बी.पी. श्रीवास्तव।
जब जब भारत के विभाजन और स्वतंत्रता की बात चलेगी भारतीय नेताओं के अलावा अंग्रेजों की तरफ से लार्ड लुइस मॉउंटबैटन ही एक नाम है जो ज़बान पर आएगा। इसलिए नहीं कि यह काम उनके वायसराय रहने के दौरान हुआ, बल्कि इससे भी अधिक इसलिए कि उनको उन दोनों देशों से तुरंत वाह वाह मिली जिन दोनों ने उनके हाथों कुछ ना कुछ खोया था। वे दो देश थे- भारत और इंग्लैंड। जिस भारत का खून खराबे के बीच विभाजन हुआ, वहां उनका ‘मॉउंटबैटन की जय जय’ के नारों से अभिनन्दन किया गया। और इंग्लैंड, जहाँ के महाराजा किंग जॉर्ज VI के नाम के आगे से ‘एम्परर ऑफ़ इंडिया’ जैसे खिताब हट गए, वहां उनको ‘अर्ल मॉउंटबैटन ऑफ़ बरमा’ के शीर्षक से नवाजा गया।
करिश्माई व्यक्तित्व
मॉउंटबैटन को बातचीत के नियमों को अपने हिसाब से बदलने और जिन्ना के अलावा शेष बडे भारतीय नेताओं की प्रतिबद्धता में बदलाव लाने के लिए याद किया जाएगा। ऐसा करने में उन्होंने अपने करिश्माई व्यक्तित्व और नेतृत्व के गुणों का भरपूर उपयोग किया। साथ ही उन्होंने राजसी ठाठ बाट और शानो-शौकत का ऐसा प्रदर्शन किया जिससे भारतीय लोगों पर उनका बड़ा आदरणीय रोब पड़ा। उसके फलस्वरुप उन्हें भारतीय नेताओं से बातचीत करने में काफी आसानी हुई। दूसरी ओर उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि मीडिया उनके पक्ष में रहे। यह उनका मास्टरस्ट्रोक था। भले यह अजब क्यों ना लगे, पर सत्य है कि भारत में जहां उनके जल्दी वाले निर्णय के कारण लाखों लोगों की तबाही हुई और जान गयी, वहां उनके खिलाफ बहुत कम आवाज़ उठी जबकि इंग्लैंड में इसको लेकर उनकी काफी आलोचना सुनने में आई।
मॉउंटबैटन की नियुक्ति की घोषणा
मॉउंटबैटन के पूर्वाधिकारी फील्ड मार्शल आर्चिबाल्ड वैवेल एक नेकनीयत सरल फौजी आदमी थे। वह राजनीति के दांव पेंचों से काफी दूर थे। यही कारण था कि वह भारत के राजनेताओं से पार नहीं पा रहे थे। ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर लार्ड क्लेमेंट एटली के शब्दों में- “वैवेल ने नेहरू से, कांग्रेस पार्टी से, जिन्ना से, सिखों से और सभी लोगों से संबंध खो दिया है। इस तरह से तो नहीं चल सकता है। यह तो दुर्घटना की और ले जाने वाली बात है।“[1] ऐसे समय पर एटली ने 18 दिसंबर 1946 के दिन मॉउंटबैटन को 10 डाउनिंग.स्ट्रीट पर बुलाया और भारत के वायसराय बनने का न्योता दिया। एटली की दृष्टि में मॉउंटबैटन इस काम के लिए अधिक उपयुक्त थे। जैसा कि उन्होंने कहा- “मॉउंटबैटन के पास हर तरह के मनुष्यों से निपटने की असाधारण शक्ति है… भगवान ने उनको एक असाधारण पत्नी भी प्रदान की है।” एटली ने अपना प्रस्ताव पहली जनवरी 1947 को दोहराया जिसे मॉउंटबैटन ने 11 फरवरी 1947 को स्वीकार कर लिया। इससे पहले उन्होंने अपनी कुछ शर्तें मनवा लीं। उसके उपरान्त 20 फरवरी 1947 को मॉउंटबैटन की नियुक्ति की घोषणा कर दी गयी। साथ ही यह एलान भी कर दिया गया कि ब्रिटिश गवर्नमेंट जून 1948 तक, या उसके एक महीने आगे पीछे, भारत का शासन भारतीय लोगों को सौंप देगी।
लम्बे अरसे से लटकी समस्या का थोड़े समय में ही हल निकाल लेना
