श्रद्धांजलि : उर्मिल कुमार थपलियाल (15 जुलाई 1943 – 20  जुलाई 2021)

आपका अखबार ब्यूरो।
आजीवन रंगकर्म को समर्पित, लोक कलाओं विशेषकर नौटंकी को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुतीकरण के अभिनव चितेरे, कवि, व्यंग्यकार तथा अनेक बहु आयामी विधाओं के धनी डॉ. उर्मिल कुमार थपलियाल का मंगलवार 20 जुलाई की शाम लखनऊ में उनके आवास पर निधन हो गया। उनकी सृजनात्मकता की सुगंधि पूरे देश में फैली लेकिन रहे वह लखनऊ के ही।

लखनऊ की क्षति

Malini Awasthi, Author at Kreatelyमालिनी अवस्थी (प्रख्यात लोकगायिका): उर्मिल जी अनंत यात्रा को चल दिये। उनका जाना कला जगत की गहरी क्षति है ! लखनऊ की क्षति है! क्या बहुआयामी व्यक्तित्व था। कितना कुछ सीखने को मिलता था आप से। नमन उर्मिल थपलियाल जी। विनम्र श्रद्धांजलि। उर्मिल थपलियाल जी अनंत यात्रा को चल दिये। उनका जाना कला जगत की गहरी क्षति है ! लखनऊ की क्षति है! क्या बहुआयामी व्यक्तित्व था! मेरा सौभाग्य है कि आपके निर्देशन में मुझे भी काम करने का अवसर मिला! कितना कुछ सीखने को मिलता था आप से। नमन उर्मिल थपलियाल जी।

एक सप्ताह पहले तक लेखन में व्यस्त रहे

डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी (सेवानिवृत्त प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार) : आज श्री उर्मिल कुमार थपलियाल जी का निधन हो गया। वह लखनऊ के सांस्कृतिक क्षेत्र की एक बड़ी हस्ती थे और शायद सबसे पुरानी हस्ती थे। उनको आंत का कैंसर हुआ था। फिर भी वह अपने निधन से कोई एक सप्ताह पहले तक अपने लेखन कार्य में व्यस्त रहे।
उनको मैं लखनऊ में अपने पत्रकारिता जीवन के समय से जानता था। उनका कालम पहले  स्वतंत्र भारत में छपता था और बाद में यह आजकल दैनिक हिंदुस्तान लखनऊ में छपता रहा। उनका कालम मैं पिछले तीस चालीस सालों से देख रहा हूं। मुझे नहीं मालूम कि दुनिया में किसी और व्यक्ति का कालम किसी दैनिक अखबारों में इतने वर्षों तक चला है।
वह बहुत ही सहज और सरल व्यक्ति थे। उनको मैंने लेक्चर देने के लिए सेंट्रल यूनिवर्सिटी आफ झारखंड रांची और महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा में आमंत्रित किया था। उनको नाट्य क्षेत्र का, ऑल इंडिया रेडियो का और कॉलम लिखने का अपार अनुभव था। इस कारण उनके लेक्चर से छात्र काफी लाभान्वित हुए थे। श्री थपलियाल जी को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।
उर्मिल कुमार थपलियाल द्वारा निर्देशित नाटक ‘हरिश्चंनर की लड़ाई’ का एक दृश्य

एक अध्याय समाप्त

अकु श्रीवास्तव (सम्पादक, नवोदय टाइम्स, नई दिल्ली): लखनऊ में आज एक ऐसा सितारा डूब गया, जिसको लेकर खुद लखनऊ कह रहा होगा- हम फिदा ए तुम पर। उर्मिल कुमार थपलियाल  का जाना एक किस्से का खत्म होना है, अध्याय का समाप्त होना है और एक निरंतरता का रुक जाना है। स्वतंत्र भारत अखबार में उनकी सप्ताह की नौटंकी की गूंज कई वर्षों तक लगातार रही। उसके तीखे व्यंग्य कोई अछूता न था। अगर लखनऊ की नाट्य  क्षेत्र में कोई पहचान थी तो उसके एक बड़े केंद्र उर्मिल कुमार थपलियाल भी थे । सर्वसुलभ, मस्त उर्मिल जी को नमन।

अब आपसे कभी संवाद नहीं हो पायेगा

विजय पंडित (लेखक): लोक और शास्त्र दोनो के प्रकांड विद्वान थे आप। उन्नाव में नौटंकी पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में आपने जो वक्तव्य दिया था, उसे मैं नौटंकी के संदर्भ में आज भी मानक मानता हूँ। आपका नंबर आज ही संगीत नाटक अकादमी से लिया था। सुबह से बार-बार स्विच ऑफ़ का एनांउसमेंट। मुझे यह नही पता था कि अब आपसे कभी संवाद नहीं हो पायेगा। मुद्राराक्षस के बाद आप ही थे जो नौटंकी के सैद्धांतिक और प्रस्तुति पक्ष दोनो में ही शीर्ष पर थे। यह स्थान पता नही कब तक रिक्त रहेगा। नमन उर्मिल सर।
Aaj Savere - An interview with Urmil Kumar Thapliyal, Theatre Personality - YouTube

