‘दिल्ली रॉयट्स- अ टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम’

राजीव रंजन।

जब आप गूगल पर Delhi Riots सर्च करेंगे, तो उसमें आपको विकीपिडिया का पेज सबसे पहले दिखाई देगा- 2020 Delhi riots के नाम से। इसका पहला वाक्य है-
The 2020 Delhi riots, or North East Delhi riots, were multiple waves of bloodshed, property destruction, and rioting in North East Delhi, beginning on 23 February 2020 and caused chiefly by Hindu mobs attacking Muslims.

यानी 2020 के दिल्ली दंगे या उत्तर पूर्व दिल्ली दंगे रक्तपात, संपत्ति विध्वंस और बलवा की कई घटनाएं थे, जिनकी शुरुआत 23 फरवरी 2020 को उत्तर पूर्व दिल्ली में हुई थी और इसका मुख्य कारण था हिन्दुओं की भीड़ द्वारा मुसलमानों पर हमला।

इसी पेज पर तीसरे पाराग्राफ में लिखा है-
The riots had their origin in Jaffrabad, in North East Delhi, where a sit-in by women against India’s Citizenship (Amendment) Act, 2019 had been in progress on a stretch of the Seelampur–Jaffrabad–Maujpur road, blocking it. On 23 February 2020, a leader of the ruling Hindu nationalist Bharatiya Janata Party (BJP), Kapil Mishra, called for Delhi Police to clear the roads, failing which he threatened to “hit the streets”. After Mishra’s ultimatum, violence erupted.
यानी दंगों की शुरुआत उत्तर पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद में हुई थी, जहां भारत के नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ महिलाएं सीलमपुर-जाफराबाद-मौजपुर सड़क के एक खंड को ब्लॉक कर धरना दे रही थीं। 23 फरवरी 2020 को सत्ताधारी हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक नेता कपिल मिश्रा ने दिल्ली पुलिस से सड़कों को खाली कराने को कहा और इसमें असफल रहने पर सड़कों पर उतरने की धमकी दी। मिश्रा की चेतावनी के बाद हिंसा भड़क उठी।

एजेंडा नैरेटिव सच से काफी दूर

सिर्फ विकीपिडिया ही नहीं, ढेरों वेबसाइटों और मीडिया संस्थानों ने दिल्ली दंगों को लेकर बेहद एकतरफा रिपोर्टिंग की। उन्होंने इन दंगों को ‘मुस्लिम विरोधी दंगा’ कहा और एक एजेंडा के तहत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की नकारात्मक छवि बनाने की कोशिश की, ताकि नरेंद्र मोदी सरकार को चारों तरफ से बदनाम किया जा सके। हालांकि यह नैरेटिव सच से काफी दूर था। इस दंगे में 53 निर्दोष लोग मारे गए थे, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल थे। आईबी के युवा अधिकारी अंकित शर्मा (उनके शरीर को धारदार हथियारों से सैकड़ों बार गोद कर चांदबाग के नाले में फेंक दिया गया था), ढाबे पर काम करने वाले युवक दिलबर नेगी (जिनके हाथों और पैरों को काट कर मार डाला गया था) की जिस तरह दंगाइयों ने हत्या की थी, वह दिल दहला देने वाली थी। इन पाशविक कृत्यों को देखकर यह सोच पाना भी मुश्किल था कि कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य के साथ ऐसा भी कर सकता है। इन दंगाइयों ने पुलिसकर्मियों को भी नहीं छोड़ा। एक दर्जन पुलिसकर्मियों को बुरी तरह से घायल कर दिया। हेड कांस्टेबल रतन लाल को तो इतनी बुरी तरीके से पीटा कि उनकी जान ही चली गई, वहीं डीसीपी अमित शर्मा की जान किसी तरह से बची। उनकी सर्जरी हुई और कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा।

हिन्दुओं को खलनायक साबित करने की कोशिश

इन दहशतनाक घटनाओं के बावजूद हिन्दुओं को खलनायक साबित करने की कोशिश की गई। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (सीएए) के खिलाफ हुए धरनों में बच्चों के मुंह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने की बात कहलवाई गई। उमर खालिद, शरजील इमाम ने खुलेआम हिंसा भड़काने वाली बातें कहीं और समय भी चुना अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत आगमन (24-25 फरवरी, 2020) का। एआईएमआईएम के पूर्व विधायक वारिस पठान ने हिन्दुओं के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक बातें कहीं, लेकिन सेक्यूलर, लिबरल, वामपंथी गैंग ने जिम्मेदार कपिल मिश्रा को ठहराने की कोशिश की।