मॉउंटबैटन 22 मार्च 1947 को भारत पंहुचे और 24 मार्च को वायसराय पद की शपथ ली। उनको इसका श्रेय जाता हे कि उन्होंने भारत आने के 55 दिनों में ही मसले पर पकड़ हासिल कर ली और सुझाव पत्र तैयार कर लिया, जिसे नेहरू ने ‘प्लान बाल्कन’ कहा था। वह अपना सुझाव पत्र लेकर 18 मई को इंग्लैंड वापस चले गए। वहां उन्होंने ग़ज़ब की रफ़्तार से ब्रिटिश पार्लियामेंट से उसका अनुमोदन प्राप्त कर लिया और विंस्टन चर्चिल का अनइच्छुक सहमति भी। वह 31 मई को भारत लौटे और केवल दो दिन के अंदर भारत के बंटवारे और स्वतंत्रता के प्लान को महात्मा गाँधी से लेकर सभी सम्बंधित भातीय नेताओं से मनवा लिया। भारत के विभाजन और दो डोमीनियन राज्यों के बनने की औपचारिक घोषणा 3 जून 1947 को कर दी गयी। इस तरह से मॉउंटबैटन ने अपने आने के दो महीने दस दिन में ही 30 साल से लटके मसले का हल निकाल दिया। यह अपने आप में एक पहेली है और जादू भी। ऐसा करने में उनकी पत्नी एडविना मॉउंटबैटन ने उनका भरपूर हाथ बंटाया। ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं है जब एटली ने दोनों को ही यह कहते हुए प्रशंसा पत्र भेजा कि, “तुम दोनों को एक अलक्षित कठिनाई वाले कार्य में सफल होने के लिए मेरी ओर से बहुत बहुत धन्यवाद।“[2]
मॉउन्टबेटन ने बहुत जल्दी आंक ली स्थिति की गंभीरता
मॉउन्टबेटन को न केवल लोगों बल्कि स्थितियों को परखने में महारत हासिल थी। आते ही भारत का माहौल आंक लिया और समझ गए कि स्थिति गंभीर है। 2 अप्रैल 1947 को इंग्लैंड भेजी गई उनकी पहली रिपोर्ट से यह पता चलता है। उन्होंने लिखा, “यहां अविश्वसनीय उदासी की स्थिति है। अभी शुरू शुरू में मुझे नहीं लगता कि आपसी समझौते से भारत के भविष्य का कोई रास्ता निकल सकता है। कैबिनेट सांप्रदायिक रूप से बुरी तरह बंटी हुई है। हर पार्टी के पास मसले का अपना समाधान है और कोई भी दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं है… इसके अलावा पूरा देश अशांत अवस्था में है।“[3] लेकिन मॉउन्टबेटन एक आकर्षण था और सद्भावना का मूल्य जानते थे, जैसा कि भारत में उनके शुरूआती सम्बोधन से स्पष्ट है, “मैं जिस काम को कर रहा हूं वह वायसराय का रूटीन कामकाज नहीं है। ब्रिटेन की सरकार ने जून 1948 तक सत्ता सौंप देने का संकल्प लिया है… मुझे कार्य की कठिनाई का कोई भ्रम नहीं है। मुझे इसमें अधिक से अधिक सम्भावना और सद्भावना की आवश्यकता होगी, और आज मैं भारत से वही सद्भावना मांग रहा हूँ।“[4]
मॉउंटबैटन का भाग्य
भारत का वायसराय बनना शायद मॉउंटबैटन के भाग्य में लिखा था। नहीं तो यह कैसे हो सकता है कि उनकी सब अच्छी अच्छी बातें भारत से ही शरू हुईं। जैसे 1921 में उनका प्रिंस ऑफ़ वेल्स के साथ भारत आना, उसी दौरे के बीच भारत में ही एडविना से शादी तय होना। जब वह बर्मा में अलाइड फोर्सेज के सुप्रीम कमांडर थे तभी भारत में ही उनका ऑफिस स्थापित हो गया ताकि वह भारत के बारे में जानकारी रख सकें। इन सब संयोगों के अतिरिक्त उनके भारत का वायसराय बनने का एक ज्योतिषीय पक्ष भी है, जो अधिकतर लोगों को मालूम नहीं है। हुआ यह कि 1931 में जब मॉउंटबैटन और लेडी मॉउंटबैटन दोनों फ्रांस गए थे तब एक प्रसिद्धि स्त्री क्रिस्टल गैज़ेर की नज़र लेडी मॉउंटबैटन पर पड़ी। उनको देखते ही क्रिस्टल गैज़ेर ने उनके सिंहासन पर बैठे होने की भविष्यवाणी की, “यह बहुत उत्सुक्ताभरा और मज़ेदार मामला है। में तुम्हें एक सिंहासन पर बैठा देख रही हूँ। एक तरह का सिंहासन, लेकिन वह राजसी सिंहासन की तरह नहीं है। तुम उस सिंहासन पर बैठी अपने पति के साथ राज कर रही हो।”