न खुदा मिला न विसाले सनम।
प्रदीप सिंह।
“न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।
रहा दिल में हमारे ये रंजो अलम, न इधर के रहे न उधर के रहे।।”
लोगों के जीवन के हर क्षेत्र में इस तरह की परिस्थितियां आती हैं। ज्यादातर मामलों में ऐसा होता है जिसमें लोगों का अपना कर्म ही उसकी वजह होती है। इसके सबसे ज्यादा शिकार राजनीति में होते हैं। यहां भी मैं बात एक राजनेता की ही कर रहा हूं जिनका नाम आप बहुत अच्छी तरह से जानते होंगे, वरुण फिरोज गांधी। यही नाम लिखते हैं वो, अपने साथ अपने दादा का नाम लगाते हैं। राहुल और प्रियंका गांधी जिनका कभी नाम भी नहीं लेते हैं। वरुण गांधी अपने दादा को सिर्फ याद ही नहीं करते बल्कि उनका नाम भी अपने नाम में लगाते हैं। यह ईमानदारी की बात है कि जो सच्चाई है उसको स्वीकारते हैं। इस डर से अपने दादा को अस्वीकार नहीं करते हैं कि इसका चुनावी लाभ होगा या नुकसान होगा। मगर मैं यहां उसकी बात नहीं कर रहा हूं।
मैं बात कर रहा हूं वरुण गांधी के राजनीतिक जीवन की जो एक बंद गली के मुहाने पर पहुंच चुकी है जहां से कोई रास्ता निकलता ही नहीं है। अब उनको रास्ता बनाना पड़ेगा मगर बनाने से पहले बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले लगभग दो ढाई साल से वह लगातार भारतीय जनता पार्टी, भाजपा की केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, इन सबके खिलाफ बोलते रहे हैं। अगर आप उनका ट्विटर हैंडल देखेंगे तो आपको लगेगा कि किसी विपक्षी दल के नेता का देख रहे हैं। विपक्षियों ने भी शायद उस तरह से आलोचना नहीं की होगी जिस तरह से वरुण गांधी करते रहे हैं। पार्टी उनकी इस आलोचना को बर्दाश्त करती रही लेकिन एक समय आया जब पार्टी ने तय किया कि अब इससे ज्यादा नहीं। किसान आंदोलन के दौरान कृषि कानूनों पर उनका मुखर विरोध और फिर लखीमपुर कांड पर जिस तरह से उनका एक्टिव रोल रहा, विपक्ष के नेताओं चाहे समाजवादी पार्टी के रहे हों, बसपा के या फिर कांग्रेस के, उनसे ज्यादा रहा। उसके बाद पार्टी ने उनकी मां मेनका गांधी और उनको राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर कर दिया। अब यह कोई रहस्य नहीं है कि वरुण गांधी और मेनका गांधी को अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी से टिकट नहीं मिलेगा। बीजेपी में अब दोनों मां-बेटा सिर्फ तकनीकी रूप से हैं लेकिन इतना तय है कि अगले चुनाव में वे बीजेपी के सदस्य नहीं रहेंगे। कब पार्टी छोड़ने का ऐलान करेंगे पता नहीं लेकिन यहां जो बात कर रहा हूं उसके बाद से लगातार चर्चा चल रही है।
वरुण को राहुल की ना
वह बीजेपी पर लगातार हमलावर हो रहे थे, फिर उन्होंने बयान दिया कि वह कांग्रेस के विरोधी नहीं हैं, कांग्रेस की विचारधारा का विरोध नहीं करते। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जब राहुल गांधी पंजाब में थे तो उनसे सवाल पूछा गया कि क्या वरुण गांधी कांग्रेस में आ रहे हैं क्योंकि इस तरह के संकेत मिल रहे थे कि वरुण गांधी कांग्रेस ज्वॉइन करने वाले हैं। राहुल गांधी ने जो जवाब दिया उससे वरुण गांधी और मेनका गांधी दोनों पर एक तरह का तुषारापात हुआ है। उन्होंने कहा, “वरुण गांधी मुझसे मिलने आए तो मैं मिलूंगा, उन्हें गले लगा लूंगा। परिवार की बात अलग है, राजनीति की बात अलग है। वरुण गांधी ने जिस विचारधारा को अपनाया है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को, उसे मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकता। मैं कभी