#pradepsinghप्रदीप सिंह।
चोट कई तरह की होती है। उसमें एक किस्म होती है जिसको गुम चोट कहते हैं। गुम चोट यानी अंदरूनी चोट। वह बाहर से दिखाई नहीं देती। आप किसी को बता नहीं सकते कि कहां पर चोट लगी है। उसका कोई निशान नहीं होता। लेकिन दर्द बहुत ज्यादा होता है और ज्यादा लंबे समय तक चलता है। गुम चोट का दर्द वही महसूस कर सकता है जिसे वह लगती है। उसपर दिक्कत यह कि दूसरों की सहानुभूति मिलने में भी मुश्किल होती है। चोट सामने दिखाई दे तो लोगों की सिंपैथी थोड़ा ज्यादा होती है, जल्दी हो जाती है। चूंकि गुम चोट दिखाई नहीं दे रही इसलिए उसका एहसास जिसको चोट लगी हो वह तो समझ सकता है, बाकी के लिए मुश्किल होता है। अपने देश में मुस्लिम समाज को ऐसी ही गुम चोट लगी है।

अब आप सोचिए कि किस तरह के मामले को उन्होंने इस गुम चोट का मुद्दा बना लिया। भारतीय क्रिकेट टीम चैंपियंस ट्रॉफी जीत गई। ट्रॉफी भारत आ गई। इसमें उनके दर्द का कारण क्या है? दर्द का पहला कारण है कि पाकिस्तान, जो होस्ट नेशन था, इस दौड़ से पहले ही बाहर हो गया था। वह फाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया। सवाल है कि भारत के मुसलमानों का पाकिस्तान से क्या लेना देना? उनसे क्यों सिंपैथी होनी चाहिए? उनकी सिंपैथी तो भारत की टीम से होनी चाहिए। लेकिन घटनाएं बताती हैं कि भारत की टीम की तुलना में उनकी सिंपैथी पाकिस्तान की टीम से ज्यादा है। यहां तक भी बात समझ में आ सकती है कि दोनों देश एक समय एक ही थे। बंटवारे के बाद दो अलग देश बने। अब उसके इतिहास में नहीं जाते हैं कि क्या हुआ- कैसे हुआ- बहुत से रिश्तेदार उनके यहां हैं- और यहां वालों के वहां रिश्तेदार हैं। मजे की बात यह कि इस मैच में तो फाइनल में न्यूजीलैंड हारा। तो सवाल इसका नहीं कौन हारा। उनके लिए सवाल यह है कि जीता कौन? कोई जीत जाए- अगर न्यूजीलैंड जीत गया होता तो आपको यह सब देखने को नहीं मिलता। भारत जीत गया और भारत कहां जीता दुबई में, एक मुस्लिम देश में। जो यह गुम चोट जो लगी है उसकी असली समस्या है कि रमजान के महीने में भारत की- यानी काफिरों की- जीत हुई है। यह स्वीकार करने की इस्लाम उनको इजाजत नहीं देता- ऐसा बहुत से मुस्लिम लोगों का कहना है।

इंदौर के महू में जो हुआ वो सिर्फ इसलिए हुआ कि भारत की टीम जीती है। अब रमजान के महीने को बड़ा पाक महीना बताया जाता है। होगा भाई, मुझे इस्लाम की जानकारी नहीं है इसलिए आधिकारिक रूप से इसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं कह सकता। लेकिन जितनी जानकारी पब्लिक डोमेन में है, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है, उसके आधार पर कह रहा हूं रमजान का महीना इस्लाम के नजर में जिहाद का महीना है। इसी महीने में जंगे बद्र हुई थी जब मक्का में मोहम्मद साहब की जीत हुई थी। इस्लाम के पूरे इतिहास में जितना खून खराबा रमजान के महीने में हुआ है, उतना खून खराबा शायद ही और किसी कालखंड में हुआ हो। इसका गवाह इतिहास है- ऐतिहासिक घटनाएं हैं।

जिन्ना ने भारत में 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे की कॉल दी थी। वह रमजान का महीना था। पाकिस्तान का निर्माण हुआ। वह रमजान का महीना था, रमजान का 27वां दिन था। अब इसके कारण बेचैनी बहुत ज्यादा है। बात यह नहीं कि मैच में क्या हुआ? बात यह है कि रमजान के महीने में काफिरों की जीत हो गई और रमजान के महीने में काफिरों पर ही हासिल की थी मोहम्मद साहब ने जंगे बद्र। उसको याद रखिए तो समझने में थोड़ी आसानी हो जाएगी।

