#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।

भगवान श्रीराम में कृतज्ञता का एक अद्भुत गुण था। वाल्मीकीय  रामायण के युद्ध काण्ड के विंशत्यधिकशततमः सर्गः अर्थात 120वें अध्याय में भगवान श्रीराम के इस कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार की चर्चा की गई है।

युद्ध में श्री राम जब रावण का वध कर चुके, तब इन्द्रदेव उनके इस कृत्य से बहुत प्रसन्न हुए। इन्द्रदेव के प्रगट होते ही दशरथपुत्र श्रीरघुनाथजी उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। इन्द्रदेव ने श्रीराम से कहा –

अमोघं दर्शनं राम तवास्माकं नरर्षभ।

प्रीतियुक्ताः स्म तेन त्वं ब्रूहि यन्मनसेप्सितम् ॥ 2 ॥

‘नरश्रेष्ठ श्रीराम! तुम्हें जो हमारा दर्शन हुआ, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये और हम तुमपर बहुत प्रसन्न हैं। इसलिये तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, वह मुझसे कहो’ ॥ 2 ॥

एवमुक्तो महेन्द्रेण प्रसन्नेन महात्मना।

सुप्रसन्नमना हृष्टो वचनं प्राह राघवः ॥ 3 ॥

 महात्मा इन्द्र ने जब प्रसन्न होकर ऐसी बात कही, तब श्रीरघुनाथजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता

हुई। उन्होंने हर्षसे भरकर कहा—॥3॥

15 Learnings from Ramayan !! 1. Shri Ram ❣️ Dharma is above all. Face the hardships, fight to protect it. But never leave the path of dharma. @ - Thread from Varsha Singh @varshaparmar06 - Rattibha

यदि प्रीतिः समुत्पन्ना मयि ते विबुधेश्वर।

वक्ष्यामि कुरु मे सत्यं वचनं वदतां वर ॥ 4 ॥

 ‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ देवेश्वर ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे एक प्रार्थना करूँगा। आप मेरी उस प्रार्थनाको सफल करें ॥ 4 ॥

मम हेतोः पराक्रान्ता ये गता यमसादनम् ।

ते सर्वे जीवितं प्राप्य समुत्तिष्ठन्तु वानराः ॥ 5 ॥

 ‘मेरे लिये युद्ध में पराक्रम करके जो यम लोक को चले गए हैं, वे सब वानर नया जीवन पाकर उठ खड़े हों ॥ 5 ॥

मत्कृते विप्रयुक्ता ये पुत्रैर्दारैश्च वानराः।

तान् प्रीतमनसः सर्वान् द्रष्टुमिच्छामि मानद ॥ 6 ॥

 ‘मानद! जो वानर मेरे लिये अपने स्त्री-पुत्रों से विछुड़ गए हैं, उन सबको मैं प्रसन्नचित्त देखना

चाहता हूँ ॥ 6 ॥

विक्रान्ताश्चापि शूराश्च न मृत्युं गणयन्ति च।

कृतयत्ना विपन्नाश्च जीवयैतान् पुरंदर ॥ 7 ॥

 ‘पुरंदर! वे पराक्रमी और शूरवीर थे तथा मृत्यु को कुछ भी नहीं गिनते थे। उन्होंने मेरे लिए

बड़ा प्रयत्न किया है और अन्त में काल के गाल में चले गए हैं। आप उन सबको जीवित कर दें ॥ 7  ॥

मत्प्रियेष्वभिरक्ताश्च न मृत्युं गणयन्ति ये।

त्वत्प्रसादात् समेयुस्ते वरमेतमहं वृणे ॥ 8 ॥

‘जो वानर सदा मेरा प्रिय करनेमें लगे रहते थे और मौत को कुछ नहीं समझते थे, वे सब आपकी कृपा से फिर मुझसे मिलें – यह वर मैं चाहता हूँ ॥ 8 ॥

नीरुजो निर्व्रणांश्चैव सम्पन्नबलपौरुषान्।

गोलाङ्गूलांस्तथर्क्षश्च द्रष्टुमिच्छामि मानद ॥ 9 ॥

 ‘दूसरों को मान देने वाले देवराज! मैं उन वानर, लंगूर और भालुओं को नीरोग, व्रणहीन और बल-पौरुष से सम्पन्न देखना चाहता हूँ ॥ 9 ॥