भयावहता ने हिन्दुओं को दहला दिया

इस झूठ को बेनकाब करती है गैर-फीचर फिल्म श्रेणी में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (‘मधुबनी-द स्टेशन ऑफ कलर्स’ के लिए) जीत चुके फिल्मकार कमलेश कुमार मिश्र और निर्माता नवीन बंसल की डॉक्यूमेंटरी ‘दिल्ली रॉयट्स- अ टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम’, जो ऑनलाइन मनोरंजन प्लेटफॉर्म (ओटीटी) वूट पर 23 फरवरी से दिखाई जा रही है। यह डॉक्यूमेंटरी 23 से 26 फरवरी, 2020 के बीच उत्तर-पूर्वी दिल्ली के ब्रह्मपुरी, जाफराबाद, चांदबाग, मौजपुर, करावल नगर, गोकुलपुरी, कर्दमपुरी, भजनपुरा, सीलमपुर, बाबरपुर, शिवपुरी इलाकों में घटी उन घटनाओं की कहानी पीड़ितों की जुबानी पेश करती है, जिनकी भयावहता ने हिन्दुओं को दहला दिया था। उनमें यह डर पैदा हो गया था कि अगर जिंदा बच भी गए, तो कहीं घर-द्वार छोड़कर भागना न पड़े। कहीं हमेशा के लिए वे बेघर न हो जाएं।

जो है, जैसा है- वही दिखाया

इस वृत्तचित्र में निर्माता-निर्देशक ने अपनी तरफ ओर से कुछ भी नहीं कहा है, न इसमें कोई कमेंट्री है। जो है, जैसा है की तर्ज पर रखने की कोशिश की है। उन्होनें पीड़ितों के जरिये यह सामने लाने की कोशिश की है कि दंगे क्यों शुरू हुए, किसने शुरू किए। पीड़ितों के अनुसार, ये दंगे किसी बात की प्रतिक्रिया नहीं थे, बल्कि सीएए विरोधी आंदोलनों की परिणति थे। पूरी तैयारी और रणनीति के साथ अंजाम दिए गए थे। इनके लिए बाजाप्ता बाहर से फंडिंग जुटाई गई थी, हथियार इकट्ठे किए गए थे। ट्रक भर भर कर ईंट-पत्थर जमा किए गए थे, ताकि एक साथ विरोधी पक्षों पर, पुलिस पर संगठित तरीके से पथराव किया जा सके। इसमें दिखाया गया है कि दंगों के दौरान सड़क के एक तरफ मुस्लिमों के घरों को कुछ नहीं हुआ, लेकिन दूसरी तरफ हिन्दुओं की दुकानों को खाक में तब्दील कर दिया गया। ये हमले मुस्लिमों के घर से हुए थे और महिलाएं भी अपनी छतों पर खड़े होकर पुलिस दस्ते को निशाना बना रही थीं। पीड़ित बताते हैं कि राजधानी स्कूल की छत से हिन्दुओं को निशाना बनाया गया।

किसी भी दृश्य का नाट्य रूपांतरण नहीं

इस डॉक्यूमेंटरी को देखकर मन विचलित हो जाता है। इसकी खासियत यह है कि इसमें किसी भी दृश्य को स्टुडियो में तैयार नहीं किया गया है, न ही कोई पटकथा लिखी गई है। कमलेश मिश्रा और नवीन बंसल की टीम ने दंगा प्रभावित मुहल्लों में जाकर स्थानीय लोगों से बात की है और उनकी पीड़ा को कैमरे में दर्ज किया है। इसमें किसी भी दृश्य को नाट्य रूपांतरण के जरिये पेश नहीं किया गया है, बल्कि दंगों के दौरान लोगों द्वारा मोबाइल से बनाए गए वीडियो, चैनलों की फुटेज को इस्तेमाल किया गया है। पीड़ितों के अलावा वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह सहित कुछ अन्य वरिष्ठ पत्रकारों और सुप्रीम कोर्ट की वकील मोनिका अरोड़ा से बात की गई है। साथ ही, दंगों में बुरी तरह से घायल हुए पुलिसकर्मियों और कुछ अन्य पुलिस अधिकारियों से बात की गई है, जिसमें दिल्ली पुलिस के कमिश्नर भी शामिल हैं।

दिल्ली दंगों का पूरा सच

यह डॉक्यूमेंटरी दिल्ली दंगों के हिन्दू पीड़ितों का पक्ष पेश करती है और प्रचलित नैरेटिव के खिलाफ सच के एक अहम पहलू को सामने लाने का काम करती है। यह उत्तर पूर्व दिल्ली के हिन्दू-मुस्लिम पड़ोसियों के बीच पैदा हो गई अविश्वास की खाई को भी बयां करती है। एक साल पहले हुए दिल्ली दंगों का पूरा सच जानना चाहते हैं, तो यह डॉक्यूमेंटरी जरूर देखें।


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