एक दौर का दुख़द अंत और नये ‘ग्रेट गेम’ की शुरुआत!
सुशांत सरीन।
दीवार पर लिखी इबारत साफ़ दिख रही है। अफ़ग़ानिस्तान को न सिर्फ़ दुनिया की उन बड़ी ताक़तों ने उसके हाल पर छोड़ दिया है, जिन्होंने फिर से ऐसा न करने का वादा किया था। बल्कि, अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सेना ने भी बिना कोई लड़ाई किए ही अपने हथियार डाल दिए। राजधानी काबुल पर भी तालिबान का क़ब्ज़ा है। कुल मिलाकर अब दुनिया ने ये मान लिया है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज क़ायम हो गया है।
आने वाले दिनों में शायद तालिबान दिखावे के लिए पिछली सरकार के कुछ लोगों के साथ मिलकर अंतरिम सरकार बना ले। पुरानी हुकूमत से जुड़े कुछ लोगों को सुरक्षित देश छोड़ने का समझौता हो जाए और तालिबान ये सुनिश्चित करें कि बड़े पैमाने पर न तो आम नागरिकों का और न ही अफ़ग़ान सैनिकों का क़त्ल-ए-आम हो। चूंकि तालिबान ने काबुल पर बिना किसी ज़ोर- ज़बरदस्ती के क़ब्ज़ा किया, तो इससे उसकी हुकूमत को अंतरराष्ट्रीय मान्यता के दरवाज़े खुलेंगे। उम्मीद के मुताबिक़, सबसे पहले चीन ने ये बयान दिया है कि उसे तालिबान के साथ काम करने में कोई दिक़्क़त नहीं। ज़ाहिर है पाकिस्तान भी तालिबान की हुकूमत को मान्यता देने में देर नहीं करेगा। इसके बाद रूस, मध्य एशियाई देश और शायद ईरान भी उन्हें मान्यता दे दे। अगर पश्चिमी देश भी काबुल लौटकर अपने दूतावास खोल लें, तो किसी को हैरानी नहीं होगी। हालांकि, वो ऐसा नहीं भी करते, तो किसी को इससे परेशानी नहीं होगी। पश्चिमी देश, अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से मुंह फेर लेंगे। वो कभी कभार मानव अधिकारों के हालात, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव और नागरिकों की आज़ादी को लेकर भी चिंता ज़ाहिर करेंगे। पर कुल मिलाकर, पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान को बहुत जल्द एक बुरे ख़्वाब की तरह भुला दिया जाएगा।
जिहादी संगठनों से तालिबान के रिश्ते
अगर तालिबान अपने बर्ताव में बदलाव नहीं लाते और वैसे ही ज़ुल्म ढाते हैं, जिसके लिए वो बदनाम रहे हैं, तो आशंका यही है कि लोग उनसे नज़दीकी बनाने से परहेज़ करेंगे। इसके अलावा दुनिया के दूसरे जिहादी संगठनों से तालिबान के रिश्तों की भी आलोचना होती रहेगी। चिंता इस बात की है कि अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर आतंक का अड्डा बन जाएगा। वहां इस क्षेत्र ही नहीं पूरी दुनिया के इस्लामिक आतंकी संगठनों को पनाह मिलेगी। हाल ही में दिए एक इंटरव्यू में तालिबान के प्रवक्ता ने इन आतंकवादी संगठनों के साथ रिश्ते को लेकर बड़ा अस्पष्ट नज़रिया सामने रखा था। सच तो ये है कि ये आतंकी संगठन पिछले 20 साल से तालिबान के साथ मिलकर लड़ते आए हैं और एक-दूसरे के सहयोगी बन चुके हैं। इसका मतलब ये है कि उनके बीच ताल्लुक़ सिर्फ़ इसलिए ख़त्म नहीं किए जा सकते कि तालिबान ने काबुल में हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया है। लेकिन, क्या आगे चलकर तालिबान इन इस्लामिक आतंकी संगठनों के अपना एजेंडा चलाने पर लगाम लगाएगा? इस सवाल का जवाब ही बाक़ी दुनिया और ख़ास तौर से अन्य क्षेत्रीय ताक़तों से तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते तय करेगा।
अभी लगाम नहीं
