समय का पहिया घूमकर फिर वहीं आ गया।
प्रदीप सिंह।
कई बार ऐसा होता है कि समय का पहिया घूमकर फिर वहीं पर पहुंच जाता है, जहां से चला था। कांग्रेस के साथ यही हो रहा है। अगर कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर नजर डालें तो आपको यह स्पष्ट रूप से दिखाई भी देगा।
जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद 1967 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें 1962 की तुलना में काफी घट गईं थीं । 1962 में कांग्रेस को 361 सीटें मिली थीं। 1967 में सीटें घटकर 283 रह गईं। 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे। 1967 में 11 राज्यों में कांग्रेस चुनाव हार गई। जिन राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला वहां कांग्रेस से निकलकर विधायकों ने दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर सरकारें बनाई, जो संयुक्त विधायक दल की सरकारें कहलाईं। चूंकि उस समय कोई दलबदल कानून नहीं था तो 1967 से 1971 के बीच लगभग 4000 विधायकों ने दलबदल किया। यह एक रिकॉर्ड है।

1967 का लोकसभा चुनाव भारत की राजनीति में एक टर्निंग पॉइंट था। 1969 में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। एस निजलिंगप्पा उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड ने तय किया कि नीलम संजीव रेड्डी पार्टी के उम्मीदवार होंगे। इस पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लगा कि वह उनके विरोधी गुट के उम्मीदवार हैं। उस समय वीवी गिरी उपराष्ट्रपति थे। उन्होंने पद से इस्तीफा दिया और निर्दलीय के रूप में चुनाव में उतर गए। कांग्रेस पार्टी ने व्हिप जारी किया कि सारे सदस्य पार्टी के ऑफिशियल कैंडिडेट नीलम संजीव रेड्डी को वोट देंगे। उधर इंदिरा गांधी ने अपील जारी कर दी कि कांग्रेस सदस्य अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें। यानी उनका सीधे-सीधे कहना था कि व्हिप को मत मानिए। अपील का असर यह हुआ कि वीवी गिरी जीत गए। यह कांग्रेस में विभाजन का कारण बना। इससे इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई। बहुमत और अपनी सरकार बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने कम्युनिस्ट पार्टी का सहारा लिया। इस समर्थन के बदले उन्होंने देश के सारे शैक्षणिक संस्थान कम्युनिस्टों के हवाले कर दिए। जो स्वभाव से सनातन विरोधी, भारतीय संस्कृति के विरोधी और राष्ट्रवाद के विरोधी थे। इसी के साथ कांग्रेस ने नैरेटिव का काम भी कम्युनिस्ट पार्टी को आउटसोर्स कर दिया। तो कांग्रेस के बचाव में कम्युनिस्ट पार्टियां बोलने लगीं। उस समय से आज तक कांग्रेस इससे मुक्त नहीं हो पाई। देश की कई पीढ़ियों को उसका नुकसान भुगतना पड़ा। लेकिन अब समय बदल रहा है। अब कम्युनिस्ट धीरे-धीरे इन शिक्षण संस्थाओं से बाहर हो रहे हैं। इसलिए कम्युनिस्टों से ज्यादा कांग्रेस पार्टी को दर्द हो रहा है।
इंदिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव कराया और तभी से लोकसभा और विधानसभा का चुनाव साथ-साथ होने का क्रम भी टूट गया। इसके बाद कांग्रेस पार्टी और इंदिरा गांधी कम्युनिस्टों पर और ज्यादा निर्भर हो गईं। सोनिया गांधी भी उसी रास्ते पर चलीं बल्कि वे तो लेफ्ट की बजाय अल्ट्रा लेफ्ट की तरफ चली गईं। लेफ्ट इको सिस्टम और भारत विरोधी शक्तियों ने जो एनजीओ पैदा किए थे,वे सब सोनिया गांधी के पीछे खड़े हो गए। 2004 में जब कांग्रेस सरकार बनी तो उसके बाद क्या हुआ सबने देखा है। किस तरह से नेशनल एडवाइज़री कमेटी बनी,जो पैरेलल सरकार थी। मनमोहन सिंह केवल नाम के प्रधानमंत्री थे। नेशनल एडवाइज़री कमेटी जो तय करती थी,वह उस पर मोहर लगाते थे।

