प्रदीप सिंह।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जब से जेल गए हैं, या कहें ईडी की कस्टडी में गए हैं, उसके बाद से लगातार इस बात की कोशिश हो रही है कि क्या जेल में रहते हुए वह मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं।
केजरीवाल को मालूम है कि वह जेल में रहकर मुख्यमंत्री पद पर बने रह सकते हैं लेकिन सरकार नहीं चला सकते। ऐसे में सारा मामला चला जाएगा उपराज्यपाल (एलजी) के पास। एलजी को तय करना पड़ेगा कि क्या कांस्टीट्यूशनल मशीनरी का ब्रेकडाउन हो गया है। अगर एलजी को ऐसा लगता है तो वह मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर सकते हैं या उनको निर्देश दे सकते हैं कि वह अपनी पार्टी विधायक दल का नया नेता चुनें और कार्यवाहक मुख्यमंत्री या फुल टाइम मुख्यमंत्री बनाएं। ऐसे में एक व्यक्ति की जरूरत होगी जो मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल सके। उसकी पहली और आखिरी शर्त है कि वो अरविंद केजरीवाल के विश्वास का होना चाहिए।
केजरीवाल को अपनी पार्टी के किसी नेता पर भरोसा नहीं है यह बात पिछले कुछ दिनों से बहुत स्पष्ट रूप से सामने आ रही है। वह अपनी पत्नी सुनीता केजरीवाल को दिल्ली के भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने और उनकी छवि उस रूप में पेश करने की लगातार कोशिश करवा रहे हैं। और सुनीता केजरीवाल सक्रिय रूप से इसमें लगी हुई हैं। पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी के दो मंत्री मीडिया में अति सक्रिय थे- आतिशी सिंह और सौरभ भारद्वाज। अब वो नेपथ्य में चले गए हैं। सुनीता केजरीवाल फोरफ्रंट पर हैं। दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को विपक्षी दलों की जो रैली हुई उसमें भी सुनीता केजरीवाल मंच पर सोनिया गांधी के साथ बैठी हुई नजर आई। इसके अलावा जेल से और उससे पहले ईडी की कस्टडी से अरविंद केजरीवाल का संदेश लेकर वह वीडियो संदेश के जरिए जनता के बीच आती रही हैं।
गुरुवार को उनका संदेश थोड़ा बदला हुआ था। बल्कि संदेश नहीं, कहना चाहिए संदेश का जो वीडियो शूट हुआ उसका बैकग्राउंड बदला हुआ था। इससे पहले वह वहीं से उसी कुर्सी पर बैठकर बोलती थीं जहां से अरविंद केजरीवाल बोला करते थे। पीछे दो चित्र होते थे। एक शहीद भगत सिंह का और दूसरा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का। आज तीसरा चित्र भी नजर आया इन दोनों के बीच में और वह था सलाखों के पीछे अरविंद केजरीवाल का। संदेश क्या है? क्या यह बताने की कोशिश है कि अरविंद केजरीवाल का कद राजनीति में शहीद भगत सिंह और डॉक्टर अंबेडकर के बराबर है। उनका राजनीतिक स्टेचर बढ़ाने की कोशिश हो रही है। उनको राजनीतिक शहीद दिखाने की कोशिश हो रही है। विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश हो रही है। दिखाया जा रहा है कि ऐसी परिस्थिति बन गई है कि सुनीता केजरीवाल को यह जिम्मेदारी संभालने को मजबूर होना पड़ा है।
सुनीता के केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेगी या नहीं बनेंगी- यह मुझे मालूम नहीं है। लेकिन आम आदमी पार्टी की जो पूरी कोशिश है- और जिस तरह से घटनाक्रम चल रहा है- उसमें आम आदमी पार्टी के विधायकों और उसके नेताओं ने उनको एक तरह से केजरीवाल की उपस्थिति में नेता के रूप में स्वीकार कर लिया है। दो-तीन दिन पहले आम आदमी पार्टी के सारे विधायक जाकर सुनीता केजरीवाल से मिले। हालांकि उसके बाद संदेश यह दिया गया कि वो यह कहने गए थे कि हमारे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल थे, हैं और रहेंगे।
