के. नाथ ।

मनुष्य और वाइरस के स्वाभाव में एक बहुत महत्वपूर्ण समानता है। सामान्यतः सृष्टि के सभी जीव अपने को पर्यावरण के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं , लेकिन मनुष्य और वाइरस दोनों ही पर्यावरण को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करते हैं। कोरोना वाइरस ने आज पूरे विश्व मे तहलका मचा दिया है। एक ऐसा जीव ,जो वास्तव मे पूरी तरह से जीव भी नहीं है (वाइरस किसी प्राणी के सेल से जुड़ने के बाद ही जागृत होता है), आज सारी मानव जाति  के लिए एक चुनौती बन गया है। संक्रमण है कि रुकने का नाम ही नहीं लेता। वाइरस न तो हैसियत देख रहा है, न रसूख। हाथ धो धो कर लोगों के पंजो का रंग बदल रहा है, पर वाइरस है कि उस पर कोई असर ही नहीं।


यदि मानवों को छोड़ दें तो प्रकृति लॉक डाउन के दौरान बिलकुल दूसरा ही नज़ारा दिखा रही थी। मेरे घर के सामने के बगीचे में सभी पेड़ पौधे फूलों से लद गए। सुबह चिड़ियों की इतनी चहचहाहट कि पहले तो ऐसा लगा कि कहीं से पानी गिर रहा हो। जब नल, पानी, टंकी  सब चेक किया तो पता लगा कि यह तो पेड़ों पर लॉकडाउन का जश्न मना रहीं चिड़ियों की चहचहाहट है जो है। पचास साल पहले के बचपन की याद दुबारा आ गयी, इतने सालों बाद इतने पक्षी बगीचे मे दिखाई दिये। लगता है प्रकृति को, मानव जाति ने बहुत समय बाद फिर से एक बार सांस लेने का मौका दे दिया।

मानव का धरती पर विकास लगभग 2 लाख वर्ष पहले माना जाता है। सन 1900 मे पूरे विश्व की जनसंख्या लगभग 100 करोड़ थी।आज विश्व मे मनुष्य की कुल आबादी लगभग 780 करोड़  है। 100 करोड़ पहुचने मे 2 लाख साल, उसके बाद 780 करोड़ के लिए केवल 120 साल।

वैज्ञानिकों के अनुसार आज यदि सभी बैक्टीरिया और वाइरस धरती से खत्म हो जाएँ तो एक वर्ष के अंदर समूचे  जीवन का अन्त हो जायेगा। यदि वनस्पति ख़तम हो जाये तब भी प्राणिमात्र का अन्त साल के अन्दर हो जाएगा। यदि सभी कीड़े मकोड़े खत्म हो जाए , जिन्हे आज हम डी.डी.टी आदि से मिटाने की कोशिश करते रहते हैं,   अधिक से अधिक 4 -5 वर्षो तक जीवन चल सकेगा परंतु यदि धरती पर से मनुष्य जाति खत्म हो जाए तो पूरी धरती पर जीवन का सैलाब सा आ जाएगा। मुंबई ,दिल्ली ,लंदन ,न्यूयोर्क जैसे शहर घने जंगलों मे बदल जाएंगे जिसमे करोड़ो अरबों की संख्या मे जीव जंतु घूम रहे होंगे। मनुष्यों की गैरहाज़री का कोई संज्ञान भी न लेगा। 

भारत मे भी 1951 मे देश की कुल आबादी लगभग 34 करोड़ थी , आज यह संख्या 130 करोड़ के ऊपर है और दिनों दिन बढ़  रही है। नतीजा सामने है। शेर, हाथी, गैंडे जैसे विशालकाय और बलवान जानवर आज विलुप्ति के कगार पर हैं। चील, बाज और गिद्ध जैसे शिकारी और गौरय्या जैसे सामान्य पक्षी पहले घर घर में दिखते थे, आज कहीं देखने को नही मिलते। अनगिनत प्रजातियां विलुप्त हो गयी हैं या होने की कगार पर हैं। कारण सीधा साधा है। हमने प्लेग, हैजा, चेचक जैसी महामारियों को नियंत्रित कर कर मृत्युदर तो कम कर दी, लेकिन जन्मदर लगभग वही है। मनुष्य की औसत आयु जो सन 1900 मे लगभग 38 वर्ष की थी, आज 70 वर्ष के करीब है। भारत मे भी औसत आयु 1947 मे लगभग 28 वर्ष की थी जो आज 64 वर्ष के ऊपर है। नतीजा जनसंख्या में अनवरत वृद्धि और मनुष्येतर प्राणियों की संख्या में लगातार गिरावट। आज हालत यहाँ तक पहुँच गयी है कि मनुष्य को बिचारे शेर, हाथी और गैंडे जैसे जानवरों के लिए अभ्यारण्य बनाने पड़ रहे है ताकि उनकी प्रजाति बची रह सके।

