरकार लोगों की क्रय शक्ति को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। तेल की कीमतों को लेकर उठापटक और व्यापक आर्थिक नतीजों के बीच संबंध का विश्लेषण अन्य बड़े तेल आयातकों की तुलना में भारत के लिए तेल की क़ीमत के झटके और आर्थिक उत्पादन के बीच केवल एक कमज़ोर संबंध को दर्शाता है। इसकी संभावित व्याख्या यह है कि भारत का औद्योगिक उत्पादन घरेलू कोयले पर अधिक निर्भर है लेकिन इसे लेकर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। पिछले अधिकांश आपूर्ति-संचालित तेल के झटकों को लेकर भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ गिरी है।
आयात में वृद्धि से व्यापार खाते में तेजी से गिरावट
दो वजहों ने भारत के साल 1991 के भुगतान संतुलन संकट में बड़ा योगदान दिया था। पहला, मध्य पूर्व में संकट और तेल की क़ीमतों में नतीज़तन बढ़ोतरी हुई थी जिसने चालू खाते को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था। दूसरा, भारत के व्यापारिक साझेदार आर्थिक मंदी की चपेट में थे, जिसने चालू खाते के संकट को और बढ़ा दिया था। साल 1991 में तेल आयात की मात्रा में वृद्धि के साथ ही तेल की क़ीमतों में वृद्धि के परिणामस्वरूप पेट्रोलियम आयात का मूल्य 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 5.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया था। इसकी तुलना में, गैर-तेल आयात में मूल्य के संदर्भ में केवल 5 प्रतिशत और मात्रा के संदर्भ में 1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। तेल आयात में वृद्धि के कारण व्यापार खाते में तेजी से गिरावट आई जो पहले से ही पूर्ववर्ती सोवियत संघ के पतन के कारण दबाव में था, और जो भारत का महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार था। शेष बातें इतिहास का हिस्सा हैं।
लंबे समय के लिए उच्च क़ीमत?
भारत के कुल आयात (मूल्य के संदर्भ में) में कच्चे तेल की हिस्सेदारी में पिछले चार दशकों में उतार-चढ़ाव हुआ है जो वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्था में बदलाव को दर्शाता है। साल 1970 में यह 10 प्रतिशत से कम था लेकिन 1970 के दशक के अंत तक तेल संकट के दौरान 40 प्रतिशत से अधिक हो गया। यह पिछले दो दशकों में 25 प्रतिशत से ऊपर रहा है। हालांकि यह आंशिक रूप से तेल की खपत में तेजी की ओर इशारा करता है, साथ ही यह तेल की बढ़ी कीमतों को भी दिखाता है (2008 में वित्तीय संकट और 2019 में महामारी से बाधित)। वास्तव में महामारी के दौरान तेल की क़ीमतों पर नैरेटिव “लंबे समय तक कम” विषय के आसपास केंद्रित रही थी। साल 2022 में तेल बाज़ार में प्रतिबंधों और अनिश्चितता ने नैरेटिव को “लंबे समय तक ज़्यादा क़ीमत” में बदल दिया है। हालांकि इसे लेकर भी कोई भरोसा नहीं है। 17 मार्च 2022 तक तेल की क़ीमतें 130 प्रति बैरल से अधिक के उच्च स्तर से लगभग 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक गिर गई। इसे कयास लगाए जाने पर तेजी के अनुरुप सुधार के तौर पर देखा जाता है ना कि बुनियादी बदलाव की तरह। अगर तेल की क़ीमतें लंबे समय तक अधिक रहती हैं, तो यह अंतिम उपयोग की दक्षता में वृद्धि और कीमतों को नीचे लाने वाले विकल्पों में बदलाव के जरिेए मांग को बुरी तरह प्रभावित करता है लेकिन ऐसी स्थिति आने में लंबा समय लगता है। वैश्विक प्राथमिक ऊर्जा बास्केट में जीवाश्म ईंधन ( फॉसिल फ्यूल ) का हिस्सा 1965 में 95 प्रतिशत से गिरकर साल 2020 में लगभग 84 प्रतिशत हो गया है। जबकि इसी दौरान वैश्विक प्राथमिक ऊर्जा बास्केट में तेल का हिस्सा 41 प्रतिशत से 34 प्रतिशत तक गिर गया लेकिन तेल के आसपास की भू-राजनीति ने अपनी स्थितियां पहले जैसी ही बना रखी है। साल 1956 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने मिस्र द्वारा स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण के ख़िलाफ़ एंग्लो-फ्रांसीसी सैन्य कार्रवाई को रोकने के लिए अपने वित्तीय और सैन्य प्रभुत्व का इस्तेमाल किया था। तब तेल टैंकरों को स्वेज़ नहर का उपयोग करने से रोका गया था जिसके माध्यम से प्रत्येक दिन 1.2 मिलियन बैरल कच्चे तेल को ले जाया जाता था। सीरिया के ज़रिए इराक़ से आधा मिलियन बैरल कच्चे तेल को ले जाने वाली एक प्रमुख पाइपलाइन को भी तोड़ दिया गया था और ब्रिटेन और फ्रांस के मध्य पूर्वी तेल के निर्यात को रोक दिया गया था। नेटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) के सहयोगी देशों के विश्वासघात पर हैरान कई यूरोपीय देशों ने सोवियत संघ से तेल और 1970 के दशक में सोवियत संघ से गैस के प्रति अपनी निर्भरता बढ़ा ली। मौजूदा समय में तेल आयातकों द्वारा ध्यान देने योग्य विडंबना यह है कि 60 से अधिक वर्षों बाद भी तेल के रणनीतिक महत्व और तेल आयातकों (यूरोप की) की कमज़ोर कड़ियों को सहन किया गया है, हालांकि इसमें अपराधी और रक्षा करने वाले की भूमिकाएं भले उलट गई हैं।
(ऑर्गनाइजर रिसर्च फाउंडेशन का शोध)