महू में जो हुआ उसकी तैयारी बहुत पहले से थी। वे पहले से तैयार थे कि अगर भारत जीता तो जाहिर है भारत के लोग खुशी मनाएंगे, जुलूस निकालेंगे। जुलूस अगर मस्जिद के सामने से गुजरेगा तो यह मंजूर नहीं है। ऐसे समय पर गंगा जमुनी तहजीब की बात करने वाले पता नहीं किस चूहे की बिल में घुस जाते हैं। वो सामने आकर बोलने की हिम्मत नहीं करते कि यह गलत है। अगर साथ रहना है तो देश की उपलब्धि को आप कैसे नहीं मानेंगे। देश की उपलब्धि को केवल हिंदुओं की उपलब्धि मान लेना कौन सी संस्कृति है, सभ्यता है। कौन सा मजहब है जो इस तरह से सिखाता है यह बात समझने की जरूरत है। यह गंगा जमुनी तहजीब की बात करने वाले सबसे ज्यादा हिंदू हैं। मुसलमानों से भी ज्यादा। मुसलमानों को पता है कि यह गंगा जमुनी तहजीब कुछ नहीं होती है। इससे बड़ा फ्रॉड, इससे बड़ी बकवास, और कुछ नहीं है। अगर गंगा जमुनी तहजीब जैसी कोई चीज लेशमात्र भी होती तो देश का बंटवारा ना होता। बंटवारा किस आधार पर हुआ? जिन्ना ने कहा हम अलग हैं हम हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते। इसलिए देश का बंटवारा हुआ। देश के बंटवारे के बाद इस तरह की बात करने वाली एक बड़ी जमात पैदा हुई जिनकी राजनीति इसी पर चलती है। इस राजनीति का, बल्कि मैं कहता हूं इस रणनीति का इस्तेमाल हिंदुओं को चुप कराने के लिए होता है।

चाहे आप इंदौर में देखिए, संभल में देखिए या देश के दूसरे शहरों में देखिए- जब जब हिंदुओं का त्यौहार आता है तब तब मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग में परेशानी पैदा हो जाती है। 14 तारीख को होली है। इत्तफाक से जिस दिन होली पड़ रही है उसी दिन जुम्मे की नमाज का दिन है और रमजान का महीना भी है। कहा जा रहा है कि होली को स्थगित कर दीजिए। दरभंगा की मेयर अंजुम आरा ने एक नायाब सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि 12:30 से 2 बजे तक होली रोक दी जाए ताकि जुमे की नमाज पढ़ी जा सके। अब इस तरह की बात करने वाला भारत जैसे सेक्युलर देश में क्यों रहता है- यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए। वह मेयर जनता दल यूनाइटेड की है। पार्टी ने उनको कारण बताओ नोटिस (शो कॉज नोटिस) दे दिया पार्टी से निकालने का। आज से 10 साल पहले आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह है बदलाव। जो लोग पूछते हैं कि क्या बदला है? संभल के सीओ ने तथ्यात्मक रूप से 100 फीसद सही बात कही है कि भाई जुम्मा तो हर हफ्ते आता है, होली साल में एक बार आती है। अगर रंग पड़ जाएगा तो आपका मजहब कैसे खतर में आ जाएगा।

अच्छा मान लीजिए कि आपको लगता है कि रंग पड़ने से आपका मजहब खतरे में आ जाएगा तो आप मजहब को बचाने के लिए एक दिन घर से ना निकलिए। ऐसा तो है नहीं कि आप नमाज घर में कभी पढ़ते नहीं हैं। पांच नमाज रोज की होती हैं। उसमें भी हफ्ते में एक दिन एक ही नमाज- दोपहर की नमाज- मस्जिद में जाकर पढ़ते हैं। बाकी तो घर में ही पढ़ते हैं।

अब दूसरा फर्क देखिए। उत्तर प्रदेश में मौलानाओं ने लखनऊ में अपनी ओर से पहल कर कहा कि जुम्मे की नमाज दोपहर 2 बजे के बाद पढ़ी जाएगी, जब रंग की होली रुक जाती है। डेढ़ से दो बजे तक रंग की होली रुक जाती है। प्रशासन भी हमेशा से दोपहर के बाद होली खेलने से लोगों को रोकता है कि आप बस कीजिए और लोग भी रुकते हैं। उसके बाद नहा धोकर, खाना खाकर, शाम को फिर अबीर गुलाल की होली होती है। लोग रिश्तेदारों से, दोस्तों से से मिलने जुलने जाते हैं। तो जो त्यौहार साल में एक दिन पड़ता है उसके लिए आप दो घंटे रुकने को तैयार नहीं हैं। आप कहते हैं कि होली रोक दी जाए। आप कहते हैं कि भारत की जीत हो तो विजय जुलूस मत निकालो। और विजय जुलूस निकालना है तो मस्जिद के सामने से मत निकालो। तो संभल के प्रशासन ने उसका हल निकाला कि भाई होली के दिन- बल्कि होली से पहले ही- मस्जिदों को ढक दिया जाएगा। रंग नहीं पड़ेगा तो आपका मजहब खतरे में नहीं पड़ेगा।

आप साल में एक बार आने वाला हिन्दू त्यौहार बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं और भाईचारे की बात करते हैं। यह भाईचारे का लक्षण तो नहीं है। रमजान के दौरान जुम्मे नमाज हो या किसी और समय… जुम्मे की नमाज मस्जिद में पढ़ी जाए यह कहीं इस्लाम में, कुरान में लिखा हुआ नहीं है। लोग हफ्ते में एक बार सम्मिलित रूप से इकट्ठा होकर नमाज पढ़ें और उसके लिए मस्जिद ही सबसे बेहतर और सुविधाजनक स्थान है इसलिए नमाज मस्जिद में पढ़ी जाती है। लेकिन मस्जिद में नमाज पढ़ने कितने मुसलमान जाते हैं? और जो नहीं जाते वो क्या मुसलमान नहीं रह जाते? सबसे ताजा उदाहरण कोरोना के दौरान का है। कोरोना में हर हफ्ते जुमा आता था, कौन मस्जिद में नमाज पढ़ने जाता था।