मैदान में पहाड़ की पहचान

राजू मिश्र (पत्रकार) : रंगमंच जगत की जानी मानी शख्शियत, लेखक निर्देशक डॉ. उर्मिल कुमार थपलियाल ने लखनऊ में मंगलवार 20 जुलाई को शाम 5:30 बजे अपने निवास स्थान पर अंतिम सांस ली और गोलोक के लिए प्रस्थान कर गए। अखबारों में उनकी नियमित नौटंकी खासी लोकप्रिय थी। वह मैदान में पहाड़ की पहचान थे। खासे मिलनसार और मदद के लिए सदैव प्रस्तुत रहने वाले उर्मिल जी बहुत याद आएंगे।

अलविदा सोहन लाल थपलियाल जी

हरजिंदर साहनी (वरिष्ठ पत्रकार):
बचपन में जिन दो लेखकों ने हमारे भीतर व्यंग्य की समझ पैदा की उनमें से एक थे केपी सक्सेना और दूसरे थे उर्मिल थपलियाल। उर्मिल जी की सप्ताह की नौटंकी पढ़ते हुए ही हम बड़े हुए थे। बहुत सारे मूल्यों और विडंबनाओं को हमे नट और नटी ने जिस खूबी से समझाया और किसी ने भी नहीं सिखाया। इसलिए जब मुझे हिंदुस्तान अखबार में संपादकीय पेज की जिम्मेदारी मिली तो मैने इन दोनों महान हस्तियों को अखबार से जोड़ने की कोशिश की। केपी सक्सेना अखबार में पहले भी लिखते रहे थे इसलिए उन्हें जोड़ने में तो दिक्कत नहीं आई लेकिन उर्मिल जी को जोड़ना आसान नहीं था और यह काम लखनऊ में नवीन जोशी जी के प्रयासों से ही संभव हो सका। लेकिन उनके पहले ही व्यंग्य में एक दुर्घटना हो गई। उन्होंने अपना व्यंग्य एक कागज पर लिखकर हिंदुस्तान के लखनऊ दफ्तर में पहुंचा दिया, जिसमें कहीं भी उनका नाम नहीं लिखा था। वहां उसे वैसे ही कंपोज़ कर दिया गया और जैसी की परंपरा है उसके काफी नीचे कंपोजीटर ने अपना नाम लिख दिया। वह हमें दिल्ली में मेल से भेजा गया। लेखक का नाम हमारे लिए नया था लेकिन व्यंग्य अच्छा था इसलिए हमने उस कंपोज़ीटर को ही लेखक मानकर उसके नाम से ही अखबार में छाप दिया।
व्यंग्यकार सरकारी नीतियों को नहीं बख्शते लेकिन फिर ऐसा समय आया जब सरकार की नीति ने उर्मिल जी को नहीं बख्शा। एक नियम आया कि कोई भी नियमित भुगतान उन्हीं लोगों को ही होगा जो अपना पैन नंबर कंपनी को देंगे। अब उर्मिल जी के पैन नंबर की एक दिक्कत थी।
हमें पहली बार पता पड़ा कि जिन्हें बचपन से उर्मिल थपलियाल के नाम जानते आए हैं उनका असली नाम सोहन लाल थपलियाल है। सरकारी नौकरी में रहते हुए अखबारों में लिखने के लिए उन्होंने यह नाम रख लिया था।
पैन नंबर सोहन लाल थपलियाल के नाम से था तो पेमेंट उर्मिल थपलियाल को कैसे होता। सभी अखबार संगठनों में अगर किसी विभाग की नौकरशाही सबसे ज्यादा होती है तो वह एकाउंट डिपार्टमेंट ही होता है। उसे यह समझाना काफी टेढ़ी खीर था कि अब उर्मिल कुमार थपलियाल का पेमेंट अब सोहन लाल थपलियाल के नाम से ही होगा।
लेकिन अगला काम इससे भी कठिन था- एकाउंट विभाग को इसके लिए जिस भाषा में ऐफीडेविड चाहिए था उस भाषा में उर्मिल जी से लिखवाना। इसका जो पहला ड्राफ्ट आया वह कुछ इस तरह था- नाम से क्या होता है, नाम तो प्रेमचंद का भी कुछ और था। फिर उन्होंने इतिहास के उन सारे लेखकों के नाम गिना दिए जो दूसरे नाम से लिखते थे।
बड़ी मुश्किल से लखनऊ में नवीन जी उनसे सरकारी भाषा में पत्र लिखवाया और संबधित दस्तावेज भी दिए। आज मैं यहां सोहन लाल थपलियाल को श्रद्धांजलि दे रहा हूं। उर्मिल कुमार थपलियाल तो उनके रचनाकार का नाम है और रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से हमेशा जिंदा रहता है।

नेचुरल कलाकार

रेखा पंकज (पत्रकार): उर्मिल जी नेचुरल कलाकार थे। अपने आप में बेहद दिलचस्प , जो लिखते वैसे ही बोलते भी थे। उनके साथ स्वतंत्र भारत में अपने काम के दौरान कई मर्तबा भेंट हुआ करती थी। उनका कॉलम उस वक़्त खूब चर्चा में रहा। कई सालों बाद एक नाटक के बाद भेंट हुई। बीमारी की वजह से पहचानने में उनको दिक़्क़त हो रही थी, लेकिन पंकज जी का नाम उन्हें याद था… थोड़ी बहुत बात हुई। आखिरी बार उनके निर्देशित नाटक हे ब्रेख्त में उनका अदभुत काम देखा। एक संस्था बन चुके इस सबसे बड़े नौटंकीबाज़ को मेरा आखिरी प्रणाम।