ब्रिटिश लेखक ने पत्रों को सार्वजनिक करने के लिए खटखटाया है अदालत का दरवाजा।
प्रदीप सिंह।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन के बीच संबंध और उनके बीच का पत्र व्यवहार आज तक रहस्य बना हुआ है। क्यों रहस्य बना हुआ है, उनमें क्या है और उनका ताजा संदर्भ क्या है? ताजा संदर्भ यह है कि ब्रिटेन की सरकार इस बात से भयाक्रांत, भयभीत है कि अगर ये पत्र सार्वजनिक हो गए तो क्या होगा? क्यों डरी हुई है ब्रिटेन की सरकार? क्यों दो व्यक्तियों के पत्राचार या उनकी डायरी के सार्वजनिक होने से एक संप्रभु देश को डर लग रहा है, उसकी सरकार को डर लग रहा है? ये डर क्या है और ऐसा क्या है उस डायरी में या उस पत्राचार में या उस दस्तावेज में जिसको छिपाने की कोशिश हो रही है?
रहस्य छिपाने की कोशिश
अतीत के जितने भी रहस्य हम छिपाने की कोशिश करें मनुष्य की उत्सुकता उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है उसे जानने के लिए। यही एक कारण है या यह भी एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से लगातार इस बात की कोशिश हो रही है जानने की कि जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन के संबंध क्या थे। यह किसी से छिपा नहीं है। सबको पता है कि उन दोनों के बीच में संबंध थे और दोनों ने इस बात को स्वीकार किया था। किस तरह के थे, किस स्तर के थे उस पर जाना मैं नहीं चाहता। वह मेरी रूचि का विषय भी नहीं है। लेकिन क्या इस संबंध की वजह से भारत के विभाजन पर या भारत के हितों को कोई चोट पहुंची यह हम सब भारतीयों के जानने का, सब भारतीयों के रूचि का विषय हो सकता है। क्या विभाजन की तस्वीर कुछ और हो सकती थी, क्या उसकी वजह से कोई भारत को नुकसान हुआ, कोई समझौता करना पड़ा, क्या नेहरू ने कोई समझौता किया, ऐसे बहुत से सारे सवाल लगातार उठते रहे हैं। आज से नहीं बल्कि बंटवारे और आजादी के बाद से ही उठता रहा है, अब भी उठ रहा है। अब ताजा संदर्भ क्या है? ब्रिटेन के एक लेखक हैं एडविन लॉरी जो इस संबंध में शोध कर रहे थे। उनको इन दस्तावेजों को देखने की जरूरत महसूस हुई। ये सारे दस्तावेज ब्रिटेन के साउथेम्पटन विश्वविद्यालय में रखे हुए हैं। वह विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी मेंउन्हें देखने के लिए गए। वहां उनको बताया गया कि यह दस्तावेज आपको नहीं मिल सकते, आप नहीं देख सकते। उनको इस जवाब से बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सरकारी स्तर पर इसे हासिल करने की कोशिश की लेकिन वहां से भी उनको निराशा हाथ लगी। आखिर में उन्होंने अदालत की शरण ली। जब अदालत का दरवाजा खटखटाया तो उनको बहुत सारे दस्तावेज मिल गए। सरकार और लाइब्रेरी उन दस्तावेजों को देने को राजी हो गए लेकिन 1947 और 1948 के कई महीनों के डॉक्यूमेंट उन्हें अब भी नहीं मिल रहे।
बंटवारे में माउंटबेटन की भूमिका?