संघ कार्यालय नहीं जा सकता। उन्होंने संघ की विचारधारा को अपनी विचारधारा बना लिया है। इसलिए हमारा उनका राजनीतिक मेल नहीं हो सकता। अगर वह घर (उन्होंने बीजेपी का नाम नहीं लिया) छोड़ कर यहां आते हैं तो उनके लिए बड़ी मुश्किल होगी।” इस वाक्य पर ध्यान दीजिए कि अगर छोड़ कर यहां आते हैं तो उनके लिए बहुत मुश्किल होगी। राहुल गांधी ने यह बात क्यों कही? उनके मन में, अवचेतन में या चेतन में भी रही होगी जिसको वह खुलकर कहना नहीं चाहते। वह बात यह है कि वरुण गांधी और प्रियंका वाड्रा दोनों के अच्छे संबंध हैं। दोनों चचेरे भाई-बहन मिलते-जुलते रहते हैं। प्रियंका वाड्रा चाहती हैं कि वरुण गांधी कांग्रेस में आ जाएं। सवाल है कि क्यों? प्रियंका वाड्रा को लगता है कि उनको उत्तर प्रदेश में एक साथी की जरूरत है। उत्तर प्रदेश से ही उनकी राजनीति या तो बनेगी या खत्म हो जाएगी। अभी तक बनती हुई दिखाई नहीं दे रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उनको आधे से ज्यादा उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया था, नतीजा यह हुआ कि 80 में से सिर्फ एक सीट मिली। उनके प्रभार वाले क्षेत्र में अमेठी भी आती थी जहां से राहुल गांधी हार गए। उसके बाद 2022 का विधानसभा चुनाव आया जिसमें पार्टी को सिर्फ दो सीट मिली। कांग्रेस के 95% उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।
वरुण को कांग्रेस में प्रियंका लाना चाहती थीं
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सिर्फ तकनीकी रूप से बची है, व्यवहारिक रूप से खत्म हो चुकी है। कांग्रेस के रिवाइवल के लिए कोई एक अच्छा वक्ता चाहिए, कोई एक अच्छा कम्युनिकेटर चाहिए। यह बात तो आपको माननी पड़ेगी कि वरुण गांधी एक अच्छे वक्ता, एक अच्छे कम्युनिकेटर हैं। इसलिए अगर वरुण गांधी कांग्रेस में आते और प्रियंका वाड्रा के साथ उत्तर प्रदेश में घूमते तो कांग्रेस में कुछ तो जान आती। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस बहुत बड़ी संख्या में लोकसभा की या आने वाले समय में विधानसभा की सीटें जीत जाएगी लेकिन कांग्रेस में परिवर्तन की उम्मीद जगती, ऐसा प्रियंका वाड्रा को लगता है। मगर परिवार में जब दुश्मनी होती है तो वह बड़ी दूर तक जाती है। वरुण गांधी 10 जनपथ जाकर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा को अपनी शादी का निमंत्रण देकर आए थे लेकिन परिवार से शादी में कोई नहीं गया। जब शादी-विवाह के मौके पर भी कोई मिलने को तैयार न हो तो समझिए कि नफरत बहुत अंदर तक बैठी हुई है। राहुल गांधी की दूसरी बात पर ध्यान दीजिए। उन्होंने कहा कि मैंने जब वरुण गांधी को आरएसएस की तारीफ करते, संघ की विचारधारा की तारीफ करते हुए सुना तो मैंने उनसे बात की। मैंने उनसे कहा कि अगर तुम अपने परिवार का इतिहास पढ़ लेते तो यह बात न कहते। इस तरह का बयान देने के बाद वरुण गांधी को मैं अपना नहीं सकता। अपनी बात पर और जोर देने के लिए उन्होंने कहा कि मैं संघ कार्यालय तभी जा सकता हूं जब मेरा सिर कलम कर दिया जाए, उससे पहले मैं नहीं जा सकता। इससे समझ सकते हैं कि राहुल गांधी वरुण गांधी के कांग्रेस में आने के बिलकुल खिलाफ हैं। मैंने ऊपर कहा कि उनके इस फैसले से मेनका गांधी और वरुण गांधी दोनों पर तुषारापात हुआ होगा लेकिन असली मुद्दा यह है कि सबसे बड़ा तुषारापात प्रियंका वाड्रा पर हुआ है क्योंकि वरुण गांधी को कांग्रेस में प्रियंका लाना चाहती थीं।
वरुण से ज्यादा प्रियंका को संदेश
