प्रदीप सिंह।
लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की परफॉर्मेंस की समीक्षा, मीमांसा, विवेचना, विश्लेषण अभी हो रहा है। लेकिन एक बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है कि भारतीय जनता पार्टी का जो सॉफ्टवेयर है उसमें कोई वायरस आ गया है। अगर आप रिजल्ट को और उसके बाद की घटनाओं को एनालाइज करने की कोशिश करें तो आपको समझ में आएगा कि भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के लोकसभा चुनाव के जनादेश से कोई सबक सीखा हो ऐसा कम से कम अभी नहीं लगता। आगे चलकर कुछ बदलाव आ जाएगा तो फिर उसकी बात करेंगे लेकिन यहाँ अभी की बात कर रहे हैं।
2024 के चुनाव तक भारतीय जनता पार्टी की सोच थी, उनका एजेंडा था, नैरेटिव था- उसमें पसमांदा मुस्लिम एक बड़ा फैक्टर था। एक उदाहरण देता हूं उत्तर प्रदेश का। ओम प्रकाश राजभर उत्तर प्रदेश सरकार में माइनॉरिटी मिनिस्टर हैं। भारतीय जनता पार्टी ने पसमांदा समाज से रिश्ता जोड़ने, उनको खुश करने के लिए बहुत से कदम उठाए। खासतौर से अगर उत्तर प्रदेश की बात कर रहे हैं तो मुस्लिम समाज का 80% पसमांदा समाज से आता है। इसी पर बीजेपी का फोकस था। बीजेपी को उम्मीद थी कि पसमांदा और तीन तलाक के आधार पर मुस्लिम महिलाएं उसको वोट करेंगी। उत्तर प्रदेश में लाभार्थी योजना के 20 लाख मकान मुस्लिम समाज को दिए गए। एक परिवार से अगर सिर्फ दो वोट मान लीजिए- हालांकि इससे ज्यादा होंगे- तब भी 40 लाख वोट मिलते और बीजेपी को इसका 10% भी नहीं मिला। और बीजेपी ने क्या किया? दानिश अंसारी को, जो पसमांदा समाज से आते हैं, एमएलसी बनाया और फिर मंत्री बनाया। इसके अलावा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के पूर्व वाइस चांसलर तारिक मंसूर को एमएलसी बनाया। यह सब कदम उठाए गए। उसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 साल के शासन में जो लाभार्थी वर्ग तैयार हुआ उसमें आबादी के अनुपात के लिहाज से कहें तो सबसे बड़ी हिस्सेदारी मुसलमानों को मिली। जाहिर है कि मुसलमानों में सबसे ज्यादा आबादी पसमांदा समाज की है तो उनको सबसे ज्यादा हिस्सेदारी मिली- लेकिन उस तुलना में समर्थन नहीं मिला। घोसी में ओमपकाश राजभर का बेटा चुनाव हार गया और समाजवादी पार्टी का नेता जीत गया।
यह भारतीय जनता पार्टी के लिए एक सबक है। इससे भारतीय जनता पार्टी सीखेगी या नहीं सीखेगी- पता नहीं। 2024 के चुनाव में ‘सबका साथ सबका विश्वास’ का नारा ध्वस्त होता हुआ दिखाई दे रहा है। सबका विश्वास जीतने में भारतीय जनता पार्टी कामयाब नहीं रही। जब मैं ‘सबका विश्वास’ कह रहा हूं तो मैं मुस्लिम समाज के विश्वास की बात कर रहा हूं। उसी को ध्यान में रखकर यह नारा दिया गया था।
आपको याद होगा 2019 के चुनाव नतीजे आने के बाद वाराणसी में अपनी पहली सार्वजनिक सभा में प्रधानमंत्री ने ‘सबका विश्वास’ का नारा दिया था। तब से लेकर 5 साल भारतीय जनता पार्टी ने पसमांदा समाज को अपने साथ जोड़ने की कोई कोर कसर उठा नहीं रखी। ये बार-बार इस समाज के लोगों को बताते रहे कि किस तरह से आजादी के बाद से कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उनका वोट तो लेती रही हैं लेकिन उनके हित की उपेक्षा, अनदेखी करती रही हैं। लेकिन उस सबका कोई असर नहीं हुआ।