सवाल यह नहीं कि अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री रहेंगे या नहीं। अगर उनको अदालत से राहत नहीं मिलती है, वह जमानत पर छूटते नहीं हैं तो उनका मुख्यमंत्री बने रहना लगभग असंभव है। उनको मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना ही पड़ेगा। तो, कोई नया मुख्यमंत्री चाहिए। अगर अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के लोग कोई नया मुख्यमंत्री नहीं चुनते हैं, उस प्रक्रिया को पूरा नहीं करते हैं, तो लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) के सामने दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा
सुनीता केजरीवाल का राजनीतिक भविष्य क्या है? अगर अतीत पर नजर डालें तो ऐसे दो उदाहरण मिलते हैं जब दो मुख्यमंत्रियों ने अपनी पत्नी को विरासत सौंपने की कोशिश की। एक लालू प्रसाद यादव और दूसरे एनटी रामाराव। लालू प्रसाद यादव जब जेल जाने लगे तो राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। एनटी रामाराव का जब स्वास्थ्य खराब हो गया तब उन्होंने लक्ष्मी पार्वती को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की कोशिश की। उनकी पार्टी हाईजैक करके चंद्रबाबू नायडू ले जा चुके थे और मुख्यमंत्री थे। लक्ष्मी पार्वती के नेतृत्व में पार्टी के उस गुट का पहला चुनाव लड़ा और वो उनका आखिरी चुनाव साबित हुआ। उसके बाद उनका राजनीतिक करियर खत्म हो गया।
बिहार में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं। 1995 का बिहार विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया और राष्ट्रीय जनता दल अपने गठन के इतिहास में पहली बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल कर पाया। ना उसके पहले कर पाया था, ना उसके बाद कर पाया। उसके बावजूद राबड़ी देवी का राजनीतिक करियर बहुत लंबा नहीं चला।
अब प्रश्न यह है कि सुनीता केजरीवाल का राजनीतिक भविष्य क्या है? लक्ष्मी पार्वती जैसा, या राबड़ी देवी जैसा। दोनों में कोई भी स्थिति हो सकती है और इसमें बहुत लंबा समय नहीं है। दिल्ली विधानसभा का चुनाव जनवरी 2025 में होना है और हम इस समय जब बात कर रहे हैं तो अप्रैल 2024 में हैं। ईडी ने अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के खिलाफ दिल्ली शराब घोटाले का जिस तरह का पुख्ता केस बनाया है, जितने प्रमाण मिले हैं, जिस तरह की मनी ट्रेल मिली है, सबूत मिले हैं, जैसी गवाहियां हैं- उन सबको देखते हुए इस बात की प्रबल संभावना है कि अरविंद केजरीवाल 2025 जनवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव तक जेल में ही रहेंगे। जेल में रहेंगे तो उनको कोई ना कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए जो अगर मुख्यमंत्री नहीं भी बनता है तो पार्टी का नेतृत्व करे, जिसे चुनाव में भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जा सके।
अरविंद केजरीवाल को अपनी पत्नी के अलावा पार्टी के किसी नेता पर भरोसा नहीं है। उनको मालूम है कि किसी और नेता को मुख्यमंत्री बनाना तो आसान होगा, लेकिन हटाना बहुत कठिन होगा। इसके बहुत सारे उदाहरण राजनीति में मिलेंगे जब किसी को कमजोर या अपना समझकर या अपना फॉलोअर समझकर मुख्यमंत्री या किसी पद पर बिठाया गया और बाद में उसने हटने से मना कर दिया। सबसे पहला उदाहरण है इंदिरा गांधी का। जब सिंडिकेट ने यह समझकर कि वह उनके कब्जे में रहेंगी, उनके कंट्रोल में रहेंगी, उनके मुताबिक चलेंगी, देश का प्रधानमंत्री बनाया था। और उसके बाद क्या हुआ आपको पता है। इसी तरह से बिहार में नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। मुश्किल से साल, सवा साल बीता होगा नीतीश कुमार को समझ में आ गया कि अब जीतन राम माझी को हटाने का समय आ गया है। उनको हटाने में उनको बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। वो एक तरह से नीतीश कुमार से प्रतिस्पर्धा में आ गए थे।