जब राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा बने तो राजनीतिक नेताओं में उनके सबसे करीब अगर कोई रहा तो वह थे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी। हालांकि सीताराम येचुरी और प्रकाश करात जैसे नेताओं के दौर में सीपीएम का ग्राफ पश्चिम बंगाल,त्रिपुरा और केरल जैसे राज्यों में तेजी से गिरा। लेकिन राहुल का उन्हीं से संवाद होता था। अपनी पार्टी में तो राहुल किसी को कुछ नहीं समझते। यहां तो मालिक और नौकर का हिसाब है। नौकर बनकर मालिक को सलाम बजाओगे तो ठीक है, नहीं तो बाहर जाओ। अब सीताराम येचुरी रहे नहीं तो कांग्रेस और खासतौर से राहुल गांधी विदेशी एजेंट्स या भारत विरोधी विदेशी इको सिस्टम के भरोसे हैं।
अब उनके नए सलाहकार बने हैं सीपीआई एमएल नेता दीपांकर भट्टाचार्य। राहुल की उन्हीं से बातचीत होती है और उनके साथ रणनीति बनती है। अब राहुल गांधी इस बात से पूरी तरह से कन्विंस्ड हैं कि वे चुनाव हार नहीं रहे हैं। उन्हें चुनाव हराया जा रहा है। हालांकि उनके पास इस सवाल का आज तक जवाब नहीं है कि 2014 में जब उन्हीं की सरकार थी और उनकी मां डिफेक्टो प्राइम मिनिस्टर थीं, तब कैसे कांग्रेस चुनाव हार गई। तो राहुल गांधी को जवाबदेही से बचने का एक बहाना चाहिए। बुधवार को लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा भी था कि एक दिन आएगा जब कांग्रेस के लोग राहुल गांधी से जवाब मांगेंगे कि बताओ क्यों हार रहे हैं।

तो 1967 में जो हुआ था उसी हालत में कांग्रेस पार्टी फिर आ गई है। बस इंदिरा गांधी से राहुल गांधी को रिप्लेस कर दीजिए। इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने के लिए कम्युनिस्टों से समझौता किया,लेकिन नैरेटिव पर हमेशा के लिए कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया। अब राहुल अपनी पार्टी बचाने के लिए कम्युनिस्टों से समझौता कर रहे हैं। हालांकि इंदिरा गांधी तक कांग्रेस पार्टी का संगठन पूरे देश में मजबूत था और वह खुद जनाधार वाली नेता थीं। ये दोनों बातें इस समय नहीं हैं। न तो कांग्रेस पार्टी का संगठन मजबूत है और न राहुल गांधी का कोई जनाधार बचा है।
राहुल गांधी जिस रास्ते पर चल रहे हैं उनको मालूम ही नहीं है कि वह रास्ता उनको कहां ले जाएगा। उनके जीवन में कोई कमी नहीं है। कोई समस्या नहीं है। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उन्हें यह आश्वासन मिल जाए कि कुछ भी हो जाए आपको जेल नहीं जाने देंगे तो वह जिस हाल में हैं, उसी में मस्त रहेंगे।
राहुल गांधी ने सलाहकार के लिए जिस सीपीआई एमएल नेता को खोजा है, उसकी अपनी पार्टी का वजूद केवल बिहार की गिनी चुनी सीटों पर है। जिसके पास खुद खड़े होने की जमीन नहीं है,उससे राहुल गांधी यह शिक्षा ले रहे हैं कि कैसे जमीन तैयार की जाए। तो आप समझ सकते हैं कि राहुल गांधी का और कांग्रेस का भविष्य क्या होने वाला है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



