कमल जयंत।
उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में सियासी दलों के बीच दलितों का वोट पाने की होड़ लगी है। राज्य में पांच चरणों की 292 सीटों पर मतदान हो चुका है। इस दौरान बसपा के प्रत्याशी चुनाव मैदान में कहीं भी लड़ते नहीं दिख रहे जिसकी वजह से दलितों में बसपा प्रमुख मायावती को लेकर काफी निराशा है। उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 23 फीसदी है और इनमें भी सबसे अधिक संख्या चमार-जाटव बिरादरी की है। दलितों में इस वर्ग की आबादी लगभग 55 से 60 फीसदी है। इस समाज का वोट बसपा की शुरुआत से ही परंपरागत रूप से उसके साथ रहा है लेकिन इस बार ऐसा होता नहीं दिख रहा। दलित समाज को इस बार चुनाव में बसपा से ज्यादा संविधान बचाने की चिंता है। बसपा प्रमुख की इस चुनाव में निष्क्रियता के बावजूद दलित समाज संविधान विरोधी ताकतों को हराने की कोशिश में जुटे दल को अपना समर्थन देगा या बसपा के साथ ही जुड़ा रहेगा- ये तो 10 मार्च को चुनाव के नतीजे ही बताएँगे… वैसे इस चुनाव में बसपा नेतृत्व के सक्रिय ना रहने से इस वर्ग में निराशा जरूर है।
प्रतिबद्ध वोटरों का विश्वास डिगा
उल्लेखनीय है कि इस बार बसपा ने पिछले कई चुनावों की अपेक्षा सुरक्षित और सामान्य सीटों पर ज्यादा चमार-जाटव प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। ये समाज बहुजन नायक कांशीराम जी की नीतियों से प्रभावित होकर बसपा के गठन के समय से ही पार्टी के साथ मजबूती से जुड़ गया और 2019 में हुए लोकसभा के चुनाव तक बसपा के साथ काफी मजबूती से जुड़ा रहा। यहाँ तक कि तमाम दलित उत्पीड़न की घटनाओं और दलित एक्ट की बहाली की मांग को लेकर दलितों के आन्दोलन से बसपा के अलग रहने के बावजूद दलितों की अन्य जातियों के साथ ही चमार-जाटव बिरादरी के लोग बसपा के साथ जुड़े रहे हैं। यहाँ तक कि मायावती जी के बहुजन से सर्वजन का सियासी सफ़र तय करने के दौरान भी ये वर्ग बसपा के साथ मजबूती से जुड़ा रहा। इसके पीछे इस वर्ग का ये मानना था कि बसपा प्रमुख सर्वसमाज की बात जरूर कर रहीं हैं, लेकिन सरकार बनने के बाद वह दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज को मिलाकर बनने वाले 85 फीसदी बहुजन समाज के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहतीं हैं। यही वजह रही कि बसपा का कट्टर समर्थक चमार-जाटव समाज 2017 में यूपी में हुए विधानसभा के आमचुनाव में बसपा के साथ खड़ा रहा, क्योंकि उसे राज्य में बसपा की सरकार बनने का भरोसा था और साथ ही उसके सामने बसपा का कोई विकल्प भी नहीं दिख रहा था, लेकिन वर्ष 2019 में जिस तरह से बसपा प्रमुख ने लोकसभा चुनाव के बाद (जिसमें सपा को 5 और बसपा को 10 सीटें मिली थीं) सपा से गठबंधन तोडा, उसको लेकर इस वर्ग में भी निराशा व्याप्त हुई। उनका मानना था कि इस गठबंधन ने दलितों और पिछड़ा वर्ग को एकसाथ लाने में काफी मदद की। इन दोनों दलों के बीच राजनीतिक गठबंधन तो टूट गया, लेकिन सामाजिक गठबंधन बरकरार रहा, जिसे ये दलित वर्ग आगे भी बनाये रखने का भी प्रयास कर रहा है।
मायावती के शाह की तारीफ़ करने से दलित समाज में बेचैनी
दरअसल बसपा प्रमुख की निष्क्रियता के कारणों पर नजर डालें तो 2019 में हुए लोकसभा के चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बेनामी संपत्ति और अन्य मामलों में ईडी के जरिये सुश्री मायावती को डराने का प्रयास किया। बसपा के लम्बे समय से दलितों पर हुए उत्पीड़न को लेकर आंदोलित नहीं रहने की एक वजह यह भी रही। बसपा का मूल वोट बैंक जो इस चुनाव में खिसकता नजर आ रहा है उसका एक कारण यह भी है। विधानसभा चुनाव के दौरान केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने विपक्ष को बसपा को कमजोर ना आंकने की सलाह दी। इसके पीछे भाजपा नेतृत्व का मकसद था कि बसपा के कमजोर होने की वजह से दलितों का वोट बसपा में तो नहीं जा रहा है बल्कि भाजपा को हराने के लिए सपा गठबंधन की तरफ आकर्षित हो रहा है। शाह ने अपनी रणनीति के तहत बसपा की तारीफ की, ताकि बसपा के मजबूती से लड़ता देख दलित वर्ग उसे वोट दे दे। इस प्रकार वोटों का बंटवारा भाजपा के लिए सरकार बनाने में सहायक होगा। लेकिन शाह के बयान के बाद जिस तरह से बहन जी ने उनके प्रति अपना आभार व्यक्त किया, उसके बाद से दलित वर्ग के लोग बसपा के पक्ष में जाने के बजाय उल्टा उससे और दूर हो गए।
