सत्यदेव त्रिपाठी।
हिंदी-फ़िल्मकारों में अंग्रेज़ी नाम रखने का ऐसा मोह हो गया है कि हर तीसरी फ़िल्म का नाम अंग्रेज़ी में मिल जाता है…वरना ‘वेडिंग़ स्टोरी’ के लिए ‘क़िस्सा शादी का’ बेहतर नाम होता…! अच्छा, ये लोग अंग्रेज़ी में सोचते भी नहीं – सोच ही नहीं सकते। सो, फ़ैशन व रुतबे के दिखावे में नाम ही सही!! ऐसा करके वे जिस हिंदी की रोटी खा रहे हैं, उसको कितना कमजोर व अपमानित कर रहे हैं, इसका उन्हँ भान ही नहीं हो सकता।
‘वेडिंग स्टोरी’ के आने की खबरें सुनते हुए हम नाम के माफ़िक़ इसे शादी पर आधारित ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी कोई फ़िल्म समझ रहे थे, तो देखने का ख़्याल भी न था…बल्कि नाम तक याद में न रह गया था। लेकिन प्रदर्शन के दूसरे दिन फ़ोन करके हमारे ज़हीन पत्रकार मित्र अजय विद्युत ने कहा कि सर, यह फ़िल्म तो आपके लिए ही है – पंचक में हुई किसी मौत के दुष्परिणामों पर बनी है…। तो लगा कि अमाँ यह तो सरोकार वाली फ़िल्म ठहरी…। ज़रूर ही अंधविश्वासों को तोड़ने की बात होगी। लेकिन क्या पता था कि अंधविश्वासों को सही सिद्ध करने के लिए भी फ़िल्म बन सकती है! यह तो ऐसी सब जड़ताओँ को सच मानती-दिखाती, उसे महिमामंडित करती फ़िल्म है। इसे देखकर तो कई भीरु दर्शक जीवन में पंचक-पूजा को और ज़रूरी तौर पर अपनाने लग जाएँगे…। बहरहाल,
फ़िल्म में मौत और शादी के नाम-काम की विरोधाभासी संगति अच्छी बनी है। नाम है शादी पर – ‘वेडिंग स्टोरी’ और काम है – पंचक में हुई मृत्यु के बाद होती पाँच मौतों की रूढ़िवादी धारणा की प्रतिष्ठा…याने मौत के बाद शादी, और शादी की योजना व तैयारी…आदि के दौरान मौतें ही मौतें…यही है फ़िल्म…।
अब ज़रा पंचक पर एक नज़र डाल लें…हिंदू पंचांग में पंचक हर महीने में एक बार आता है – ‘धनिष्ठा’ नामक नक्षत्र से शुरू होकर चार और दिन चलता है। इस तरह क्रमिक चक्र (रूटीन) में हर माह ही आने वाले के अनिष्टकारक होने का क्या तुक है? कर्म-कांडों वाले शास्त्र में कुल नक्षत्र २७ होते हैं और इस अनुशासन में सारा खेल इन्हीं नक्षत्रों का है…। जन्म-शिक्षा-विवाह…आदि से होते हुए मृत्यु तक, खेती-बारी से लेकर धंधे-व्यापार तक…सबक़ुछ करने के अच्छे-बुरे नक्षत्र तय हैं, जिनका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी पूजा-पाठ, विवाह-व्यापार…आदि सारे काम तो उनके बताये अशुभ नक्षत्रों को बचाकर शुभ नक्षत्रों में किये जा सकते हैं – किये जाते है, लेकिन जन्म-मृत्यु पर तो किसी का कोई वश नहीं। जैसे – छह ऐसे नक्षत्र हैं, जिनमें पैदा होने पर बच्चे को मूल लगा हुआ मानते हैं – उसे ‘मुरहा’ कहते हैं। फिर उसके लिए ‘मूल शांति’ नाम की किताब ही है, जिसके अनुसार पूजा होती है, जो ब्राह्मण लोग कराते हैं – दान-दक्षिणा लेते हैं…। इसी क्रम में मौत के लिए पंचक (हमारे लोक में पचखा) भी है, जिसमें मरने से उस घर-ख़ानदान या गाँव-मुहल्ले में चार और मौतों का होना तय माना गया है…। इससे बचने के पुनः पूजा-पाठी उपाय हैं। लोक में इसके कुछ टोटके भी बने हैं…जैसे मेरे गाँव में शव उठाने के साथ मिट्टी की पाँच कालिख पुती हाँड़ियाँ (हण्डी) फोड़ दी जाती हैं और इससे दोष मिट जाता है, ऐसा विश्वास है। लेकिन इस फ़िल्म का परिवार सम्भ्रांत व अमीर है। सो, शास्त्रीय विधान होना ही है, जिसमें शव के साथ जलाने के लिए चार पुतलों में द्विज-देवता (घरहीं के बाढ़े) विधिसम्मत पूजा से प्राण-प्रतिष्ठा करायेंगे…। याने पाँच जीवों के दाह-संस्कार से पंचक-दोष का परिहार होगा। फ़िल्म के अनुसार इस विधान का आधार मरणोपरांत वाले कर्मकांड पर आधारित ग्रंथ ‘गरुड़ पुराण’ है – याने यह विधान शास्त्र-सम्मत है।
