प्रमोद जोशी।
एक ज़माने में मैं बीबीसी की हिंदी और उर्दू प्रसारण सेवाओं का नियमित रूप से सुनता था। सुबह और शाम दोनों वक्त। उर्दू सेवा के दो प्रसारक ऐसे थे, जो हिंदी के कार्यक्रमों में भी सुनाई पड़ते थे। उनमें एक थे शफी नक़ी जामी और दूसरी नईमा अहमद महजूर। कार्यक्रमों को पेश करने में दोनों का जवाब नहीं।
नईमा अहमद कश्मीर से हैं और उनकी प्रसिद्धि केवल बीबीसी की वजह से नहीं है। वे पत्रकार होने के साथ कथा लेखिका भी हैं। हाल में इंटरनेट की यात्रा करते हुए मुझे उनका एक आलेख पाकिस्तान के अखबार इंडिपेंडेंट में पढ़ने को मिला। उर्दू अखबार के लेख को मैं यों तो पढ़ नहीं पाता, पर तकनीक ने अनुवाद और लिप्यंतरण की सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। उर्दू के मामले में मैं दोनों की सहायता लेता हूँ, पर वरीयता मैं लिप्यंतरण को देता हूँ। लिप्यंतरण भी शत-प्रतिशत सही नहीं होता। इस लेख में भी मैंने कुछ जगह बदलाव किए हैं। बहरहाल लिप्यंतरण से जुड़े मसलों और कश्मीर की स्थितियों को समझने की कोशिश में मैंने इस लेख को चुना है। यह लेख काफी ताज़ा है और श्रीनगर के हालात से जुड़ा है। मैं समझता हूँ कि आप भी इसे पढ़ना चाहेंगे।
ड्राइवर दूर से आवाज न देता तो गैर कश्मीरियों की भीड़ में खो जाती
नईमा अहमद महजूर।
1 जुमा, 12 अप्रैल 2024
लंदन में पाँच साल रहने के बाद जब मैंने इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम कश्मीर जाने के लिए एयरपोर्ट की राह इख़्तियार की तो अपने आबाई घर पहुंचने का वो तजस्सुस (जिज्ञासा) और जल्दी नहीं थी, जो माज़ी (अतीत) में दौरां सफ़र मैंने हमेशा महसूस की है।
मेरे ज़हन में 2019 की यादें ताज़ा हैं।
दिल्ली से श्रीनगर का सफ़र कश्मीरी मुसाफ़िरों के साथ हमकलाम होने में गुज़र जाता। आज तय्यारे में चंद ही कश्मीरी पीछे की नशिस्तों पर बैठे थे जबकि पूरा तय्यारा जापानी और इंडियन सय्याहों (यात्रियों) से भरा पड़ा था।
क्या कश्मीरी हवाई सफ़र कम करने लगे हैं या सय्याहों की तादाद के बाइस (कारण) टिकट नहीं मिलता या फिर वो अब महंगे टिकट ख़रीदने की सकत नहीं रखते?
