अनिल सिंह ।

इन दिनों हमारे मध्यवर्गीय कामरेड बुद्धिजीवी बहुत आक्रोश में हैं। फासीवाद आ गया है और देश सो रहा है, जनता सो रही है, लेखक कलाकार सो रहे हैं। अकेले वे ही जगे हैं।


 

उनका गुस्सा कहीं हुंकार में, कहीं ललकार में, कहीं गालियों में, कहीं विजय के दर्प में बह निकल रहा है। क्यों न हो, उनके पास खोने को कुछ नहीं है और पाने को सारी दुनिया पड़ी है।

सबसे ज्यादा गुस्सा है उनपर जो सीधे-सीधे उनकी बात मानकर फासीवाद का विरोध नहीं कर रहे और व्यवस्था बदलने में ढुलमुल हैं, साफ लाइन नहीं ले रहे।

हम जानते थे कि इस लोकतंत्र में और इसके तमाम पायों में उनकी रत्ती भर आस्था नहीं है। तो हमने उनमें से कुछ से पूछा कि बताइए कौन सी व्यवस्था लाने के लिए लाइन ले लें? या इन सत्ताधारियों को बदल कर कोई राहुल, लालू, मुलायम, मायावती, अखिलेश, ममता, ठाकरे वगैरह को ही फिर से ले आएं? और उसी क्रांति के लिए काम करें? क्या लाएं?

समाजवाद, कम्युनिज्म और क्या ?

पर वो तो पूरी दुनिया एक बार ले ही आई थी, उसका हश्र हमने देखा, वो तो पूंजीवाद से भी बुरा निकला। जैसे ही समाजवाद और कम्युनिज्म की सत्ता का शिकंजा टूटा तो वहां के लोगों में पूंजीवादी देशों में भागने की जो भगदड़ मची वह अभूतपूर्व थी। हमने खुद समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच लंबे समय रहकर देखा कि लोग मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद को तिलांजलि दे पूंजीवाद को ललक से देखते थे। एक चुटकुला तब भी चलता था कि समाजवाद की इस व्यवस्था में कितने लोगों की सच्ची आस्था है, इसे जांच करना है तो एक बार देश के बार्डर खोल कर देख लीजिए। फिर पता चलेगा कि कितने लोग यहां बचे रहेंगे और कितने पूंजीवादी देशों के लिए भाग खड़े होंगे। कोई ही शायद बचे। तो वही समाजवाद या कम्युनिज्म ले आएं फिर से?

आपको भी सत्ता सौंपी एक राज्य की लंबे समय के लिए तो क्या हश्र हुआ?

जिन दो देशों में समाजवाद या साम्यवाद बचा है– क्यूबा और उत्तरी कोरिया– वे तो कोई आदर्श व्यवस्थाएं नहीं हैं। दोनों में ही साम्यवाद के नाम पर परिवारों का शासन है कई पीढ़ियों से। और बार्डर खोलने का टैस्ट वहां हो जाय तो बहुत सी गलतफहमियां दूर हो सकती हैं।

ले-देकर बात घूम-फिर कर वहीं आ गई कि हमें नहीं पता किसको किससे बदलना है, और क्या लाना है। भारतीय राजनीति में वामपंथ के किसी धड़े की इतनी हैसियत तक नहीं है एकाध राज्य को छोड़कर कि म्युनिसपालिटी में भी सत्ता में आ जाएं।

तो क्या उन तमाम खाली कारतूसों को ही फिर चलाना है और सत्ता में लाना है?

ये अदला बदली तो देश की जनता हर पांच साल या ज्यादा से ज्याद दस साल में खुद ही कर लेती है। ये और बात है कि इस अदला-बदली से कुछ होना नहीं है, और वह हर बार ठगा महसूस करती है। देखा नहीं, तमाम मोदी भक्ति और फासीवाद के उसने पिछले दिनों कई हिंदीभाषी राज्यों में केंद्र के सत्ताधारियों को ठिकाने लगा दिया ।

जनता को मालूम है कि किसी को कैसे बदलना है। वो फासिज्म कम्युनिज्म ज्यादा नहीं समझती है, बस इतना समझती है कि किसे बदलना है और किसे लाना है। आप कहीं हैं तो आपको भी ले आए। अच्छे-अच्छे फासिस्टों या तानाशाहों के टाट उलटना वो जानती है। आपातकाल के बाद को याद कर लीजिए। वो आपकी तरह रात दिन फासिस्ट-फासिस्ट कहकर डरी जनता नहीं है।

कामरेड और अधिक गालियां बकते चले गए कि तुम जैसे गैर-क्रांतिकारी, क्रांति-विरोधी ढुलमुल लोगों की वजह से ही फासीवाद आया है और बना रहेगा। तुम लोग बेसीकली परिवर्तन और क्रांति-विरोधी लोग हो।

उनमें से हरेक की लाइन सुन लें तो माथा पीट लेंगे। कोई जंगलों में सशस्त्र क्रांति पर उम्मीदें बांधे है और माओ के मरने के इतने दिनों बाद भी ‘चीन के चेयरमैन माओ हमारे चेयरमैन’ वाली मानसिकता से बाहर नहीं निकला है। दस बीस पुलिसियों को हर साल मारकर क्रांति के और नजदीक पहुंच रहा है।

ऐसे भी अनेक हैं जो समझ रहे कि हालात ऐसे ही बिगड़ते रहे देश के तो एक न एक दिन क्रांति उसकी गोदी में खुद ही गिर पड़ेगी। ये वो हैं जिन्होंने दिल्ली में सत्ता से खैरात में मिली जगहों में अपने आलीशान दफ्तर ठोंक लिए हैं और वहां आर्मचेयर कामरेड हो गए हैं।


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कोई चीन से आस लगाए है मुक्ति की कि शायद वही भारत को लिबरेट करा दे और जबसे सीमा पर कुछ ऊंच नीच हुई है तो उनकी उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं कि शायद कामरेड माओ का देश ही मोदी को हराकर उन्हें सत्ता में बिठा देगा। जबसे नेपाल ने आंख दिखाना शुरू किया तो कई नेपाल के हक में पोथे लिख रहे कि शायद इसी से कुछ बात बने। कोई अलगाववादियों पर भरोसा किए है, कोई कांग्रेस के राज की रस मलाई की याद में उसे ही सत्तापोशी का ख्वाब देख रहे।

साफ-साफ नहीं बताएंगे कि करना क्या है, लाना किसे और कौन सी व्यवस्था को है!

लेकिन बुद्धिजीवी कामरेड हैं कि काउ बाय इस्टाइल में “तय करो किस ओर हो तुम” की गोली सब पर दागते घूम रहे हैं।

हमें तो लग रहा सत्ता विकल्प के मामले में आपसे कन्फ्यूज कोई नहीं देश में।

(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)