#pradepsinghप्रदीप सिंह।

वर्ष 2024 की शुरुआत हो चुकी है। इस वर्ष का महत्व भारतीय संस्कृति में सर्वदा बना रहेगा और याद किया जाता रहेगा। अयोध्या में राम जन्म स्थान पर भगवान श्री राम के किशोरवय की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होगी। भगवान राम फिर से अयोध्या पधार रहे हैं। एक बार रावण विजय के बाद आए थे, अब दूसरी बार आ रहे हैं, 500 साल से ज्यादा के निर्वासन के बाद। राजा दशरथ ने तो उनको सिर्फ 14 वर्ष का वनवास दिया था, हमने आपने उनको 500 साल से ज्यादा का वनवास दिया। यह वनवास उस वनवास से भी बुरा था, जब हमारी संस्कृति-सभ्यता एक बहुत बड़े बुरे दौर से गुजरी। जब हमें बताया गया कि भारतीय संस्कृति-सभ्यता गर्व करने लायक नहीं शर्म करने लायक है।

गुलामी ने हमें गुलामी की मानसिकता से निकलने नहीं दिया। गुलामी से मुक्ति मिली 15 अगस्त, 1947 को लेकिन जो सत्ताधारी थे उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया कि गुलामी की मानसिकता बनी रहे। जिन्होंने हमें गुलाम बनाकर रखा वही श्रेष्ठ थे, उन्हीं की सोच श्रेष्ठ थी और हमारी भावी पीढ़ी को उनका अनुसरण करना चाहिए, यह हमें पिछले 75 सालों से सिखाया जा रहा है। गुलामी के जितने प्रतीक थे उनको हटाने की जगह उनको धरोहर की तरह संजो कर रखा गया और कहा गया कि यह हमारी धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है। यह हमारे संविधान को बचाने वाला है। अगर इसके विरुद्ध जाएंगे, इसको नष्ट करने की कोशिश करेंगे तो दरअसल हम संविधान के विरुद्ध जा रहे हैं, दरअसल हम सभ्यता के विरुद्ध जा रहे हैं, यह बताने की कोशिश हमें लगातार की जाती रहे। पिछले 10 साल से जो परिवर्तन आया है उससेउन लोगों को कष्ट हो रहा है जिन्होंने हमको यह बताया कि भारतीय संस्कृति के बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए,यह छुपा कर रखने की चीज है।यह दिखाने, बताने या गर्व करने की चीज नहीं है।यह परिवर्तन उनके लिए बड़ा कष्टदाई हो रहा है।  500 साल बाद राम का अयोध्या लौटना हर्ष का विषय है।

क्या यही लक्ष्य है

इन दिनों देशभर में एक गीत बज रहा है,“जो राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे”, लेकिन सवाल यह है कि क्या यही लक्ष्य है, क्या इतने से हो जाएगा और क्या इतने से भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण की जो हमारी यात्रा है वह पूरी हो जाएगी। यह हमारी यात्रा का एक पड़ाव मात्र है उसका लक्ष्य नहीं है। गुलामी की जो मानसिकता है और गुलामी के जो प्रतीक हैं उनको अगर संजोकर रखा गया, गुलामी की मानसिकता में हमको जकड़ कर रखा गया, मेरे लिए यह ज्यादा चिंता की बात नहीं है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी इस प्रवृत्ति के लोगों की अच्छी खासी संख्या है, जो इसको सही मानते हैं जो इसको उचित मानते हैं, बल्कि कहें कि इसी को उचित मानते हैं। ऐसे लोगों की संख्या जब तक इतनी बड़ी मात्रा में रहेगी तब तक खतरा मंडराता रहेगा। तब तक यह तलवार हमारे सिरों पर लटकती रहेगी कि फिर से भारतीय संस्कृति की पुनर्जागरण का जो अभियान चल रहा है उसको रोका जा सकता है,उसमें व्यवधान पैदा किया जा सकता है। 500 साल भगवान क्यों निर्वासित रहे, जब मैं इसकी बात करता हूं तो मैं व्यक्तियों को जिम्मेदार नहीं ठहरता। मैं मीर बाकी या बाबर का नाम नहीं लेता। मैं उनकी चर्चा भी नहीं करना चाहता। मैं उस प्रवृत्ति की बात करता हूं, मैं उस प्रवृत्ति के बारे में आपको याद दिलाना चाहता हूं जिसने हमको हमारे आराध्य से 500 साल से ज्यादा समय तक दूर रखा। वह प्रवृत्ति कौन सी थी, चिंता की बात यह है, व्यक्ति नहीं। व्यक्ति तो आते जाते रहते हैं, प्रवृत्ति स्थायी रूप से रहती है। यही समस्या का कारण बनता है।