अपने ज़हन को झटक कर मैंने दुबारा पीछे की जानिब नज़र दौड़ाई शायद कोई जान पहचान वाला नज़र आ जाए। जापानी सय्याह मुँह पर मास्क चढ़ाए मज़े की नींद सो रहे थे और इंडियन खिड़कियों से बाहर बरफ़पोश पहाड़ों की फोटोग्राफी में मसरूफ़ थे।
आर्टिकल-370 को हटाने के बाद इंडियन आबादी को बावर (यकीन) कराया गया है कि इस के ज़ेर-ए-इंतज़ाम जम्मू-ओ-कश्मीर को जैसे आज़ाद करा के इंडिया में शामिल कर दिया गया है।
श्रीनगर के एयरपोर्ट से निकल कर अगर मेरे ड्राइवर ने दूर से आवाज़ ना दी होती तो मुझे ग़ैर कश्मीरी भीड़ में खो जाने का एहतिमाल (शंका) था।
एयरपोर्ट कुछ ख़ास बदला नहीं मगर अनजान चेहरे इस्तकबाल के लिए नज़र आते हैं।
घर तक जाने वाले रास्ते नई दुकानों, होटलों और शॉपिंग मॉल्स से भरे पड़े हैं।
सिक्योरिटी फोर्सेस की हर चप्पे पर बंकर और मौजूदगी कम कर दी गई है और पुलिस की सायरन बजाने वाली गाड़ियां ट्रैफिक के बीच में गुज़र कर अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाती हैं।
मैं ख़यालों में पाँच साल पहले के इस रास्ते को तलाश करने लगी जिस पर हुर्रियत के रहनुमाओं समेत मेन स्ट्रीम के बेशतर बादशाहों की झलक देखने को मिलती थी। मेरा ड्राइवर अगर गाड़ी की ब्रेक देकर मुझे झटक ना देता तो मैं सन नव्वे के इन जुलूसों में खो जाती जो अक्सर यहां सिक्योरिटी और अवाम के माबैन शदीद तकरार का बाइस बनते थे।
इस का ज़िक्र करना शजर-ए-मम्नूआ (वर्जित-वृक्ष) है और किताबों में ऐसे सफ़े ग़ायब कर दिए गए हैं। बक़ौल एक दोस्त ‘हमारी तारीख़ पाँच अगस्त 2019 से लिखी जा रही है।’
हर ट्रैफिक सिगनल के सामने दर्जनों भिखारी गाड़ी को तब तक जाने नहीं देते, जब तक आप जेब में से नोट निकाल कर उन के हाथों में नहीं थमा देते।
मैं ये तय नहीं कर सकी कि इन सैकडों भिखारियों को मैं किस ज़ुमरे (श्रेणी) में डालूं? सय्याह या नए बसकेन् दर (बाशिंदे)।
कश्मीर के रंगों में मज़ीद कई रंग शामिल हो गए हैं बिलख़सूस केसरी ने कश्मीर के गुलाबी चेहरों को धो डाला है
बिजली का हर खंभा अब तिरंगा बन चुका है, बेशतर दीवारों पर केसरी रंग चढ़ाने या घर या दुकान की छत पर तिरंगा लहराना एहसास तहफ़्फ़ुज़ की अलामत बन गया है। लगता है कि हर तरफ़ सरसों के लहराते खेतों का रंग हर एक शै पर चढ़ गया है हत्ता कि जेवरात बेचने की एक बड़ी दुकान पर सेल्स गर्ल्स का दुपट्टा भी केसरिया हो गया है।
मुक़ामी शहरियों में कश्मीरी में बात करने की आदत नहीं रही है। बेशतर लोग उर्दू या हिंदी में जवाब देने के क़ायल हो गए हैं। सयाहत का भूत ज़बान को निगल चुका है।
मुझ पर सकता तारी हुआ।
कश्मीरी शिनाख़्त छीनने का मातम करने वाली क़ौम ख़ुद ही मुजरिमों के कठघरे में खड़ी है।
नौजवानों की एक छोटी तादाद को मुस्तक़बिल की नई गलियों में दाख़िल होने का दावा करते सुना।
