प्रमोद जोशी।
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।
बेशक प्रतीकात्मकता का लाभ बीजेपी को मिला है, पर राजनीति के भीतर आए बदलाव के पीछे बड़े सामाजिक कारण हैं, जिन्हें कांग्रेस और देश के वामपंथी दल अब तक समझ नहीं पाए हैं। अब लगता है कि केजरीवाल जैसे राजनेता भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।
करेंसी पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने का सांस्कृतिक महत्व जरूर है। जैसे इंडोनेशिया में है, जो मुस्लिम देश है। भारतीय संविधान की मूल प्रति पर रामकथा और हिंदू-संस्कृति से जुड़े चित्र लगे हैं। इनसे धर्मनिरपेक्षता की भावना को चोट नहीं लगती है।
केवल केसरिया रंग की प्रतीकात्मकता काम करने लगेगी, तो केजरीवाल सिर से पैर तक केसरिया रंग का कनस्तर अपने ऊपर उड़ेल लेंगे, पर उसका असर नहीं होगा। ऐसी बातें करके और उनसे देश की समृद्धि को जोड़कर एक तरफ वे अपनी आर्थिक समझ को व्यक्त कर रहे हैं, वहीं भारतीय-संस्कृति को समझने में भूल कर रहे हैं। हिंदू समाज संस्कृतिनिष्ठ है, पर पोंगापंथी और विज्ञान-विरोधी नहीं।
हैरत की बात है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं ने केजरीवाल की मांग का जोरदार तरीके से समर्थन शुरू कर दिया है। केजरीवाल का कहना है कि नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी के चित्र प्रकाशित करने से लोगों को दैवीय आशीर्वाद मिलेगा, जिससे वे आर्थिक लाभ हासिल कर सकेंगे। इसके पहले केजरीवाल गुजरात में जाकर कह आए हैं कि मेरे सपने में भगवान आए थे।
हिंदुत्व का लाभ
केजरीवाल ने अप्रेल 2010 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी-आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए थे। हलांकि ये नारे हिंदुत्व के नारे नहीं हैं और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इनका इस्तेमाल हुआ है, पर स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में कांग्रेस ने इन नारों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया था। केजरीवाल अलबत्ता हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल इस रूप में करना चाहते हैं, जिससे उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी नहीं माना जाए। पर इतना स्पष्ट है कि वे उस हिंदुत्व का राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि देश अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार कमजोर होने के कारण नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। ऐसे में यह जुगत काम करेगी। इस विचार पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में कहा है कि ‘आर्थिक बहस में समझदारी जरूरी है।’
रुपये में आ रही लगातार गिरावट के कारण केंद्र सरकार को काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष की शुरुआत से अब तक यह अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 10 फीसदी से अधिक गिरावट दर्ज कर चुका है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस आर्थिक बहस में एक निराधार सुझाव दे दिया कि नकद मुद्रा पर भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी की तस्वीर अंकित की जाए ताकि देश की आर्थिक स्थिति बेहतर की जा सके।
अर्थशास्त्र पर धर्मशास्त्र
यह बात इसलिए भी चिंतित करने वाली है कि राजनीतिक बहस एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है जहां हर बात को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है। इस फिसलन भरी राह से बचा जाना चाहिए। राजनीतिक दलों से आमतौर पर यह अपेक्षा रहती है कि आर्थिक प्रबंधन पर उनकी बहस अधिक जानकारी से भरी हो। मुद्रा बदलने या उस पर छपी तस्वीर बदलने से इसमें मदद नहीं मिलेगी।
आमतौर पर मुद्रा को लेकर होने वाली राजनीतिक बहस, अमेरिकी डॉलर के बरक्स उसके असमायोजित मूल्य तक सीमित रहती हैं जबकि इससे भी बचने की आवश्यकता है। समायोजन के बगैर मुद्रा की मजबूती को सीधे अर्थव्यवस्था से जोड़ने के कारण ही रुपये की मजबूती को लेकर एक व्यवस्थागत पूर्वग्रह उत्पन्न हो गया है। सभी राजनीतिक दलों ने संसद में अपनी-अपनीस्थिति के अनुसार यही रवैया अपनाया है।
ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते रुपया अक्सर दबाव में रहा है और इन वजहों में से ज्यादातर भारत के नियंत्रण में नहीं हैं। यह जानना और मानना जरूरी है कि भारत अपनी जरूरत के कच्चे तेल में से ज्यादातर आयात करता है। इसकी ऊंची कीमतें वाह्य खाते की स्थिति को प्रभावित करती हैं। चूंकि तेल कीमतें ऊंची हैं और उनके निकट भविष्य में भी ऊंचा बने रहने की आशंका है, इसलिए भारत का चालू खाते का घाटा भी ऊंचा बना रहेगा। इससे रुपये पर जाहिर तौर पर दबाव पड़ेगा।
डॉलर की मजबूती
तेल और व्यापारिक कारकों से इतर अन्य मसले भी हैं जो इस समय मुद्रा की गति को प्रभावित कर रहे हैं। अमेरिकी डॉलर मजबूत हो रहा है, इसका परिणाम अधिकांश मुद्राओं में गिरावट के रूप में सामने आया है। इनमें यूरो, येन और पाउंड जैसी मुद्राएं भी शामिल हैं। सच तो यह है कि रुपया कई अन्य मुद्राओं की तुलना में कम गिरा है क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने जरूरी हस्तक्षेप किए हैं। चूंकि अमेरिकी केंद्रीय बैंक मौद्रिक स्थितियों को अन्य केंद्रीय बैंकों की तुलना में तेज गति से सख्त बना रहा है, इसलिए पूंजी अमेरिका की ओर जा रही है।
भारतीय बाजारों से भी इस वर्ष 24 अरब डॉलर की पूंजी बाहर गई है। ऐसे में चूंकि आयातक और विदेशी निवेशक दोनों और अधिक डॉलर की मांग कर रहे हैं इसलिए घरेलू मुद्रा की तुलना में इसका मूल्य बढ़ रहा है। चूंकि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के दरों में इजाफा जारी रखने की संभावना है, इसलिए रुपये पर दबाव भी बरकरार रहेगा।
यह बात भी माननी होगी कि मुद्रा का अवमूल्यन भी आवश्यक है। अन्य मुद्राओं में गिरावट के बीच रुपये की कीमत को न गिरने देना देश की वाह्य प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करेगा। मजबूत मुद्रा से उपभोक्ताओं को लाभ होगा और उत्पादकों को नुकसान। इतना ही नहीं ऐसे माहौल में ऐसे देश को कठिनाई होगी जो अपनी मुद्रा के बचाव के लिए पूंजी की आवक पर निर्भर है। इससे ज्यादा बड़ा असंतुलन तथा वित्तीय स्थिरता को अधिक जोखिम उत्पन्न हो सकता है। केंद्रीय बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करते हुए अतिरिक्त अस्थिरता को थामा जाना चाहिए।
आरबीआई द्वारा घोषित तरीका भी यही है। कुल मिलाकर यह अहम है कि अर्थव्यवस्था को लेकर राजनीतिक बहस अधिक जानकारी से भरी हो और संस्थानों पर अनावश्यक दबाव न डाले। बहस इस बात पर केंद्रित होनी चाहिए कि एक संतुलित बजट से कम मुद्रास्फीति के साथ उच्च वृद्धि कैसे हासिल की जाए। इससे दीर्घावधि में स्थिरता और समृद्धि सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)