कम से कम अभी तो तालिबान इन आतंकी संगठनों पर लगाम नहीं लगाने जा रहा, क्योंकि ये संगठन, सत्ता हासिल करने की जंग में उसके मददगार रहे हैं। तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान पर अपना शिकंजा मज़बूत करने और बग़ावत के किसी भी सुर को ख़ामोश करने के लिए इनकी ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन, जब ये दौर बीत जाएगा, तो तालिबान को इन आतंकी संगठनों के बारे में फ़ैसला लेना होगा। इनमें से बहुत से संगठन ये चाहेंगे कि तालिबान उनके एजेंडे को उसी तरह समर्थन दे, जिस तरह से उन्होंने तालिबान का साथ दिया है। अगर, तालिबान इन इस्लामिक संगठनों पर लगाम लगाता है, तो हो सकता है कि उनके रिश्ते ख़राब हों और लड़ाई शुरू हो जाए; अगर तालिबान इन संगठनों को पनाह देता है और उन्हें अपनी मनमानी करने देता है, तो इससे पड़ोसी देशों को परेशानी होगी। सच तो ये है कि जो देश तालिबान के साथ काम करने को तैयार हैं, वो भी इन आतंकी संगठनों को लेकर चिंतित हैं। इसीलिए, ये देश तालिबान पर किसी न किसी तरह का दबाव बनाए रखना चाहेंगे। इसका मतलब कुछ तालिबान विरोधियों को अपने यहां शरण देना होगा। तालिबान भी चाहेंगे कि वो ताजिक, उज़्बेक, पाकिस्तानी, चीनी, चेचेन, अरब और कुछ ईरानी आतंकियों को अपने साथ जोड़े रखें, जिससे अगर कोई देश अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में दख़ल देने के बारे में सोचे, तो वो इनका इस्तेमाल कर सकें। तालिबान इन विदेशी जिहादियों के साथ कैसा बर्ताव करेगा, ये बहुत कुछ तालिबान के अंदरूनी समीकरण पर भी निर्भर करेगा। तालिबान के राजनीतिक चेहरे तो तमाम तरह का भरोसा दे रहे हैं। लेकिन, असल में ज़मीन पर काम करने वाले तालिबान के जंगी कमांडर ही हैं, जो विदेशी जिहादियों के साथ मिलकर लड़ते रहे हैं। अब उनके बारे में कौन फ़ैसला करेगा, ये तो हम आने वाले समय में ही जान सकेंगे।
नया ‘ग्रेट गेम’ शुरू
यहां एक बात साफ़ तौर पर समझनी होगी। अफ़ग़ानिस्तान का खेल ख़त्म नहीं हुआ। एक दौर भर बीता है और एक नया ‘ग्रेट गेम’ बस शुरू हो रहा है। इस समय भारत को सामरिक सब्र दिखाने की ज़रूरत है। जल्द ही भारत को भी अपने दांव चलने का मौक़ा मिलेगा। अगर तालिबान ये साबित करना चाहे कि वो मध्ययुग के शैतान नहीं, बल्कि रूढ़िवादी हैं, तो भारत भी उनके प्रति नरमी अख़्तियार करेगा। या फिर पाकिस्तान से संतुलन बनाने के लिए ख़ुद तालिबान ही भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएं। ये भी हो सकता है कि चारों तरफ़ से तालिबान का ही विरोध हो। ऐसा भी होता है, तो भारत के लिए नए विकल्प खुलेंगे। हालांकि, अभी भारत को लंबी लड़ाई के लिए तैयारी करनी चाहिए। इसमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने दोस्तों को भारत में शरण देकर मदद करना शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान में हालात बदले तो वो हमारे सबसे दमदार साथी होंगे। अफ़ग़ान दोस्तों की मदद करना सिर्फ़ जज़्बाती प्रतिक्रिया नहीं है। ये एक सामरिक क़दम भी है। 1990 के दशक में भारत ने जिन अफ़ग़ान नागरिकों की मदद की थी, वो पिछले 20 वर्षों में हमारे सबसे पक्के साथी साबित हुए। पिछले दो दशकों में भारत ने अगर अफ़ग़ानिस्तान में मौक़े पर मौक़े गंवाए, तो इसमें अफ़ग़ानों का कोई दोष नहीं है। ये भारत के नीति निर्माताओ की कमी रही कि उन्होंने देश की सॉफ्ट पावर पर ज़्यादा भरोसा किया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे सख़्तजान देश में भारत की हार्ड पावर के विकल्प तैयार करने पर ध्यान नहीं दिया। हमें वैसी ही ग़लती दोबारा नहीं करनी चाहिए।
(लेखक सामरिक विशेषज्ञ हैं। आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) की वेबसाइट पर प्रकाशित उनके आलेख के कुछ अंश)
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