ये गलियाँ रोशन हैं या तारीक? इस का अंदाज़ा करना मुश्किल है।
कश्मीर की इस भीड़ में चंद इक्का-दुक्का चेहरों पर बेबसी की एक लंबी दास्तान लिखी हुई है, जिनको पढ़ने के लिए अब किसी के पास वक़्त नहीं रहा है।
इंडिया के सौ स्मार्ट शहरों की फ़ेहरिस्त में श्रीनगर शामिल है, जिसके आसार हर दो-गज़ के फ़ासले पर नज़र आते हैं, जैसे चंद बरस पहले हर 10 गज़ पर शिनाख़्ती कार्ड दिखाने की बंदिश होती थी, वो तक़रीबन ख़त्म हो चुका है मगर स्मार्टसिटी के रंगों ने एक नए कश्मीर की बुनियाद डाली है।
अवाम जी-ट्वेंटी के निशानात, तिरंगे में लिपटे रंगीन पुलिस और ट्रैफिक साइनबोर्ड देखने के क़ायल हो गए हैं या कर दिए गए हैं? इस का ताय्युन करने की इजाजत अभी नहीं मिली।
डल झील और दरयाए झेलम के बेशतर हिस्से के दोनों किनारों पर सफ़ाई सुथराई देखकर या पैदल चलने वालों के लिए पाथ बनाने पर दिल्ली मुसर्रत हुई शायद कश्मीर की इस लाइफ़ लाइन को बचाने का अमल शुरू हो गया है। इस इक़दाम के लिए बीजेपी के कई गुनाह माफ़ किए जा सकते हैं।
झेलम फ्रंट की खूबसूरती से लुत्फ़ अंदोज़ होने के बजाय मुक़ामी नौजवानों की सिगरेट नोशी या गाँजा पीते देखकर दिल कराह उठा।
मगर कुत्तों की अच्छी ख़ासी तादाद और छीना झपटी के मुनाज़िर कई बार भागने पर मजबूर भी करती है।
शाम के वक़्त पुलिस और नौ जो नवां के दरम्यान कहीं-कहीं पर तबादला-ए-ख़्याल भी होते देखा, यानी पूछताछ की रिवायत बरक़रार है।
एक सियासतदान ने मुस्कुरा कर कहा ‘वे आर नाट ट आउट आफ़ वोड्स।
चंद रोज़ पहले राजबाग और लाल चौक को मिलाने वाले फूट ब्रिज के ऐन बीच पहुंच कर किसी ने दरयाए झेलम में छलांग लगा कर ख़ुदकुशी की। काफ़ी देर इंतज़ार के बाद मैंने ख़ुदकुशी करने वाले के बारे में पूछा। सबने ख़ामोशी इख़्तियार की जबकि पुलिस ने जो जम्मू-ओ-कश्मीर की कम और किसी दूसरी रियासत की ज़्यादा लगती है शिकारा बूट मंगवा कर ढूंढने की कोशिश की मगर कुछ हाथ नहीं आया। एक रोज़ बाद मालूम हुआ कि इम्तिहान में फ़ेल होने वाले एक तालिब-इल्म ने ख़ुदकुशी की है।
ख़बर सुनने के चंद घंटे के बाद नमाज़ी, पुलिस, सय्याह और नौजवान जा-ए-वारदात से चले गए।
ना किसी दिल में मलाल, ना किसी चेहरे पर अफ़्सुर्दगी और ना कोई आह-ओ-बक़ा ही कर रहा था। शायद दुनिया सफ़्फ़ाक और बे-हिस बन चुकी है, किसी के मरने या मारने से अब कोई असर नहीं होता।
लाल चौक के चारों जानिब जहां शॉपिंग मॉल्स की भरमार हुई है, ग़रीब और मुतवस्सित तबक़े के लिए हर इतवार को संडे मार्केट लगती है। मैंने भी इस मार्केट की भीड़ का हिस्सा बनने की कोशिश में आम लोगों से हालचाल जानना चाहा।
अक्सर लोगों ने अपना हाल बताने से गुरेज़ किया
जिसने बात की इस ने उर्दू या हिंदी में एक मानी-ख़ेज़ हँसी के साथ बोला ‘सब चंगा है।