यह बात तो समझ में आती है कि 1952 से आज तक मुस्लिम समाज ने बीजेपी को वोट नहीं दिया और यह लाभार्थी वर्ग, पसमांदा पर जोर, उनके बीच से किसी को एमएलसी, मंत्री बनाना… इस सबका कोई असर होने वाला नहीं था। ज्यादातर लोगों का ऐसा मानना था। लेकिन बीजेपी के नीति नियंता लोगों को लग रहा था कि नहीं, बदलाव होगा। वह हुआ नहीं। इसको एक मिनट के लिए अलग छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी के वर्कर की और संगठन की बात करते हैं। संगठन का इतना बड़ा फेलियर मुझे लगता है तब भी नहीं हुआ था जब 1984 में दो सीटें आई थी।
भारतीय जनता पार्टी का संगठन और जिस बात का सबसे ज्यादा ढिंढोरा पीटा गया पन्ना प्रमुख पूरी तरह से फेल रहा। लखनऊ की एक कांस्टेंसी के बीजेपी उम्मीदवार ने पन्ना प्रमुखों की बैठक बुलाने की कोशिश की तो पता चला कि जो कागज पर पन्ना प्रमुख बताए जा रहे हैं, उनके जो फोन नंबर दिए गए हैं- सब गलत हैं। पन्ना प्रमुख सिर्फ कागज पर थे। वास्तव में कोई पन्ना प्रमुख नहीं था। उनको कोई ऐसा भाजपा का कार्यकर्ता नहीं मिला जो कह सके कि वह पन्ना प्रमुख के रूप में काम करता है और उम्मीद की जा रही थी कि पन्ना प्रमुख पांच साल (जो फुल स्केप सीट होती है उस पर लगभग 3035 नाम आते हैं) उन लोगों से संपर्क में रहेगा। लेकिन कहीं कोई संपर्क में नहीं था। पन्ना प्रमुख नाम का प्रयोगपूरी तरह से कागजी साबित हुआ।
भाजपा के कार्यकर्ताओं में नाराजगी क्यों थी? भाजपा के कार्यकर्ताओं में नाराजगी बाहर से आने वालों के कारण और 10 साल में उनके जीवन में कोई सुधार ना आने के कारण थी। उनको लगा कि सरकार हमारी जरूर आ रही है लेकिन हमको क्या मिल रहा है। यह सवाल हर वोटर के मन में होता है और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के मन में ना आए इसकी उम्मीद करना गलत है। वह पिछले 9 साल तक इस उम्मीद में रहा कि उसको कुछ मिलेगा, उसके जीवन में भी परिवर्तन आएगा, लेकिन उसने देखा कि बाहर से जो लोग कल तक भाजपा और संघ को गाली देते थे उनके लिए प्रवेश द्वार भाजपा ने पूरी तरह से खोल दिया है। थोक में भर्ती होने लगी। ऐसे लोग जो दागी थे, पार्टी की विचारधारा के खिलाफ थे एवं जो पार्टी और विचारधारा को लेकर दिन रात गालियां देते थे उन सब लोगों के लिए कहा गया कि इनको चुनाव में टिकट दे रहे हैं, इनका प्रचार करो।
अब आप अंदाजा लगाइए अगर आप भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं तो आप पर उस समय क्या बीत रही होगी। मामला यहीं तक सीमित नहीं रहा। चुनाव नतीजे आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्संग चालक मोहन भागवत का एक बयान आया। उस बयान को लेकर तमाम तरह के विश्लेषण हो रहे हैं। कहा जा रहा है कि वह भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए है। वह सामान्य रूप से राजनेताओं के लिए