इन दस्तावेजों का महत्व कितना है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि उस समय से अब तक ये डॉक्यूमेंट ब्रॉडलैंड स्थित लॉर्ड माउंटबेटन के घर में रखे हुए थे। वहां से विश्वविद्यालय ने उन्हें खरीदा और अब उसकी लाइब्रेरी में रखा गया है। इनको संजोकर रखने के लिए, इनके संरक्षण पर ब्रिटेन सरकार अब तक 6 लाख पाउंड खर्च कर चुकी है। लेकिन इनमें से बहुत से डॉक्यूमेंट अब नष्ट किए जा रहे हैं, जलाए जा रहे हैं। लेकिन वो जो 47-48के डॉक्यूमेंट हैं जिसकी बात मैं कर रहा हूं उन्हें ब्रिटेन की सरकार अब भी देने को तैयार नहीं है। लेखक लॉरी के वकील क्लारा हैमर्स ने ट्रिब्यूनल से कहा कि 12 जुलाई, 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन ने रेड क्लिफ के साथ डिनर किया था जो भारत-पाकिस्तान बंटवारे में बाउंड्री कमीशन के मुखिया थे। उस समय वह जो काम कर रहेथा उसे इतना गोपनीयरखा गया था कि लॉर्ड माउंटबेटन को उनसे मिलना नहीं था। उनके मेंडेट में यह नहीं था। नैतिक रूप से वह उनसे मिल नहीं सकते थे। इसके बावजूद न केवल रेड क्लिफ से बल्कि उनके सचिव क्रिस्टोफर ब्लूमंग से भी मिले। दोनों डिनर पर आए थे। दोनों में क्या बातचीत हुई,निश्चित रूप से भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर, भारत की आजादी पर बात हुई होगी। बाउंड्री विवाद जो चल रहा था,बाउंड्रीका कौन सा हिस्सा किस देश को मिले, मतलब भारत में कौन सा हिस्सा रहे, पाकिस्तान में कौन सा हिस्सा रहे इन सब मुद्दों पर बात हुई होगी। आप यह कह सकते हैं कि यह कैसे मालूम कि इस बारे में बात हुई होगी? हो सकता है न हुई हो, बिल्कुल हो सकता है। अगर इस बारे में बात नहीं हुई होती तो उसके अगले दिन यानी 13 जुलाई के लॉर्ड माउंटबेटन की डायरी के पन्ने ब्रिटिश सरकार देने को तैयार नहीं है। ये दस्तावेज छोटे-मोटे नहीं हैं। 4,500 बक्सों में रखे हुए हैं जिनमें 47 वॉल्यूम में लॉर्ड माउंटबेटन की डायरियां हैं और 36 वॉल्यूम में एडविना माउंटबेटन की डायरियां हैं। उनमें पूरा इतिहास भरा हुआ है। भारतीय होने के नाते हमें इस बात में कोई रूचि नहीं है कि उससे पहले क्या हुआ था? आजादी के समय क्या हुआ था, बंटवारे पर इसका क्या असर पड़ा था, बंटवारे में लॉर्ड माउंटबेटन की क्या भूमिका थी, क्या उन्होंने भारत के हित के खिलाफ काम किया, क्या इसमें उन्हें एडविना की वजह सेनेहरू का साथ मिला?
‘तुम्हारा सुबह जाना मुझे अच्छा नहीं लगता’
बताया जाता है कि उन दोनों के संबंध आध्यात्मिक थे। एक जगह जो छपा हुआ पत्राचार है उसके हिसाब से नेहरू ने कहा है कि जीवन निरानंद कारोबार है। वहीं एडविना माउंटबेटन लिखती हैं,“तुम्हारा सुबह जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम एक अजीब तरह की शांति में मुझे छोड़ कर जाते हो। मुझे भी ऐसा लगता है कि तुम्हारे साथ तुम्हें भी इसी तरह का अनुभव होता होगा। ” यह उनके संबंध का स्तर बताता है। यह सार्वजनिक डॉक्यूमेंट है, यह कोई सीक्रेट डॉक्यूमेंट नहीं है। लेकिन जो असली मुद्दा है वह यह किउन डायरियों में, उन दस्तावेजों में क्या है भारत विभाजन के समय का। जब मामला कोर्ट में गया तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के आर्काइव्स के क्यूरेटर को भी कोर्ट में बुलाया गया। उन्होंने कोर्ट को बताया कि उन्होंने ये डॉक्यूमेंट पढ़े हैं। उनको मालूम है कि उनमें क्या है। उन्होंने इसे