ब्राह्मणों को साधना पड़ा भारी
दलितों का नेतृत्व करने के लिए मायावती जी ने जिस तरह से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र को आगे किया और चुनाव की घोषणा से ठीक पहले ने सुरक्षित सीटों पर दलितों और ब्राह्मणों में समन्वय स्थापित कराने के लिए सतीश मिश्रा को भेजा, इसको लेकर दलितों में सतीश मिश्रा के साथ ही बसपा नेतृत्व के खिलाफ भी आक्रोश व्याप्त हो गया। इस वर्ग का कहना है कि बहुजन नायक कांशीराम जी ने मनुवाद और ब्राह्मणवाद से निजात दिलाने के लिए इस व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था। जिस तरह से मायावती दलितों की अगुवाई के लिए खुद आगे ना आकर सतीश मिश्रा को आगे कर रहीं हैं उससे दलित समाज के लोगों को लगने लगा है कि अब बसपा नेतृत्व ने संविधान बचाने की लड़ाई से अपने को दूर कर लिया है। ऐसे में राज्य के मौजूदा सियासी हालाल को लेकर दलित समाज के लोगों को अंदेशा है कि अगर राज्य में दोबारा भाजपा की सरकार बनी तो केंद्र में भाजपा की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। और अगर भाजपा की तीसरी बार केंद्र में वापसी हुई तो वह सबसे पहले भारतीय संविधान खत्म कर देगी। इन वर्गों को इस बात का अंदाजा है कि उन्हें सारे अधिकार संविधान से ही मिल रहे हैं, संविधान खत्म होते ही उनके सारे मौलिक अधिकार भी खत्म हो जायेगे। दलित समाज में तो इस बात की भी आशंका है कि भाजपा देश में गैरबराबरी के आधार पर स्थापित मनुस्मृति के कानून को लागू कर देगी, जिससे इस वर्ग की स्थिति गुलामों जैसी हो जाएगी। यही वजह है कि ये वर्ग भाजपा को हराने के लिए सपा गठबंधन के पक्ष में एकतरफा जुड़ गया है। उल्लेखनीय है कि एक समय मायावती ने ही केंद्र की भाजपा सरकार को मनुवादी करार देते हुए कहा था की यह सरकार संविधान बदलने पर आमादा है।
मूल मकसद से भटका बसपा नेतृत्व
उत्तर प्रदेश के पूर्व प्रमुख सचिव (गृह) रह चुके पूर्व आईएएस और सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि बसपा नेतृत्व अपने मूल मकसद से भटक गया है जिसकी वजह से पार्टी के आदर्शों से जुड़े इस समाज का भरोसा भी बसपा प्रमुख पर कम होता दिख रहा है। यूपी में हो रहे विधानसभा के चुनाव में दलितों में चमार-जाटव बिरादरी के सामने संविधान बचाने की चुनौती है, इस वर्ग को ये बात अच्छी तरह से मालूम है कि संविधान विरोधी ताकतों को यूपी में ही रोकने पर संविधान को बचाया जा सकता है। फिलहाल इस चुनाव में सपा का गठबंधन ही संविधान विरोधी ताकतों को हराता दिख रहा है। उनका कहना है कि भाजपा और आरएसएस शुरू से ही संविधान विरोधी रही है और वह देश में मनुस्मृति के कानून को लागू करके देश में गैरबराबरी समाज वाली व्यवस्था लागू करने की पक्षधर रही हैं। चूँकि चमार-जाटव बिरादरी दलित समाज की अगुवाई करती रही है और बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर से लेकर बहुजन नायक कांशीराम के आन्दोलन से जुड़कर मनुवादी व्यवस्था के समर्थक दलों का मुखर विरोध करती रही है, ऐसे में इस समाज की जिम्मेदारी बनती है कि संविधान विरोधी ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए एकजुट होकर संविधान बचाने की लड़ाई लड़ने वालों का सहयोग करे। इस चुनाव में सपा गठबंधन ही भाजपा को शिकस्त देता दिख रहा है। जबकि बसपा इस लड़ाई में दूर-दूर तक कहीं नहीं दिख रही है।
चुप्पी से बढ़ी दलितों की बेचैनी
बहुजन समाज में राजनैतिक तौर पर जागरूक चमार-जाटव बिरादरी संविधान में दिए सामाजिक और राजनीतिक आरक्षण को सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत है। ये वर्ग पूनापैक्ट से मिले केवल सरकारी नौकरियों में ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आरक्षण को बचाने के लिए संघर्षरत है, क्योकि समय-समय पर आरक्षण को समाप्त करने और संविधान की समीक्षा करने की बात आरएसएस और भाजपा के लोग करते रहते हैं। इस वर्ग को लगता है कि मौजूदा समय में संविधान बचाने की बात केवल सपा प्रमुख अखिलेश यादव ही कर रहे हैं। बसपा समेत कोई भी राजनीतिक दल इन मुद्दों पर चुनाव में वोट मांगने के दौरान चर्चा भी नहीं कर रहे हैं। हाथरस में दलित युवती से दरिंदगी की घटना पर बसपा नेतृत्व की चुप्पी से भी इस वर्ग में बेचैनी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)