यह संदेश वरुण गांधी के लिए नहीं प्रियंका वाड्रा के लिए है। ये जो घर की लड़ाई है, दो भाइयों के परिवारों की वह तो चल ही रही है, वो जो कहा जाता है कि महल के अंदर का षड्यंत्र जिसमें अलग-अलग गुट, अलग-अलग कोटरी बनती है, अलग-अलग निष्ठाएं होती हैं, उसमें एक बात बड़ी स्पष्ट नजर आती है कि राहुल और प्रियंका के राजनीतिक संबंध, मैं व्यक्तिगत संबंध की बात नहीं कर रहा हूं, वैसे नहीं हैं जो बाहर से दिखाई देते हैं। प्रियंका वाड्रा जो कुछ करना चाहती हैं वह उनको करने नहीं दिया जाता है, यह इंप्रेशन बड़े लंबे समय से बना हुआ है। लंबे समय की कोशिश के बाद आखिर में 2019 में उनको महामंत्री बनाया गया, फिर उनको प्रभार दिया गया उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से का। भारत जोड़ो यात्रा की वजह से राहुल गांधी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए नहीं गए। प्रियंका गईं, 4-5 सभाएं की। उनके जो मीडिया सलाहकार हैं, उनके जो पीआर मैनेजर हैं उन्होंने बड़ी कोशिश की कि इसको इस रूप में दर्शाया जाए कि यह जीत प्रियंका वाड्रा की जीत है लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इस बात को कोई भाव नहीं दिया। कांग्रेस के किसी प्रवक्ता ने इस बात का कहीं जिक्र भी नहीं किया। इससे आप समझ गए होंगे कि सिर्फ वरुण गांधी के लिए ही कांग्रेस का दरवाजा बंद नहीं हुआ है, एक तरह से प्रियंका वाड्रा को भी राहुल गांधी ने झिड़का है कि इस तरह की कोशिश न करें। ऐसे लोगों को पार्टी में लाने की कोशिश न करें जिनके बारे में मैं विचार भी करने को तैयार नहीं हूं। अब बात आती है कि वरुण गांधी के सामने विकल्प क्या हैं? उनको शायद बहुत उम्मीद थी कि कांग्रेस में एंट्री हो जाएगी तो परिवार में भी एंट्री हो जाएगी। उनका राजनीतिक जीवन फिर से पटरी पर आ जाएगा लेकिन पटरी से उतर गया। हालांकि, वरुण गांधी कांग्रेस पर ही निर्भर नहीं थे, वह बीच-बीच में अखिलेश यादव की भी प्रशंसा करते रहे हैं। मगर अखिलेश यादव उन्हें अपनी पार्टी में लेंगे इसमें मुझे भारी शंका है। उसकी वजह यह है कि वरुण गांधी की जो खूबी है अखिलेश यादव की नजर में वही उनके लिए सबसे बड़ा निगेटिव प्वॉइंट है। अगर वरुण गांधी सपा में जाते हैं तो वक्ता के रूप में वह अखिलेश यादव से बेहतर होंगे। अपनी बात को स्पष्ट ढंग से रखने में वह अखिलेश यादव से बेहतर होंगे। उनको मीडिया अटेंशन ज्यादा मिल सकता है, एक तो गांधी सरनेम ऊपर से भारतीय जनता पार्टी से आए हैं, युवा हैं, इन सब कारणों से वरुण गांधी को जो जिस तरह का मीडिया अटेंशन मिलेगा, आम लोगों का भी मिल सकता है, यह जोखिम अखिलेश यादव नहीं लेना चाहेंगे। इसलिए मुझे लगता है कि अब वरुण गांधी के लिए रास्ता बहुत कठिन है।
हालांकि, राजनीति में किसी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनका राजनीतिक कैरियर खत्म हो जाएगा या हो गया है, राजनेता कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं। मगर फिलहाल 2024 के चुनाव की दृष्टि से देखें तो वरुण गांधी के सामने विकल्प बहुत ही सीमित हैं, मैं तो कहूंगा कि नहीं के बराबर हैं। अब उनके लिए एक ही रास्ता बचता है कि निर्दलीय चुनाव लड़ें, जीतें और अपनी ताकत दिखाएं। निर्दलीय के रूप में अगर वह जीतकर आते हैं तो शायद रास्ता खुल सकता है लेकिन यह “अगर” बहुत बड़ा अगर है। देखिए 2024 में क्या होता है, वरुण और मेनका गांधी का राजनीतिक भविष्य क्या होता है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं चैनल के संपादक हैं)