पढ़ने के बाद ब्रिटिश सरकार के जिम्मेदार लोगों को फोन कर इस बारे में बताया। फोन करने के तीन घंटे के भीतर कैबिनेट ऑफिस से उन्हें फोन आया कि ये दस्तावेज न तो किसी को दिखाए जाएं और न तो किसी को दिए जाएं। इसके अलावा ब्रिटिश लेखक ने जो डॉक्यूमेंट मांगे थे उनमें 6 अगस्त, 1947की डायरी की एंट्री भी शामिल है। यानी भारत की आजादी 15 अगस्त से कुछ दिन पहले की। उस समय भारत विभाजन को लेकर जो सरगर्मियां थीं पूरे चरम पर थी। क्या हिस्सा इधर रहेगा, क्या उधर रहेगा,उस समय इतना उत्तेजनात्मक माहौल था, उस समय लॉर्ड माउंटबेटन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। लॉर्ड माउंटबेटन और एडविना से जवाहरलाल नेहरू के संबंध और महत्वपूर्ण थे। इसलिए वह जो निजी संबंध थे वह देश के हित को प्रभावित कर रहे थे।
जानकारी क्यों सामने नहीं आ रही
चूंकि मुझे उन दस्तावेजों की जानकारी नहीं है इसलिए नहीं कह सकता कि वो भारत के पक्ष में जा रहे थे या खिलाफ जा रहे थे। यह किसी को जानकारी नहीं है। माउंटबेटन के परिवार से जो दस्तावेज विश्वविद्यालय ने खरीदे उन्हें देखने की मांग जब लेखक ने की तो इस आधार पर उन्हें दिखाने से मना कर दिया गया कि विश्वविद्यालय ने दस्तावेज खरीदे हैं इस बात से इंकार नहीं है लेकिन वह इसके मालिक नहीं हैं। उनके पास दस्तावेज होने का मतलब यह नहीं है कि वह उसके मालिक हैं। इसलिए नहीं दिखा सकते। अब आप यह समझिए कि जुलाई 1947 से लेकर 1948 तक जब तक लॉर्ड माउंटबेटन भारत में रहे तब तक क्या हो रहा था, विभाजन के बारे में उनकी जिनसे बात हो रही थी उनसे क्या बातें हो रही थीं जो ऑफिशियल डॉक्युमेंट में शायद नहीं है, जो उनकी डायरियों में है, जो शायद नेहरू और एडविना के पत्राचार में है याएडविना माउंटबेटन की डायरी में लिखा हुआ है। यह सारी जानकारी क्यों सामने नहीं आ रही है। आखिर ब्रिटिश सरकार इसे क्यों छिपाना चाहती है। ब्रिटिश सरकार का ऑफिशियल स्टैंड यह है कि अगर ये दस्तावेज सार्वजनिक हुए, इन जानकारी सबके सामने आई तो भारत, ब्रिटेन और पाकिस्तान के आपसी संबंध खराब हो जाएंगे। इसका मतलब है कि उस समय कोई न कोई बेईमानी हुई। कुछ ऐसा हुआ जिससे भारत के हितों को चोट पहुंची और वह बात छिपाई गई भारत की ओर से भी। अब इसके बारे में जो कुछ जानकारी है वह सिर्फ जवाहरलाल नेहरू को रही होगी। उन्होंने पत्र लिखे, उन्हें क्या पत्र मिला, उन्होंने क्या बातचीत की एडविना माउंटबेटन से या लॉर्ड माउंटबेटन से, भारत के हितों से किस तरह से और कितना समझौता किया गया, कुछ पता नहीं है। इसलिए बात सिर्फ इतनी नहीं है कि विभाजन हुआ। धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हुआबल्कि करोड़ों लोग बेघर हुए, लाखों लोग मारे गए, हत्या हुई,लाशों से भरी हुई ट्रेनें आईं, महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। मानवता के इतिहास में इससे बड़ा नरसंहार और कोई नहीं हुआ। इस तरह का विस्थापन इतने बड़े पैमाने पर इतने कम समय में कहीं नहीं हुआ। यह इतिहास का ऐसा पन्ना है जिसके पन्ने, जिसके कुछ दस्तावेज, जिसकी कुछ जानकारियां अभी तक रहस्य बनी हुई हैं। उसको अभी तक छिपाया जा रहा है। आजादी के 75 साल होने जा रहे हैं। क्याहमें अधिकार नहीं है कि इसकी जानकारी सार्वजनिक हो?क्या भारत सरकार को ब्रिटिश सरकार से उन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के बारे में नहीं कहना चाहिए?