अब यहीं से फ़िल्म पर सीधे आते हैं… पंचक में हुई पिता की मृत्यु पर विदेश से आया बेटा तरुण इस सब को ढकोसला कहकर झटक देता है। पुरोहितजी काफ़ी चेतावनी देते हैं…ख़ास ज़ोर पुतलों में हुई प्राण-प्रतिष्ठा पर होता है। लेकिन तरुण किसी को न बोलने देता, न किसी की सुनता…। इस रूप में तरुण बना कलाकार तरुण वीर सरन छजता भी है – तेवर में थोड़ा लगता भी है मार्क्सवादी युवकों जैसा…। चचेरा भाई और इस फ़िल्म का हीरो विक्रम (वैभव तत्त्ववादी) उसे बहुत समझाता है, लेकिन तरुण ऐसा कड़क प्रतिरोध करता है कि प्राण-प्रतिष्ठा हो चुके वाले पुतले अर्थी पर रखे ही न जा पाते। सो, शास्त्र-विधान बिलकुल ख़ारिज हो जाता है। पुरोहितजी नाराज़ होकर चले जाते हैं, जिससे एक और अशुभ जुड़ जाता है…और इसे देखकर बचपन का पुरोहित मैं तो खूब प्रसन्न हो जाता हूँ…। उन क्षणों में विश्वास हो चलता है कि अंधविश्वासों को तोड़ने वाली यह प्रगतिशील फ़िल्म है। उत्सुकता बन जाती है कि देखें – कौन-सी तर्कसम्मत व वैज्ञानिक बात बतायी जाती है…।
परंतु दूसरे ही दिन तरुण विदेश वापस चला जाता है और इधर धीरे-धीरे यहाँ तरह-तरह की आकस्मिक घटनाएँ होने लगती हैं…। वस्तुतः ये घटनाएँ ही फ़िल्म हैं। इनमे इतना तो साफ़ है कि प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के कारण वे चार जीव हो गये और शव के साथ जलाये न जाकर तड़प-तड़प के मरे…उनका तड़पना फ़िल्म में दिखाया भी जाता है। जोड़ यह बैठता है कि उन जीवों के तड़प कर मरने का शाप-पाप लगा और ये घटनाएँ हो रही हैं। लेकिन इसमें मूल बात फिसल जाती है – पंचक से पुतलों पर आ जाती है। अब सवाल बनता है कि यह पाप पंचक का है या जीवधारी पुतलों की हत्या का। क्या जीवधारी पुतलों की हत्या न होती, तो भी पंचक का निदान न करने से कुछ होता या नहीं!! और लेखक-निर्देशक को इस फिसलन का पता तक नहीं। ये बिचारे तो इतने भोले हैं कि न अपने विषय को जानते, न अपनी निर्मिति को समझते। तो कही टिकने का क्या सवाल? बस, जो मन आ रहा, किये जा रहे…!!
अब आयें उस बात पर कि ये घटनाएँ ही फ़िल्म हैं…या पूरी फ़िल्म इन्हीं घटनाओं की है, जिनके लिए इसे डरावनी (हॉरर) फ़िल्म भी कहा गया है और रहस्य-रोमांचक (सस्पेंस थ्रिलर) फ़िल्म भी। फ़िल्म के ऐसे प्रभाव के लिए ही ये घटनाएँ सिरजी गयी हैं, लेकिन न ही ख़ास रहस्य बनता, न ही वह सब उतना डरावना होता। हाँ, रहस्य व डरावना बनाने के चक्कर में इन घटनाओं का कोई तुक-तार बिलकुल नहीं मिलता…, कहीं भी कुछ भी करते-कराते हैं – गोया इनके पास दृश्यों-घटनाओं का कोई कबाड़ख़ाना (क्यूरियोशॉप) हो…!! जो हाथ आया, निकाल कर लगा दिया। अरे, घटनाओं से कोई कहानी न बने, पर कोई संगति तो हो…!! ऐसे बेतुकेपन पर कोफ़्त होती है…और निर्देशक अभिनव प्रतीक एवं लेखक-निर्माता शुभो शेखर…आदि पर ख़ासा तरस आता है…।