अकाले चापि पुष्पाणि मूलानि च फलानि च।

नद्यश्च विमलास्तत्र तिष्ठेयुर्यत्र वानराः ॥ 10 ॥

‘ये वानर जिस स्थानपर रहें, वहाँ असमयमें भी फल- मूल और पुष्पोंकी भरमार रहे तथा निर्मल जल वाली नदियाँ बहती रहें ‘ ॥ 10 ॥

श्रुत्वा तु वचनं तस्य राघवस्य महात्मनः।

महेन्द्रः प्रत्युवाचेदं वचनं प्रीतिसंयुतम् ॥ 11 ॥

 महात्मा श्रीरघुनाथजी की यह बात सुनकर महेन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक यों उत्तर दिया- ॥ 11  ॥

महानयं वरस्तात यस्त्वयोक्तो रघूत्तम।

द्विर्मया नोक्तपूर्वं च तस्मादेतद् भविष्यति ॥ 12 ॥

 तात! रघुवंशविभूषण ! आपने जो वर माँगा है, यह बहुत बड़ा है, तथापि मैंने कभी दो तरह की बात नहीं की है; इसलिये यह वर अवश्य सफल होगा ॥ 12 ॥

समुत्तिष्ठन्तु ते सर्वे हता ये युधि राक्षसैः।

ऋक्षाश्च सह गोपुच्छैर्निकृत्ताननबाहवः ॥ 13 ॥

 ‘जो युद्ध में मारे गए हैं और राक्षसों ने जिनके मस्तक तथा भुजाएँ काट डाली हैं, वे सब वानर, भालू और लंगूर जी उठें ॥ 13 ॥

नीरुजो निर्व्रणाश्चैव सम्पन्नबलपौरुषाः।

समुत्थास्यन्ति हरयः सुप्ता निद्राक्षये यथा ॥ 14 ॥

 ‘नींद टूटने पर सोकर उठे हुए मनुष्यों की भाँति वे सभी वानर नीरोग, व्रणहीन तथा बल – पौरुष से सम्पन्न होकर उठ बैठेंगे ॥ 14 ॥

सुहृद्भिर्बान्धवैश्चैव ज्ञातिभिः स्वजनेन च।

सर्व एव समेष्यन्ति संयुक्ताः परया मुदा ॥ 15 ॥

 ‘सभी परमानन्द से युक्त हो अपने सुहृदों, बान्धवों, जाति-भाइयों तथा स्वजनों से

मिलेंगे॥ 15 ॥

अकाले पुष्पशबलाः फलवन्तश्च पादपाः।

भविष्यन्ति महेष्वास नद्यश्च सलिलायुताः ॥ 16 ॥

‘महाधनुर्धर वीर ! ये वानर जहाँ रहेंगे, वहाँ असमय में भी वृक्ष फल-फूलों से लद जाएंगे  और नदियाँ जल से भरी रहेंगी ‘ ॥ 16 ॥

सव्रणैः प्रथमं गात्रैरिदानीं निर्व्रणैः समैः।

ततः समुत्थिताः सर्वे सुप्त्वेव हरिसत्तमाः ॥ 17 ॥

इन्द्र के इस प्रकार कहने पर वे सब श्रेष्ठ वानर जिनके सब अंग पहले घावों से भरे थे, उस समय घावरहित हो गए और सभी सोकर जगे हुए की भाँति सहसा उठकर खड़े हो गये॥17॥

बभूवुर्वानराः सर्वे किं त्वेतदिति विस्मिताः।

काकुत्स्थं परिपूर्णार्थं दृष्ट्वा सर्वे सुरोत्तमाः ॥ 18 ॥

अब्रुवन् परमप्रीताः स्तुत्वा रामं सलक्ष्मणम्।

गच्छायोध्यामितो राजन् विसर्जय च वानरान् ॥ 19 ॥

तो मध्‍यप्रदेश में 40 लाख साल पहले विकसित हो चुकी थी मानव सभ्‍यता !