वैज्ञानिकों के अनुसार आज यदि सभी बैक्टीरिया और वाइरस धरती से खत्म हो जाएँ तो एक वर्ष के अंदर समूचे  जीवन का अन्त हो जायेगा। यदि वनस्पति ख़तम हो जाये तब भी प्राणिमात्र का अन्त साल के अन्दर हो जाएगा। यदि सभी कीड़े मकोड़े खत्म हो जाए , जिन्हे आज हम डी.डी.टी आदि से मिटाने की कोशिश करते रहते हैं,   अधिक से अधिक 4 -5 वर्षो तक जीवन चल सकेगा परंतु यदि धरती पर से मनुष्य जाति खत्म हो जाए तो पूरी धरती पर जीवन का सैलाब सा आ जाएगा। मुंबई ,दिल्ली ,लंदन ,न्यूयोर्क जैसे शहर घने जंगलों मे बदल जाएंगे जिसमे करोड़ो अरबों की संख्या मे जीव जंतु घूम रहे होंगे। मनुष्यों की गैरहाज़री का कोई संज्ञान भी न लेगा।

जान है तो जहान है- लेकिन जान तो जानी ही है- कुछ साल पहले या कुछ साल बाद।  महाभारत मे युधिष्ठिर यक्ष संवाद का वर्णन वन पर्व में आता है जिसमें यक्ष के बहुत से प्रश्नों का उत्तर युधिष्ठिर देते हैं। यक्ष के प्रश्नों मे एक था, “किमाश्चर्यम परम ?” यानी सृष्टि में सबसे बड़ी पहेली क्या है?

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया –

“अहन्यहानि भूतानि गच्छंतीहि  यमालयम। शेषास्थवरम इक्षन्ति किमाश्चर्यम इदं परम।” अर्थात “अनगिनत जीव हर क्षण मृत्यु लोक को जा रहे हैं, लेकिन बचे हुए यही सोचते हैं कि हम हमेशा रहेंगे। इससे बड़ी क्या पहेली हो सकती है।” आज से लगभग 5000 साल या उससे भी अधिक पहले हमारे पूर्वजों को मृत्यु की अनिवार्यता का एहसास था लेकिन आज भी हमारी बुद्धि उसे स्वीकार नहीं कर पाती। यही बात लगभग 700 वर्ष पहले ईरान के एक दार्शनिक, ज्योतिषी और कवि उमरखय्याम ने एक रुबाई में कही थी जिसका काव्यानुवाद कवि हरिवंश राय बच्चन जी ने किया था-

“प्रिये आ बैठो मेरे पास सुनो मत क्या कहते विद्वान/ यहाँ निश्चित केवल यह बात कि होता जीवन का अवसान।

यहाँ निश्चित केवल यह बात और सब झूठ और निर्मूल/ सुमन जो आज गया है सूख सकेगा फिर ना कभी वह फूल।”

वास्तव में मनुष्य और वाइरस के स्वाभाव में एक बहुत महत्वपूर्ण समानता है। सामान्यतः सृष्टि के सभी जीव अपने को पर्यावरण के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं , मनुष्य और वाइरस दोनों ही इसके अपवाद हैं।

मनुष्य  और वाइरस दोनों ही स्वयं को पर्यावरण के अनुसार (वाइरस के लिए होस्ट सेल)  अपने को न ढाल कर पर्यावरण को अपने हिसाब से बदलने का प्रयत्न करते हैं । मनुष्य अपने पर्यावरण को और वाइरस होस्ट के शरीर को इतना बदल देता है कि वह स्थान या शरीर जीवन लायक ही नहीं रहता और तब वह उस स्थान या होस्ट को छोड़ कर दूसरे स्थान या शरीर के खोज में निकल पड़ता है। जैसे वाइरस आज लाखों शरीरों को अपने अनुकूल बनाने के लिए उनका नाश करने मैं संलग्न है, मनुष्य भी अपने लिए वातावरण को बदलते बदलते प्रकृति और जीवन के नाश मैं संलग्न है।

आइए, हम कोरोना वाइरस से सीख लें।  अपने शरीर को उसका होस्ट बनने से बचायें। साथ ही प्रकृति के साथ खुद को बदलना सीखें न कि उसको बदलने का प्रयास करें और सभी जीवन एवं पर्यावरण को नष्ट होने से बचाएँ।