तो कोई भी पद पर आने के बाद उस तरह की वफादारी नहीं दिखाता जैसी वफादारी की उम्मीद करके उसे पद सौंपा जाता है- यह बात अरविंद केजरीवाल से बेहतर कोई नहीं जानता है। उनको अच्छी तरह से पता है कि अपनी पार्टी के किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो उसको बनाना उनके लिए आसान होगा लेकिन हटाना बहुत कठिन होगा। ऐसे में सुनीता केजरीवाल को एक विक्टिम के रूप में, सताई गई महिला के रूप में, एक ऐसी महिला जिसके पति को पॉलिटिकल वेंडेटा के तहत एक फर्जी केस में फंसाकर जेल भेज दिया गया है- यह नैरेटिव बनाने की कोशिश होगी। सहानुभूति जुटाने की कोशिश होगी। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को लगता है कि यह कार्ड चल सकता है। लेकिन अरविंद केजरीवाल के जेल जाने से कोई सहानुभूति नहीं उपजी। जब उनको कस्टडी में लिया गया तब भी नहीं, जेल चले गए तब भी नहीं। अगर उनको अदालत से कोई राहत नहीं मिलती है तब भी कोई सिंपैथी नहीं मिलने वाली है। लेकिन सुनीता केजरीवाल के महिला और अरविंद केजरीवाल की पत्नी होने के कारण सहानुभूति मिल सकती है। ऐसी उम्मीद अरविंद केजरीवाल और उनके रणनीतिकारों को है। लेकिन ऐसा राजनीति में होता नहीं है। मैं नहीं कह रहा हूं कि सहानुभूति नहीं मिलती। बहुत से नेताओं को लगता है कि जेल जाने से उनका फायदा होता है, उनकी लोकप्रियता बढ़ती है, जनाधार बढ़ता है। लेकिन ऐसे नेताओं का… जिनकी छवि ईमानदार नेता की हो। जिनके बारे में लोगों की यह धारणा बने कि इनको सताया जा रहा है। राजनीतिक बदले की कार्रवाई के तहत फंसाया गया है, जेल भेजा गया है। उनको जरूर सहानुभूति मिलती है। अरविंद केजरीवाल के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं है। दिल्ली के लोगों ने यह स्वीकार कर लिया है कि अरविंद केजरीवाल ने कुछ ना कुछ गड़बड़ किया है। दिल्ली में शराब घोटाला हुआ है। शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के लोग इवॉल्व हैं, यह मान लिया है। बात केवल यह है कि क्या अरविंद केजरीवाल भी उतने ही हिस्सेदार हैं- इसके बारे में लोग अभी अरविंद केजरीवाल को बेनिफिट ऑफ डाउट देने को तैयार नहीं हैं।
अब सवाल यह है कि संजय सिंह जेल से छूट चुके हैं। पार्टी के वरिष्ठता क्रम में अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया के बाद तीसरे नंबर पर हैं। संजय सिंह सहायक बनेंगे सुनीता केजरीवाल के, या रोड़ा बनेंगे। यह प्रश्न अभी हल होना बाकी है। संजय सिंह को लग सकता है कि यह उनके लिए सबसे सुनहरा मौका है पार्टी और सरकार दोनों पर काबिज होने का। देखिए, राजनीति में जब नेता की महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो बड़ी निर्ममता से काम करती है। जेल से छूटने के बाद संजय सिंह सीधे अरविंद केजरीवाल के घर गए और सुनीता केजरीवाल के पैर छुए, इसको उनकी वफादारी का सबूत मत समझ लीजिए। वह पहले दिन से यह संदेश नहीं देना चाहते कि वह सुनीता केजरीवाल के प्रतिद्वंद्वी हैं, प्रतिस्पर्धी हैं। इसलिए वह तब तक चुप रहेंगे जब तक वैकल्पिक व्यवस्था का सवाल नहीं आता। जब अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा होगा और नया नेता चुनने का मौका आएगा- तब पता चलेगा कि संजय सिंह की निष्ठा किस तरफ है?
(विस्तार से जानने के लिए वीडियो देखें)
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)