[5] मॉउंटबैटन के अनुसार, “मैंने वायसराय की शानोशौकत को देखते हुए खुद वायसराय बनने के सपने देखे थे।” इसलिए इसमें कोई आश्चर्येजनक बात नहीं है कि उन दोनों ने भारत की तैनाती को उस सहजता से लिया जैसे मछली पानी को लेती है। मॉउंटबैटन ने इसकी एक टेलीविज़न इंटरव्यू में तस्दीक भी की, “इंडिया में मुझे तीन प्यार मिले- पहला खुद इंडिया… दूसरा पोलो…. और अंतिम मेरा असली प्यार।” मॉउंटबैटन की मां उनकी नियुक्ति का समाचार सुनकर भयभीत हो गयी थीं। उनके मन में तुरंत आया कि उनका बेटा राजनीति में अपने हाथ गंदे करने जा रहा है। उनके शब्दों में, “राजनेता असंशोधनीय होते हैं। वह आग से खेलेगा।”[6]
शानो-शौकत और रुतबे का प्रदर्शन
ऐसा लगता है जैसे मॉउंटबैटन को मालूम था कि भारत के लोग शाही हुकूमत और उसके तौर तरीक़ों से बहुत प्रभावित होते हैं। इसीलिए उन्होंने पहले ही सोच लिया था कि वह बड़ी-बड़ी पार्टियां करेंगे और दरबार सजायेंगे। इसके लिए उन्होंने अतिरिक्त स्टाफ भी मांग लिया था। उन्होंने अपने लिए विशेष शक्तियां और अधिकार भी ब्रिटिश सरकार से मंजूर करवा लिए थे जिसके तहत उनका फैसला अंतिम था। उसमें ना तो सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट दखल दे सकेंगे, ना ही कैबिनेट। मॉउंटबैटन को तुरंत फैसले लेते देख नेहरू ने इस बात को भांप लिया था। उन्होंने मॉउंटबैटन से पूछा भी, “क्या आपको कोई ख़ास अधिकार प्राप्त हैं।”[7] मॉउंटबैटन ने अपनी टीम के लिए बड़े-बड़े नामवर लोगों का चयन किया। जैसे उन्होंने लार्ड इसमे को अपना चीफ ऑफ़ स्टाफ चुना, जो पहले विंस्टन चर्चिल के चीफ ऑफ़ स्टाफ थे। अपने प्रेस अटैची के रूप मैं उन्होंने कैम्पबेल जॉनसन का चयन किया जो उनका मास्टरस्ट्रोक था, जिससे उन्हें प्रेस को नरम रखने में काफी मदद मिली। इस उपलब्धि के बारे में उन्होंने मुहावरे का प्रयोग करते हुए कहा है कि, “वह लोग (प्रेस वाले ) हमारे हाथों खाते थे।”[8]
निजी संबंधों और सद्भावना के महत्व की समझ
मॉउंटबैटन होशियार आदमी थे। वह निजी संबंधों का मूल्य जानते थे। उन्होंने भारत में उस गुण का खूब प्रयोग किया और खूब फायदा उठाया। इसके बारे में उन्होंने लिखा, “हर बात पूरी तरह निजी रिश्तों पर निर्भर थी… यह मुझे आरम्भ से ही मालुम था। नेहरू को मैं जानता था और हमारे बीच भरपूर सद्भावना थी। हम लोग एक दूसरे को पसंद करते थे… और ऊपर से उनकी एडविना से खूब पटती थी। यह सब मेरे काम में बहुत सहायक रहा।“[9] महात्मा गांधी का दिल भी उन्होंने पहली मुलाकात में ही जीत लिया था। उन्होंने गाँधी जी को यक़ीन दिलाया था कि वह भारत के दोस्त हैं। मिसाल के तौर पर उन्होंने गांधीजी के साथ आई मनु से विसराईगल गार्डन में घुमाते समय कहा, “यह सब तुम्हारा है। हम तो बस ट्रस्टी हैं। हम यहां यह सब तुम को सौपने आये हैं।” महात्मा गाँधी एडविना के भी बड़े प्रशंशक हो गए थे, जैसा लेखक रिचर्ड हाउ ने अपनी पुस्तक, ‘मॉउंटबैटन -हीरो ऑफ़ अवर टाइम्स’ में लिखा है, “वह उन्हें प्रिय मित्र कहने लगे थे।” रिचर्ड हाउ आगे लिखते हैं, “सद्भावना की खोज में मॉउंटबैटन के पहले निशाने पर थे महात्मा गांधी। महात्मा गाँधी उनकी तरफ तो, जैसा मॉउंटबैटन ने कहा, “आधा रास्ता पार।”