ऐसी घटनाओं के दौरान मुझे तरुण की प्रतीक्षा होने लगती है…कि शायद वह आकर कुछ करे…। वह आता है पहली मौत के बाद, जो फ़िल्म में बड़ी देर से होती है। लगता है कि फ़िल्म वालों ने दर्शकों के सिवा उन पात्रों के लिए भी दृश्य बनाये हैं, जिन्हें मरना है – कि भाई वो तो देख लें – दर्शक का क्या पता – कितने आयें…और १०-१५ दिनों में अब तक तो पता लग ही गया होगा…। इसीलिए बाद में सारी मौतें फटाफट थोक में हो जाती हैं…। बहरहाल, तरुण आता भी है, तो ऐसा लुटा-पिटा, निरीह-मायूस…कि पहचाना नहीं जाता। फिर भी मेरी आस तब तक नहीं टूटती, जब तक वह विक्रम से खुलकर कह नहीं देता कि भाई, मुझे माफ़ कर दो। सारी गलती मेरी है। उस दिन मुझे विधान के विरुद्ध वह सब नहीं करना चाहिए था। इस प्रकार शुरू में वैचारिकता की जो छाप बनती है, उसका ही बंटाधार हो जाता है। तब समझ में आता है कि तरुण का शुरुआती विरोध फ़िल्म के दक़ियानूसीपने के प्रतिपक्ष को खड़ा करने का बहाना भर है, ताकि पंचक के अंधविश्वासों की प्रतिष्ठा की जा सके…। हम ही भकुआ रहे, जो विरोध का स्वर सुनने लगे, जो हम शुरू से ही सुनना चाहते थे। फिर भी यही पात्रत्व फ़िल्म का सबसे बड़ा सवाल बनता है। आख़िर उसके साथ वहाँ विदेश में ऐसा हुआ क्या, जो वह यूँ हार गया। तब क्या हुआ था, जो इतना प्रखर व निर्णायक विरोध कर सका था!! अब तो तरुण ‘पोंगा पांडित’ के वजन पर ‘पोंगा प्रगतिशील’ सिद्ध होता है। चुप है फ़िल्म, जबकि इसे पता होना चाहिए और दर्शको को बताना भी चाहिए। सो, यह फ़िल्म की सबसे बड़ी कमी है।
कहना होगा कि पंचक को लेकर फ़िल्म जितनी पिछड़ी हुई (दक़ियानूसी) सोच वाली है, घर के युवक-युवतियों (भाई-बहनों) को लेकर उतनी ही अगड़ी हुई (आधुनिक) है – बल्कि अत्याधुनिक (अल्ट्रा मॉडर्न) है। इसका परमान यह कि विक्रम और उसकी बहन साथ घूम ही नहीं, शराब भी पी सकते है। प्रेमिका प्रीति के साथ तो रहन-सहन इतना उन्मुक्त भी है और कुछेक स्थलों पर बड़े उद्भावनापूर्ण रूमानी संवाद भी आ जाते है…। शादी के पहले दोनो का साथ रहना-सोना तक दोनो घरों को पता है – स्वीकृत भी है। लिहाजा गर्भ रह जाना भी क्यों छिपता? पंचक-प्रकरण के रूढ़िवादी परिवार में अद्भुत है इतनी छूट और ऐसा मेल!! अब गर्भ गिराने के बदले शादी ही जल्दी करने की ठहरती है। और वह तो पंचक के चलते क्या – पंचक-प्रताप को स्थापित करने वाले फ़िल्मकार के चलते होनी नहीं थी। सो, उसके पहले सभी मर जाते हैं – पंचक जीत जाता है। फ़िल्म का ‘द एंड’ हो जाता है।
इस प्रकार यह रिश्ता-कथा यूँ तो पंचक वाली मुख्य कथा के परिणाम के लिए ही बनायी गयी है, लेकिन इस बावत फ़िल्मकार के पास कुछ ख़ास कहने को है नहीं… तो ज्यादा रोमांस ही करा देता है। सो, इस दौरान विक्रम ही विक्रम है चहुँ ओर…। विक्रम बने वैभव तत्त्ववादी नामक शख़्स के पास कोई ‘तत्त्व’ तो है, जिसके चलते पूरी फ़िल्म में इसी का ‘वैभव’ बोलता-चलता है, पर लहकता नहीं – जबकि इतना फ़ुटेज पाने के बाद उसे लहक जाना चाहिए…। लेकिन फ़ुटेज ही है, कुछ ठोस करना नहीं है, जो आलेख की नासमझी है। प्रीति बनी मुक्ति मोहन की किरदारी भी ऐसी ही बनी है – कहीं टिक कर कुछ करना ही नहीं है – बस, सब भागते-पराते…कभी कैमरा आगे, तो कभी करने वाले आगे…सब कुछ गोल…! तो लगभग पूरी फ़िल्म वह घूमने-फिरने, खाने-पीने की मस्ती में है। कभी कुछ काम-धाम करते कोई न दिखता, न कहीं ज़िक्र ही आता। इतनी अमीरी धरी है कि बड़ा घर, बड़ा परिसर, फ़ॉर्म हाउस…गाड़ी-मोटर…सब कुछ का सुपास है। बड़ा परिवार अन्य शहरों से लेकर विदेश तक में फैला है – सुख भोग रहा है…।
ऐसा सुखी परिवार भी जान-बूझकर रखा गया होगा…। इसी में पंचक का खलनायक बनकर आना, सब कुछ को नष्ट कर देना ही तो ज़्यादा प्रभाव छोड़ेगा…!! याने सब कुछ पंचक के पक्ष में, उसी के लिए नियोजित। सो, यह फ़िल्म और किसी की नहीं, अंततः सिर्फ़ पंचक की, पंचक के लिए – इदम् पंचकाय, इदन्नमम्…!!
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)