और जो गली में पहुँच कर मेरे कान में सरगोशी करने लगे वो कह रहे थे कि ये सरज़मीन जासूसी का अड्डा बन चुकी है, जिसमें ‘इधर और इधर के दोनों कैंप बदस्तूर मौजूद हैं। ख़ामोशी से सब अपना काम कर रहे हैं।
पुलवामा ज़िला में, मैंने हमेशा दहशत और ख़ौफ़ झलकता देखा है। गो कि इलाक़े में कारोबारी सरगर्मियां अब काफ़ी बढ़ गई हैं मगर दौरान-ए-सफ़र रोहमू की जानिब मैंने सिक्योरिटी के कारवां को हपड़-धपड़ में जाते हुए देखा
पता चला कि एक गांव में सिक्योरिटी फोर्सेस की छापे की कार्रवाई होने जा रही है, जहां चंद बंदूक़ बर्दारों की कमीन गाह का पता चला है। गांव वालों के चेहरों पर ख़ौफ़ था और कुछ हँसकर कह रहे थे कि ‘अभी सब चंगा नहीं है।
इंडिया के पारलीमानी इंतख़ाबात का असर मीडिया तक महदूद है। बेशतर आबादी को इस से कोई सरोकार नहीं है। अलबत्ता मुक़ामी सियासी जमातों के अपने कारकुनों को दुबारा मुनज़्ज़म करने के इक़दामात नज़र आए। अंदरूनी ख़ुदमुख़तारी को वापिस लाने के वायदे दोहराए जा रहे हैं हालांकि अभी यूनियन टेरीटरी से रियासत का दर्जा नहीं मिला।
एक तरफ़ मुक़ामी जमातों ने बीजेपी को हराने के लिए इंडिया अलायंस के साथ इत्तिहाद किया है लेकिन दूसरी जानिब ऊधमपुर में बीजेपी के साबिक़ वज़ीर और कांग्रेस में शामिल होने वाले चौधरी लाल सिंह को जितवाने की बातें हो रही हैं, जिसने आसिफ़ा की इस्मत रेज़ी और हलाकत के बाद मुजरिमों के हक़ में आवाज़ उठाई थी और जो पीडीपी की हुकूमत गिराने का मूजिब भी बना था।
इस बात को मानना पड़ेगा कि मौजूदा सरकार ने आमद-ओ-रफ़्त को आसान बनाने के लिए बेशतर सड़कें और गली कूचे पुख़्ता बनाए हैं। शहरों में बिजली और पानी दस्तयाब रखा है, डिजिटल टेक्नोलॉजी की मदद से रोज़मर्रा की मुश्किलात को दूर करने के फ़ौरी इंतज़ामात मयस्सर रखे हैं।
माज़ी की मुक़ामी हुकूमतें भी ऐसा कर सकती थीं मगर बददियानती और अक़्रिबा पर्वरी की ऐनक ने उन की आँखों पर पट्टी बांध रखी थी।
बजट का बड़ा हिस्सा सिक्योरिटी के ज़ुमरे में रखकर अवाम को बेशतर बुनियादी सहूलियात से ना सिर्फ महरूम रखा गया बल्कि रोज़-रोज़ की हलाकतों से तशद्दुद का ग्राफ़ हमेशा बढ़ता रहा।
ये कहा जा सकता है कि अवामी हलक़ों में इस वक़्त जितनी नफ़रत मुक़ामी सियासी जमातों के लिए पाई जाती है इस से तीन गुना कम बीजेपी के ख़िलाफ़ है। बाअज़ लोग मौजूदा इंतजामिया से मुतमइन नज़र आए, जिसने तशद्दुद पर क़ाबू और बुनियादी सहूलियात मयस्सर रखने का वायदा किसी हद तक निभाया है।
मैं ये वसूक़ (विश्वास) से कह सकती हूँ कि बीजेपी की हिंदुत्व पॉलिसी ना होती तो इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम जम्मू-ओ-कश्मीर की बेशतर आबादी पार्लीमान की तमाम नशिस्तें बीजेपी के नाम कर देतीं।
(पाकिस्तान के उर्दू अखबार इंडिपेंडेंट की वैबसाइट में प्रकाशित)