भारतीय नेताओं से डील करने की रणनीति
मॉउंटबैटन को भारतीय नेताओं के सापेक्ष महत्त्व की अच्छी परख थी। उनको यह समझने में देर नहीं लगी कि अब कांग्रेस में महात्मा गाँधी का प्रभाव घट रहा है। लेकिन वह यह भी जानते थे कि भारत की आम जनता पर आज भी उनकी बड़ी पकड़ है, जैसा रिचर्ड होउ ने अपनी किताब, ‘मॉउंटबैटन -हीरो ऑफ़ अवर टाइम्स’ में लिखा है, “मॉउंटबैटन को इस बात का ज्ञान था कि राजनीतिक तौर पर अब महात्मा गांधी का कोई खास महत्त्व नहीं था, फिर भी उनके लिए ज़रूरी था कि वह भारत के प्यारे मसीहा के साथ दोस्ती और नज़दीकी समझ बनाए रखें। और वह ऐसा करने में सफल भी हुए।” इसके साथ ही वह कांग्रेस के मामलों में नेहरू के महत्त्व के प्रति अंधे नहीं थे और समझते थे कि नेहरू ही महात्मा गाँधी की आदर्शवादी इच्छाओं पर लगाम लगा सकते हैं। सवाल उठता है कि क्या मॉउंटबैटन ने महात्मा गाँधी को कांग्रेस के मुख्य नेताओं से दूर करने की कोई रणनीति रची थी? इसका कुछ आभास लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लैपरी की पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में मिलता है। उन्होंने लिखा कि, “तब मॉउंटबैटन की एकमात्र आशा कांग्रेस के नेताओं को उनके वृद्ध नेता से तलाक़ दिलवाने की थी। अगर ऐसा हुआ तो नेहरू इसकी कुंजी होंगे।”
भारतीय नेताओं तक पहुंच की कड़ियां पहचानने की क्षमता
मॉउंटबैटन में उन सब नेताओं की पहचान करने की गहरी क्षमता थी जो उनके लिए मायने रखते थे और जो मायने तो नहीं रखते थे पर उनको खुश रखना आवश्यक था। उनमें उन लोगों की पहचान करने की भी क्षमता थी जो उन नेताओं तक पहुंचने में उनकी मदद कर सकते हैं जिनके हाथ में भारतीय समस्या की कुंजी है। उन्होंने क़बूला, “मैंने पाया कि वी.पी. मेनन का पटेल के साथ निजी सम्बन्ध है और तब उन्होंने उनका इस्तेमाल करना आरम्भ किया, पहले चुपके चुपके।” उन्होंने यह भी माना कि, “उनके नेहरू तक पहुंचने की अनौपचारिक कड़ी कृष्ण मेनन थे जिनसे उन्होंने इंग्लैंड में दोस्ती बना ली थी।” दुर्भाग्यवश वह जिन्ना के साथ सफल नहीं हो पाये। जिन्ना को उन्होंने “कठोर, ठंडा और अनम्य पाया, जिनका केवल एक ही सपना था- एक अलग मुस्लिम स्टेट बनाना।” इन सभी रणनीतियों, कूटनीति और आकर्षण के साथ मॉउंटबैटन कांग्रेस के दोनों बड़े नेताओं नेहरू और पटेल को भारत के विभाजन को स्वीकार करने की अनिवार्यता को समझाने में सक्षम रहे। दूसरी ओर उन्होंने महात्मा गाँधी को देश के विभाजन के खिलाफ आवाज़ उठाने से रोक कर रखा। माउंटबैटन न केवल भारतीय नेताओं बल्कि भारतीय लोगों के साथ भी अच्छे सम्बन्ध विकसित करने में सक्षम रहे। इसे देखकर एक बार नेहरू ने उनसे पूछा, “आप जानते हैं कि अब आप बातचीत करने के लिए मुश्किल व्यक्ति हैं। मुझे पता चला है कि आपको गांधीजी और मुझसे भी ज्यादा भीड़ मिलती है।“[10]
भारतीय नेताओं से अलग अलग मिलना