उन्हें इस प्रकार जीवित होते देख सब वानर आश्चर्यचकित होकर कहने लगे कि यह क्या बात हो गयी ? श्रीरामचन्द्रजी का सफलमनोरथ हुआ देख समस्त श्रेष्ठ देवता अत्यन्त प्रसन्न हो लक्ष्मण सहित श्रीराम की स्तुति करके बोले – ‘ राजन् ! अब आप यहाँ से अयोध्याको पधारें और समस्त वानरोंको बिदा कर दें ॥ 18-19 ॥

मैथिलीं सान्त्वयस्वैनामनुरक्तां यशस्विनीम्।

भ्रातरं भरतं पश्य त्वच्छोकाद् व्रतचारिणम् ॥ 20 ॥

 ‘ये मिथिलेशकुमारी यशस्विनी सीता सदा आपमें अनुराग रखती हैं। इन्हें सान्त्वना दीजिए

और भाई भरत आपके शोक से पीड़ित हो व्रत कर रहे हैं, अतः उनसे जाकर मिलिए ॥ 20 ॥

शत्रुघ्नं च महात्मानं मातृः सर्वाः परंतप।

अभिषेचय चात्मानं पौरान् गत्वा प्रहर्षय ॥ 21 ॥

 ‘परंतप! आप महात्मा शत्रुघ्न से और समस्त माताओं से भी जाकर मिलें, अपना अभिषेक करावें और पुरवासियोंको हर्ष प्रदान करें’ ॥ 21 ॥

एवमुक्त्वा सहस्राक्षो रामं सौमित्रिणा सह।

विमानैः सूर्यसंकाशैर्ययौ हृष्टः सुरैः सह ॥ 22 ॥

 श्रीराम और लक्ष्मण से ऐसा कह कर देवराज इन्द्र सब देवताओं के साथ सूर्यतुल्य

सूर्यतुल्य तेजस्वी विमानों द्वारा बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने लोक को चले गए ॥ 22 ॥

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सीख अर्थात शिक्षा

श्रीराम के उपर्युक्त व्यवहार से हमें यह सीख मिलती है कि हमें उन सब लोगों का कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होंने हमारे उपकार किया है। अर्थात कृतज्ञ बनें, कृतघ्न नहीं। एहसानमन्द हों, एहसान फरामोश नहीं।

श्रीराम चरित्र बार-बार लिखा गया है  

दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में श्रीराम चरित्र कई बार लिखा गया और उसके अनेक अनुवाद भी हुए हैं। सबसे प्राचीन उपलब्ध रामायण संस्कृत भाषा में है – वाल्मीकीय  रामायण। गीता प्रेस, गोरखपुर ने महर्षि वाल्मीकि कृत  रामायण का  प्रकाशन (हिन्दी अनुवाद सहित) संवत् 2017 में पहली बार किया  था। दो खण्डों में गीता प्रेस से प्रकशित इस ग्रन्थ का हिन्दी भाषान्तर पाण्डेय पं. राम नारायणदत्त शास्त्री ‘राम’ दवारा किया गया था। तब इसके दोनों खण्डों का मूल्य साढ़े सत्रह रुपए था। तब तक इस ग्रन्थ के बंगला, मराठी, गुजराती आदि देश की अनेक प्रान्तीय भाषाओँ में अनुवाद हो चुके थे। अंग्रेजी, फ्रेंच, आदि विदेशी भाषाओँ में भी इसके अनुवाद हो चुके थे।

संस्कृत में वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त भी कई रामायणें उपलब्ध हैं। जैसे कि आध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, आदि। आध्यात्म रामायण का प्रकाशन भी गीता प्रेस ने किया है उसके हिन्दी अनुवाद सहित। उसका हिन्दी अनुवाद श्री मुनिलाल गुप्त ने किया था, जो कि बाद में संन्यासी हो गए थे। आनन्द रामायण का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद जनवरी 2024 में गीता प्रेस की कल्याण मासिक पत्रिका के विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है।

हिन्दी में सर्वाधिक लोकप्रिय है गीता प्रेस द्वारा प्रकशित गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरित मानस’। इसकी टीका श्रद्धेय श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (1892-1971) ने लिखी। आज के दौर में इस पुस्तक की डिमांड इतनी अधिक है कि गीता प्रेस के लिए उतनी सप्लाई करना मुश्किल हो रहा है।

(इस लेख के लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)