है- खास तौर से जो सत्ता में आते हैं, समाज के बीच में काम करते हैं कि- अहंकार नहीं आना चाहिए। इसकी अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से व्याख्या कर रहे हैं। भाजपा विरोधी इसको सीधी संघ और भाजपा की लड़ाई के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लगातार इस तरह की खबरें व विश्लेषण आ रहे हैं कि संघ और भाजपा के बीच अंदरूनी संघर्ष शुरू हो गया है। कुछ लोग तो यहां तक चले गए हैं कि संघ नेतृत्व परिवर्तन करने पर भी विचार कर सकता है। हालांकि मेरा मानना है कि यह सब हवाई बातें हैं, ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। संघ की ओर से इस तरह के बयान हमेशा आते रहे हैं और संघ और भाजपा में सभी मुद्दों पर मतैक्य कभी नहीं रहा है। मतभेद के मुद्दे हमेशा रहे। अभी कुछ दिन पहले ही मैंने बताया था कि जब अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे तब कैसे संघ के तीन बड़े नेताओं ने उनको देशद्रोही तक कहा था। यह कोई नई बात नहीं होगी कि संघ भाजपा के नेताओं को चेतावनी दे रहा है, उनको सजग करने की कोशिश कर रहा है।
दूसरी बात वो यह भी कहने की कोशिश कर रहे हैं कि संघ को टेकन फॉर ग्रांटेड मत लीजिए। अगर भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव के बीच में इस तरह का बयान देता है जिससे यह संदेश जाए… हालांकि जेपी नड्डा ने उसका खंडन करने, स्पष्टीकरण देने की कोशिश की। लेकिन संदेश यह गया कि उन्होंने कहा कि अब भारतीय जनता पार्टी को संघ की जरूरत नहीं है, भारतीय जनता पार्टी बहुत शक्तिशाली हो गई है। यानी पार्टी के अध्यक्ष को अपनी पार्टी की जमीनी हकीकत भी पता नहीं थी। नतीजा आया तो उससे उनको पता चला इस सब माहौल के बीच में होना क्या चाहिए था। भारतीय जनता पार्टी ओर संघ दोनों की ओर से यह कोशिश होनी चाहिए थी कि इस तरह की अफवाहों पर रोक लगाने की कोशिश हो। इस तरह की अफवाहों को रोकने की कोशिश हो। इस तरह की जो गलतफहमियां पैदा की जा रही हैं उनका स्पष्टीकरण सामने आए। मैं मीडिया में स्पष्टीकरण देने की बात कर रहा हूं। आपस में उन संगठनों की नेताओं की बात होगी तो सबको पता है बहुत सारे मुद्दे सुलझ जाएंगे, जो गलतफहमियां है दूर हो जाएंगी। लेकिन यह मान लेना गलत होगा कि संघ और भाजपा में पूरी तरह से हर मुद्दे पर मतैक्य हो जाएगा। मतभेद के मुद्दे रहेंगे। लेकिन उन मतभेद में से सहमति के मुद्दे खोज लिए जाते हैं और उनको लेकर आगे बढ़ा जाता है। जितना मैं जानता हूं संघ और भाजपा के संबंधों के बारे में दशकों से यही कार्यशैली रही है और इसी तरह से आगे भी होने वाला है।
एक चीज हमेशा भाजपा के नेताओं को याद रखना चाहिए कि उनका कार्यकर्ता तभी तक उनके साथ रहता है जब तक वह विचारधारा के साथ रहते हैं। भाजपा विचारधारा पर आधारित पार्टी है- यह पार्टी के नेताओं को नहीं भूलना चाहिए। क्या भाजपा अपनी बीमारी को समझने की कोशिश करेगी और कोशिश करेगी तभी इलाज की भी कोशिश होगी- यह आने वाला समय बताएगा।
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)