मॉउंटबैटन ने यह भी तय कर लिया था कि वह भारतीय नेताओं से अलग अलग मिलेंगे। उनकी नज़र में, “कमरे में दूसरे व्यक्ति का होना एक घातक ग़लती होती है।” एक और तकनीक, जो उन्होंने बड़ी सफलता से अपनाई थी, वह थी किसी भी भारतीय नेता के साथ पहली मुलाक़ात में भारत के विषय पर चर्चा नहीं करना। महात्मा गाँधी के साथ उन्होंने ऐसा ही किया। महात्मा गाँधी के साथ ढाई घंटे चली पहली मुलाक़ात में, गांधीजी को अपने उसूलों और अपनी पुरानी ज़िंदगी के बारे में बोलने दिया। ऐसा करने से उन्होंने खुद को महान व्यक्ति के लिए प्रिय बना लिया।
भारत में क्यों नहीं हुई मानव त्रासदी की खास आलोचना
इसमें शक नहीं है कि मॉउंटबैटन ने अपने वक्तव्यों, तौर तरीकों, सद्भावना और निजी मेलजोल से भारत की बहुत दिनों से चली आ रही समस्या का दो महीने में ही हल निकाल दिया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने भारत पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है जो अधिकतर दोस्ती की तरफ इशारा करती हे। वरना यह कैसे मुमकिन है कि उनकी जल्दबाज़ी से जो मानव त्रासदी हुई, उसकी भारत में कोई खास आलोचना नहीं हुई जबकि विदेश में कहीं अधिक हुई। विदेश में हुई आलोचनाओं की झलक हमें रिचर्ड हाउ की लिखी ‘मॉउंटबैटन ऑफ़ अवर टाइम्स’ से मिलती है। हाउ ने लिखा, “अपना काम पूरा करने के पश्चात मॉउंटबैटन को चाहिए था कि वह अपने मिशन के अप्रिय परिणाम को- जो उनकी जल्दबाज़ी के कारण हुआ था- थोड़ी शीलता से देखते।” पर क्या इस अप्रिय परिणाम की सारी ज़िम्मेदारी मॉउंटबैटन पर ही डाली जा सकती है, भारतीय नेताओं पर नहीं?
मॉउंटबैटन को पछतावा था
ऊपरी दिखावे से अलग मॉउंटबैटन को भी अपने जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों के कारण हुई दुखद घटनाओं के लिए बहुत पछतावा था। इसका पता हमें प्रसिद्ध इतिहासकार स्टेनली वोलपर्ट की पुस्तक ‘शेमफुल फ्लाइट’ से मिलता है। उन्होंने लिखा, “1965 के इंडो -पाकिस्तान युद्ध के बाद, जब मॉउंटबैटन एक डिनर पार्टी में बीबीसी के जॉन ओस्मान के साथ बैठे थे, तब उन्होंने उनसे अपने पछतावे को स्वीकार किया था।” स्टेनली वोलपर्ट ओस्मान को उद्धृत करते हुए लिखते हैं, “आज के दिन तक मुझे वह मीटिंग याद हे जब उन्हें (मॉउंटबैटन को) सांत्वना देना मुश्किल हो रहा था।”
(लेखक आल इंडिया रेडियो के पूर्व निदेशक और ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया के वरिष्ठ सलाहकार हैं)
संदर्भ:
1, Mountbatten and the Partition of India (Interviews & reports) by Larry Collins & Domnique Laperre
2. ‘Indian Summer” by Alex Von Tuzelmaan
3. Transfer of Power, Vol. X, Page 90
4. ‘Mountbatten-Hero of our Times’ by Richard Hough, Page 215
5. Mountbatten and the Partition of India (Interviews & reports) by Larry Collins & Domnique Laperre
6. Mountbatten-Hero of our Times’ by Richard Hough, Page 210
7. ibid, Page 209
8. Mountbatten and the Partition of India (Interviews & reports) by Larry Collins & Domnique Laperre, Page 6
9. Mountbatten-Hero of our Times’ by Richard Hough, Page 215
10. Mountbatten and the Partition of India (Interviews & reports) by Larry Collins & Domnique Laperre