सबसे बड़ी और पुरानी संस्कृति

इस तरह की नकारात्मक प्रवृत्तियां जब समाज में हावी हो जाती हैं, तो उस देश की सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करना शुरू कर देती है। वही इस देश में हुआ। इससे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि ऐसा आक्रांताओं ने किया, हमें गुलाम बनाने वालों ने किया उसकी बात समझ में आती है, जो हमारे अपने थे, जिनको हमने आजादी के बाद सत्ता सौंपी उन्होंने भी वही काम किया। इस काम को प्रोजेक्ट की तरह आगे बढ़ाया। समय-समय पर प्रोजेक्ट मैनेजर बदल गए बाकी सब कुछ उसी तरह से चलता रहा। पिछले 10 साल से यह बदलाव आ रहा है। आप देखिए कि दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा कहां से कहां पहुंच गई है। भारत की जो आज प्रतिष्ठा बढ़ रही है वह केवल इसलिए नहीं कि भारत में एक स्थायी सरकार पिछले 10 साल से है, बल्कि इसलिए कि भारतीय अब भारतीय संस्कृति पर गर्व करने लगे हैं, उसकी बात करने लगे हैं। अगर हम ही अपनी संस्कृति पर गर्व नहीं करेंगे, तो यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि दूसरे उस पर गर्व की बात करेंगे या गर्व की भावना उनके मन में आएगी, कभी नहीं आ सकती। जब हम ही अपनी संस्कृति को वह महत्वपूर्ण स्थान नहीं दे सकते, नहीं देना चाहते या नहीं देते हैं, तो आप तो कैसे अपेक्षा करते हैं कि दूसरे ऐसा करेंगे। हम दावा करते हैं कि हमारी संस्कृति सबसे पुरानी, सबसे बड़ी और निरंतर बनी रहने वाले संस्कृति है, लेकिन सवाल यह है कि हमने उस संस्कृति के साथ किया क्या। उसको जिन लोगों ने रौंदा उसका साथ हमने क्यों दिया।

भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना का महायज्ञ

आज हम भगवान राम के अयोध्या में आने का हर्षोल्लास मना रहे हैं। मेरी नजर में 22 जनवरी का दिन भारतीय इतिहास में बहुत बड़ा निर्णायक दिन होगा जब भारत की संस्कृति एक नए मोड़ पर चलेगी। भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना का यह जो महायज्ञ है यह बहुत तेजी से आगे बढ़ेगा, लेकिन ऐसे समय में जो विघ्नसंतोषी शक्तियां हैं उनको भूलना नहीं चाहिए। हर यज्ञ में विघ्न पैदा करने वाले आए हैं, यह हमारी संस्कृति हमको बताती है और इन विघ्न पैदा करने वालों का शमन कैसे किया जाता है, इसका निराकरण करने का तरीका हमको नहीं मालूम होगा, इनका नष्ट करने का तरीका हमको नहीं मालूम होगा, मैं बार-बार जब ऐसी बात करता हूं, तो किसी व्यक्ति की बात नहीं करता, मैं प्रवृत्ति की बात करता हूं। मैं स्वभाव की बात करता हूं, सोच की बात करता हंन और उस विचारकी बात करता हूं जिसने हमको गुलाम बनाया। वह विचार जिसने हमको गुलाम बनाकर रखा, जिसने हमें गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं होने दिया, जब तक हम उस विचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़कर जीतेंगे नहीं, तब तक हमारा लक्ष्य पूरा नहीं होगा।

पूर्णाहुति बाकी

साध्वी ऋतंभरा के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन में उनका बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने अभी हाल ही में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही। उनसे सवाल पूछा गया कि आप राम जन्मभूमि आंदोलन की सफलता का श्रेय किसको देना चाहेंगी या किस-किस को देना चाहेंगी, तो उन्होंने बहुत से नाम लिए जो लोग इसमें शामिल रहे।मगर मुझ पर सबसे ज्यादा असर उनके एक वाक्य का पड़ा जिसमें उन्होंने कहा कि विरक्त संतों ने इसमें बढ़-कर कर हिस्सा लिया। जब किसी संस्कृति के विरक्त संत समाज को जगाने का प्रण लेते हैं, इसके लिए जब वह निकलते हैं तब समाज में बड़े बदलाव होते हैं। विरक्त संतों ने जब अयोध्या आंदोलन में हिस्सा लिया तो आप देखिए कि किस तरह का बदलाव आया है, युगांतरकारी बदलाव आया है। इसलिए विरक्त संतों की शक्ति को समझने की जरूरत है। उस संत समाज से जो विरक्त संत हैं उनसे मैं अपेक्षा करता हूं, यह अपील करना चाहता हूं, यह अनुरोध करना चाहता हूं कि आपका काम अभी पूरा नहीं हुआ है। आपने जो यज्ञ शुरू किया था उसकी पूर्णाहुति अभी बाकी है। सवाल इसका नहीं है कि भगवान राम अपने जन्म स्थान से 500 साल दूर रहे, सवाल इसका नहीं है कि अयोध्या में राम को स्थान नहीं मिल रहा था, सवाल यह है कि किस वजह से नहीं मिल रहा था। वह कौन से कारण थे, वह कौन सी प्रवृत्तियां थी जिनकी वजह से भगवान राम को अपने जन्म स्थान से दूर रहना पड़ा।