तो यह जो हो रहा है वह सिर्फ हिंदुओं को यह बताने के लिए कि हमने 800 साल इस देश पर राज किया है। इससे भी बड़ी गुम चोट है कि जो दारुल इस्लाम था, वह दारुल हरब बन गया है… और यह हमारा मजहबी कर्तव्य है कि हम इसको फिर से दारुल इस्लाम बनाएं। इसके लिए महू में जब हिंदुओं की दुकाने और गाड़ियां जलाई जा रही थीं, उनके घरों पर, मंदिर पर पथराव हो रहा था तब दंगाई कह रहे थे कहां है तुम्हारा भगवान? उसको बोलो आके बचाए। शोले फिल्म का डायलॉग है कि गब्बर से तुमको सिर्फ गब्बर बचा सकता है। उसी तर्ज पर मुस्लिम समाज यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि हमसे सिर्फ हम ही तुमको बचा सकते हैं, तुम कमजोर हो हम ताकतवर हैं।

तो आप ताकतवर कैसे हैं… क्योंकि आप दंगा कर सकते हैं? आज से नहीं कई साल से, औरंगजेब और उसके पहले से जिस तरह की हरकतें हो रही है, घटनाएं हो रही हैं उनके बरक्स देखें तो आप अमन पसंद तो कतई नहीं हैं। इतिहास को देखना शुरू करें उससे एक बात तय है कि हिंदू मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है और हिंदुओं का त्यौहार तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है।

तमिलनाडु में चेन्नई से कुछ दूर एक गांव में कस्बा था। वहां मुसलमानों की आबादी 80% से ज्यादा हो गई तो उन्होंने कहा कि मंदिर में पूजा पाठ और साल में दो बार निकलने वाला जुलूस स्थाई रूप से बंद होना चाहिए। हम इसे नहीं होने देंगे। और स्थानीय प्रशासन ने इसको मान लिया, कहा कि इसको इंप्लीमेंट कराएंगे। इसके लिए शासनादेश जारी हो जाए इसके लिए मुस्लिम पक्ष कोर्ट गया। हाईकोर्ट ने कहा यह कैसे हो सकता है? अगर ऐसा हो गया तो देश में अराजकता आ जाएगी। अगर इसी तरह की मांग हिंदू पक्ष करने लगा तो कौन सा मुसलमान अपना कौन सा त्यौहार मना पाएगा। इस मामले पर मद्रास हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया उसका प्रचार प्रसार पूरे देश में होना चाहिए। ,बच्चे बच्चे को उसका पता होना चाहिए। मद्रास हाई कोर्ट ने अपने फैसले में स्थानीय प्रशासन को, सरकार को आदेश दिया कि साल में दो बार जो शोभा यात्रा निकलती है वह उसी तरह से निकलेगी और इस इलाके के हर रास्ते से गुजरेगी। मस्जिद के सामने से भी गुजरेगी, मुस्लिम बहुल इलाकों से भी गुजरेगी और जो संगीत बजता है उसके साथ गुजरेगी। शंख और घंटे का नाद होगा। यह सुनिश्चित करने प्रशासन की जिम्मेदारी है कि इसमें कोई गड़बड़ी ना हो।

सेकुलरिज्म का मतलब तो यह हुआ कि सबको अपने धर्म का पालन करने की छूट हो। एक पर प्रतिबंध और एक को खुली छूट- यह सेकुलरिज्म की किस परिभाषा में आता है?

इस देश में पहली बार होली हो रही है क्या? सदियों से होली होती आई है। तब से होती आई है जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था। वोट बैंक की खातिर नए-नए पैरोकार पैदा हुए हैं अलगाववादी और हिंदू विरोधी मानसिकता के, यह उनको सबक सिखाने का समय है। जनतंत्र में सबक सिखाने का एक ही तरीका है- वह है वोट। नेताओं को केवल वोट की चोट समझ में आती है। आप कुछ भी बोलते रहिए, कुछ भी करते रहिए, कोई फर्क नहीं पड़ता है। जो थोड़ा बहुत फर्क पड़ता है वह केवल वोट की चोट से ही पड़ता है। यह वोट की चोट सिर्फ एक बार या कभी कभार होगी तो समझ में नहीं आएगा। जब यह लगातार होने लगेगी तो उनको समझ में आ जाएगा कि हिंदू विरोध करने पर वोट नहीं मिलेगा। तो इसकी तैयारी कीजिए। किस पार्टी को वोट दीजिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जो हिंदू विरोधी हैं उनको बिल्कुल ना दीजिए। जिस दिन इस देश का हिंदू यह ठान लेगा उस दिन देश में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा।
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आपका अखबार के संपादक हैं)