ऐसे रहस्य जो खुलते नहीं
अतीत के ऐसे जो रहस्य होते हैं आमतौर पर वो खुलते नहीं हैं। हम लोग अंदाजा लगाते रहते हैं और चर्चा करते रहते हैं। आप याद कीजिए, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। जो सुबूत सामने आए हैं उनसे पता चला है कि 1942 में जिस विमान दुर्घटना में उनकी मौत की बात कही जाती है उसमें उनकी मौत नहीं हुई। लेकिन उसके बाद क्या हुआ?यह जो चर्चा होती है कि वह सोवियत संघ में थे, साइबेरिया में थे, उनको कंसंट्रेशन कैंप में रखा गया। जवाहरलाल नेहरू का एक पत्र भी है जिसमें उन्होंने ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखा है कि आपका क्रिमिनल ऑफ वॉर सोवियत संघ में है। इस तरह जानकारियों और इनके रहस्य से पर्दा उठता नहीं है। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद लाल बहादुर शास्त्री समझौते के लिए ताशकंद गए थे। समझौते के बाद वहां उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हो गई लेकिन आज तक पता नहीं चला कि सच्चाई क्या थी। तमाम सवाल हैं। क्या वजह हुई थी, अचानक क्यों ऐसा हुआ कि उनका जो रसोईया था उनकी मौत के बाद पाकिस्तान चला गया, उनके डॉक्टर की दुर्घटना में मौत हो गई। तमाम सवाल हैं। इन पर फिल्में भी बन चुकी हैं, एक नहीं कई फिल्में बन चुकी हैं, किताबें लिखी जा चुकी हैं लेकिन अभी तक इनके जो उपलब्ध दस्तावेज हैं वह भी सार्वजनिक नहीं किए जाते। इसलिए कि दो देशों के बीच संबंध खराब हो जाएंगे।
सवाल हैं जो उठते रहेंगे
तो क्या संबंध खराब हो जाएंगे इसलिए लोगों के सामने झूठ परोसा जाएगा, लोगों को सच्चाई से महरूम रखा जाएगा, ये ऐसे सवाल हैं जो उठते रहेंगे। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में नेहरू और एडविना के बीच का पत्राचार, लॉर्ड माउंटबेटन की डायरियां जो 1947 और 1948 के बीच का है उन्हें जरूर बाहर आना चाहिए। विभाजन के दौरान और कौन सा खेल खेला गया, क्या हुआ, मैं तो यह भी नहीं कह रहा हूं कि नेहरू नेदेश के हितों के साथ कोई समझौताकिया। लेकिन यह अगर चर्चा हो रही है तो नेहरूकी छवि के लिए भी, जो लोग नेहरू की छवि को बचाना चाहते हैं, उनके लिए भी जरूरी है कि वह भी मांग करें कि सारा पत्राचार और दस्तावेज सार्वजनिक किया जाए। अगर लगभग 200 साल राज करने, अत्याचार करने, देश को लूटने के बाद भी भारत और ब्रिटेन के संबंध खराब नहीं हुए हैं तो इन दस्तावेजों के बाहर आने से कैसे खराब हो जाएंगे, मेरे लिए समझना थोड़ा मुश्किल है। आपको समझ में आए तो बताइएगा।
लेकिन यह मुद्दा ऐसा है कि आने वाले दिनों में इस पर और चर्चा होगी, इसकी मांग और बढ़ेगी। अभी मामला अदालत में है। अदालत से क्या फैसला आता है, अदालत क्या निर्देश देती है लेकिन एक डर यह बना हुआ है कि इससे पहले की अदालत से कोई फैसला आए,उन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने का फैसला आए, हो सकता है कि ब्रिटिश सरकार उन्हें नष्ट कर दे। कह दे कि कोई डॉक्यूमेंट है ही नहीं। वह ऐसा कर सकती है। जब तक अदालत उस पर रोक नहीं लगाती कि अदालत के फैसले तक उन दस्तावेजों को छुआ ना जाए, नुकसान न पहुंचायाजाए, तब तक ब्रिटिश सरकार को रोकने का कोई और तरीका नहीं है। तो क्या भारत सरकार इस पर पहल करेगी या किसी और एजेंसी के जरिये इस काम को अंजाम दिया जाएगा, पता नहीं। लेकिन मैं मानता हूं कि निश्चित रूप से भारत के विभाजन के समय का वह सच जो छिपा हुआ है या छिपाया गया है उसे बाहर आना चाहिए।