संकट अभी बरकरार

उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि आखिर हमने उस स्थिति को स्वीकार क्यों किया और इतने सालों तक क्यों खामोश रहे। बीच-बीच में बहुत से प्रयास हुए, संघर्ष हुए, बलिदान हुआ लेकिन पूरे समाज के तौर पर हम उस तरह से उठकर खड़े नहीं हुए जैसा होना चाहिए, जैसी अपेक्षा थी। पूरे समाज के तौर पर हमारी संस्कृति पर हमला था, हमारे आराध्य देव पर हमला था, लेकिन हम उसके विरोध में खड़े नहीं हुए। उसका प्रतिकार करने के लिए उठे नहीं। वह कौन सी कमजोरी थी हमारी और यह कमजोरी क्यों आई।भविष्य में यह कमजोरी न आने पाए, भविष्य में फिर से ऐसा न होने पाए इसका हल खोजना जरूरी है। इसका उत्तर खोजना जरूरी है कि यह दुर्बलता आई कैसे और इस दुर्बलता को दूर करने का उपाय क्या है। विरक्त संत जो दुनिया और समाज से विरक्त हैं, जिनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं है वही रास्ता दिखा सकते हैं और हमारा आपका कर्तव्य बनता है उस रास्ते पर चलने का। इस देश में आज भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो हिंदू, सनातन संस्कृति, भारतीय सभ्यता, राष्ट्रवाद से घृणा करते हैं। वह इन शब्दों को मानते हैं कि यह देश के हित में नहीं है। इन शब्दों का उच्चारण करने वाले या इन शब्दों में निहित जो भाव है उसका अनुकरण करने वाले दरअसल इस देश के और समाज के विरुद्ध काम कर रहे हैं। जब तक ऐसा सोचने वालों की संख्या कम नहीं होगी तब तक यह चुनौती, यह संकट बना रहेगा।

राम राज्य के बगैर राम के आने की सार्थकता अधूरी

संकट बना रहे और आप निश्चिंत होकर बैठ गए, तो आप मान कर चलिए कि फिर उसी दशा को प्राप्त होने के लिए अभिशप्त हैं। यह जागरण का समय है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम अयोध्या पधार रहे हैं।मर्यादा पुरुषोत्तम राम आएं और रामराज्य न आए, तो उसका फिर अर्थ क्या है, उसकी सार्थकता क्या है। राम राज्य कैसे आएगा इसके बारे में सोचना पड़ेगा।सिर्फ मूर्ति की स्थापना से यह वैसे ही होगा जैसे शरीर है आत्मा नहीं है। राम राज्य इस पूरे अनुष्ठान की आत्मा है। राम राज्य की स्थापना ही इस देश की संस्कृति को न केवल पुनर्जीवित व पुनर्स्थापित कर सकती है, बल्कि अनंतकाल तक इसकी यात्रा बनी रह सकती है। ऐसी प्रवृत्तियों का शमन जो भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है, उनके खिलाफ संघर्ष करने के लिए तलवार उठाने की जरूरत नहीं है, विचार की जरूरत है। केवल विचार होने से नहीं, बल्कि उस विचार पर आपका विश्वास होना जरूरी है, उसके प्रति निष्ठा होनी जरूरी है और उसके लिए त्याग और बलिदान की तत्परता, उसके लिए तैयारी होनी जरूरी है। इससे भी जरूरी सवाल यह है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं। जब तक इस सवाल का जवाब हां में नहीं आता, तब तक समझिए कि संकट बना हुआ है।

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तो जो राम को लाए हैं उनको जरूर लाइए, लेकिन उनको लाकर निश्चिंत होकर बैठ मत जाइए। आपका संकल्प, आपकी यात्रा अभी अधूरी है। उसको पूरा करने के लिए जो भी उपाय करने हों उनको करने के लिए तैयार रहिए। तभी राम के आने की सार्थकता होगी, तभी राम राज्य आने का रास्ता बनेगा। 22 जनवरी को भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के साथ एक नई यात्रा की शुरुआत हो रही है। उस यात्रा में इस देश के 140 करोड लोगों को सहयात्री बनना है। जो इसमें सहयात्री बनना नहीं चाहते समझिए कि वह संकट है समाधान नहीं है। संकट के साथ क्या किया जाता है, उसकी चुनौती से कैसे निपटा जाता है इसके लिए तैयार रहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)