बस्तर की वनवासी परम्पराएं अपने आप में कई रोचकता समेटे हुए हैं, पूरा देश जब दिपावाली मना रहा होता है, तब बस्तर के ग्रामीण इलाकों में इसका जिक्र तक नहीं होता। यहां के ग्रामीणों में इस त्योहार को मनाने की कोई रवायत नहीं है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीण समुदाय वक्त के साथ दिपावाली मनाना शुरू कर दिया है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की अपनी मान्यताएं और परम्पराएं आज भी बरकरार हैं। बस्तर का दियारी पर्व वास्तव में फसल और पशुओं की रक्षा और उसकी संमृद्धि से जुड़ा है। यह वैसे ही है जैसे धन-संपत्ति के लिए दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा करते हैं। दियारी दो से तीन दिनों तक मनाई जाती है, सारे रस्मों रिवाज अन्न और पशुधन पर केंद्रित होते हैं। दियारी के साथ ही बस्तर में मेले मड़ई का दौर शुरू हो जाता है, दंतेवाड़ा में मनाये जाने वाले फागुन मड़ई तक जारी रहता है।
दंतेवाड़ा के गांव में दीपावली का पर्व अनोखे तरीके से मनाया जाता है, यहां दीपावली के साथ-साथ दियारी का त्योहार मनाया जाता है। खास बात यह है कि इस दियारी के त्योहार में आतिशबाजी तो जरूर होती है, लेकिन दीए नहीं जलाए जाते हैं। जिले के धर्म नगरी बारसूर के घोटपाल गांव में ग्रामीण दियारी के दिन देवी देवताओं की पूजा कर बकरे और मुर्गे की बलि चढ़ाकर धूमधाम से पर्व को मनाते हैं। घोटपाल के ग्रामीण मनकुराम, लक्ष्मण और नारायण नाग का कहना है कि पिछले कई सालों से गांव में दियारी त्योहार के दौरान इसी परंपरा के तहत पर्व मनाया जाता है। दियारी के दिन बांस के लट्ठे पर मोर पंख और घंटिया बांधकर देवी-देवताओं की स्थापना की जाती है, फिर उन्हें स्नान कराने के बाद उन्हें मंदिर में लाया जाता है।
बीजापुर निवासी बी गौतम राव ने बताया कि शहर में दिवाली पर दिये और पटाखे दिखते हैं, लेकिन दक्षिण बस्तर के गांवों में आप यह नहीं देखेंगे। यहां दिवाली मनाने की कोई संस्कृति नहीं है। अंदर के इलाकों में तो बहुत से लोगों को इसकी जानकारी तक नहीं। नवंबर के महीने में जब फसल पकने लगती है, तब एक त्योहार अवश्य मनाया जाता है, इसे गोंडी बोली में दीवाड़ कहते हैं, हल्बी में इसी का नाम दियारी भी है। ग्रामीण अपने ग्राम देवता को पूजते हैं, हर गांव के देवता भी अलग होते हैं। उन्होंने बताया कि भोगम क्षेत्र में वंगे डोकरी देव की पूजा होती है, दीवाड़ दो दिनों तक मनाया जाता है।
वहीं मध्य बस्तर में ग्रामीण डेढ़ महीने बाद हिंदू पंचाग के पौष माह में अपनी दियारी मनाएंगे। धान की फसल घरों में पहुंचने के बाद तीन दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस दौरान ग्रामीण जान-माल की सुरक्षा के लिए शीतला माता से गांव की खुशहाली और समृद्धि की कामना करते हैं। पहले दिन ग्रामीण गांव में एकत्र होकर माता शीतला की पूजा-अर्चना कर गांव में खुशहाली की कामना करते हैं। दूसरे दिन सुबह महिलाएं पांच प्रकार के कंद से खिचड़ी तैयार करती हैं और गायों को खिलाती हैं। शाम को गायों के गले में मोर पंख, पलाश की जड़ और ऊन से तैयार गेठा (सोहई) पहनाया जाता है। तीसरे दिन ग्रामीण आंगन में गोबर से मगरमच्छ की आकृति बनाते हैं। जान-माल की सुरक्षा की कामना कर उसकी पूजा करते हैं। महिलाएं शाम को जंगल के बीच स्थित गोठान में जुटती हैं। वे अपने साथ सूप में धान, कपड़ा और कुछ रुपये लेकर जाती हैं। गोठान में कतारबद्ध बैठकर सूपा में रखे धान के ऊपर दीप जलाकर गोठान देव की पूजा में शामिल होती हैं।
इस संबंध में हल्बा समाज के अध्यक्ष अर्जुन नाग, धुरवा समाज के दरभा ब्लॉक अध्यक्ष महादेव नाग, भतरा समाज के रतनराम कश्यप के अलावा भाटीगुड़ा के ऋषि यादव, तारापुर की रामबती कश्यप, कुम्हड़ाकोट की यशोदा बताती हैं कि बस्तर के गांवों में रक्षाबंधन, गणेश और दुर्गोत्सव की तरह ही दियारी भी मनाई जाती है। (एएमएपी)