खालिद उमर।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर यह बात मढ़ दी गयी है कि वह और उनका दल भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है। यदि ऐसा है, तो मैं पूछता हूँ कि इसमें ग़लत क्या है? और इस बाबत मेरे तर्कपूर्ण विचार इस प्रकार हैं।
पाँच हज़ार वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता आज किसी परिचय की मोहताज नहीं। भारतवर्ष ही निस्संदेह सनातन हिंदुत्व की मूल जन्मभूमि है। दुनिया के 96% हिंदू यहीं बसते हैं, जबकि इस्लाम की जन्म भूमि अरबियात में सिर्फ़ 1.6% मुसलमान ही रहते हैं। अतः ‘हिंदू राष्ट्र’ के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने एवं क़ायम रखने में भारत को किसी तरह की शर्म या संकोच क्यों होना चाहिए?
तीसरा सबसे बड़ा धर्म
ईसाइयत और इस्लाम के बाद हिंदुत्त्व ही पूरी दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। लेकिन इन दोनो धर्मों की तरह हिंदू लोग पूरे विश्व के मानचित्र पर छिटके हुए नहीं है। पूरी हिंदू आबादी का 97% सिर्फ़ तीन देशों में ही आबाद है- भारत, मॉरीशस और नेपाल। इस तरह सभी प्रमुख धर्मों के मुक़ाबले भौगोलिक दृष्टि से यह सबसे अधिक एकजुट जन समुदाय है।
ऊल्लेख्य है कि पूरी दुनिया में मुस्लिम वर्चस्व वाले 53 देश हैं, जिनमें से 27 का राजधर्म इस्लाम है। सौ से अधिक ईसाई वर्चस्व वाले देशों में से 15 का राजधर्म ईसाइयत है। ईसाई देशों में शामिल हैं- इंग्लैंड, ग्रीस, आइसलैंड, नॉर्वे, हंग्री, डेनमार्क। और बौद्ध धर्म वाले देश भी छह हैं। इज़रॉयल ज़ेविश (यहूदी सम्बन्धित) राज्य है। लेकिन सर्वाधिक ध्यातव्य है कि इन सभी धर्म वाले देशों से हमारे बाम-उदारपंथ (लेफ़्ट लिबरल बिरादरी) को कोई समस्या नहीं होती। किंतु भारतवर्ष के मामले में उनका तर्काधार बिलकुल अलग है, जो मेरी समझ में नहीं आता! आख़िर, इस देश का धर्म हिंदुत्त्व क्यों नहीं हो सकता? धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदुत्त्व को लेकर हमेशा उनकी नज़रों की तलवारें तनी क्यों रहती हैं!
भारत में हिंदुओं की तरफ़ से धर्मनिरपेक्षता को किसी तरह भी ठेस पहुँचाने वाला कोई लक्षण अब तक दिखा नहीं। सो, इस उदार प्रकृति को देखते हुए हिंदू राष्ट्र बन जाने के बाद की स्थितियों के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है, तो इसे ‘हिंदू राष्ट्र’ क्यों न घोषित कर दिया जाये? हिंदुओं के साथ लम्बे समय से रहते हुए पारसी, सिक्ख, मुस्लिम, जैन आदि सभी अल्पसंख्यक समुदायों में हिंदुओं के प्रति अब तक यही विश्वास फला-फूला है कि अन्य धर्मों के प्रति ये क़तई अनुदार नहीं होते। इसका प्रमाण यह भी है कि किसी भी धर्म के धार्मिक स्थलों पर हिंदू सहज ही उनकी पूजा-अर्चना करते मिल जायेंगे। फिर ईसाई व मुस्लिम धर्मों की तरह धर्मांतरण कराने की धारणा हिंदू धर्म में सिरे से नहीं है। इधर आकर इस्लाम-ईसाई आदि में धर्मांतरण को देखते हुए और अपने धर्म से कभी विवश होकर, कभी किसी और कारणवश लोगों को जाते देखकर धर्मांतरण की चर्चा शुरू हुई- कुछेक ऐच्छिक रूप से हुए भी, लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि हिंदू धर्म किसी अन्य धर्मावलम्बी को अपने में लेने का कोई विकल्प रहा ही नहीं है – ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:’ का सिद्धांत ही है, जो इस धर्म की सबसे बड़ी बात है। इसी से टकराव की गुंजाइश ही नहीं बनती। और यही इस्लाम की सबसे आश्चर्यजनक बात है कि वे सारी दुनिया में सिर्फ़ इस्लाम चाहते हैं। वे मानते हैं कि इस्लाम के अलावा कोई अच्छा धर्म है ही नहीं।
ईसाई और मुस्लिम देश
पूरी दुनिया में ये ईसाई और मुस्लिम देश ही हैं, जो मानवाधिकार हनन को लेकर आए दिन आवाजें उठाते रहते हैं और धार्मिक उत्पीड़न को लेकर पूरी दुनिया में शोर मचाते रहते हैं। संसार को खूब याद है- म्यांमार, फिलिस्तीन व यमन आदि, लेकिन इसके बरक्स पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान या अन्य किसी इस्लामिक देशों के हिंदू व सिक्ख बिलकुल नहीं!! क्या सबको याद नहीं है कि 1971 में पाकिस्तान सेना के नरसंहार के दौरान बंगला देश में हिंदुओं के साथ और कश्मीर में पंडितों के साथ क्या कुछ हुआ था? या फिर 1998 में जम्मू-काश्मीर के वाँधम्मा नरसंहार… सुनियोजित रूप से पाकिस्तान से हिंदुओं का देश-निकाला… अरब देशों (मस्कट वग़ैरह) से प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों एवं हिंदुत्त्व के ख़ात्मे के कुकृत्य… आदि-आदि।
यह कैसी धर्मनिरपेक्षता
यह आश्चर्य भी ग़ौरतलब है कि धर्मनिरपेक्ष भारत की अपनी नीतियाँ भी हिंदुत्व को लेकर धर्म-निरपेक्षता की ख़ासी विरोधी हैं। इनमे देश के बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त भेद-भाव बरता गया है। इसके ढेरों उदाहरण हैं। क्या आपने हज-रियायत (हज सब्सिडी) के बारे में सुना है? 2000 ईसवी से लेकर लगभग डेढ़ सौ मिलियन मुसलमानों ने इस रियायत का लाभ उठाया है। अभी हाल-फ़िलहाल में ही उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश पारित किया, जिसमें इस रियायत को चरणबद्ध रूप से हटाने के निर्देश दिये गये हैं। कौन सा ऐसा धर्मनिरपेक्ष देश होगा, जो किसी एक धर्म-समुदाय की धार्मिक यात्राओं के लिए ऐसी रियायत देगा? इस रियायत से वर्ष 2008 में प्रति मुस्लिम यात्री पर सिर्फ़ हवाई-यात्रा का औसत खर्च बैठा – लगभग एक हजार अमेरिकी डॉलर।
इधर जब भारत सरकार धार्मिक पर्यटन में अपने (मुस्लिम) नागरिकों को सहयोग कर रही थी, उधर साउदी अरबिया में मूर्त्ति-पूजा के नाम पर सम्मान्य हिंदू प्रतीकों की भर्त्सना हो रही थी और वहाँ की सरकार ‘वहाबी आंदोलन’ के अतिवाद को पूरे विश्व भर में फैलाने में लगी थी, जिसके तहत हिंदुओं को अपने मंदिर बनाने की इजाज़त नहीं थी और भारतीय करदाताओं के पैसों से मिली हज-यात्रा की छूटों के बल सऊदी अर्थतंत्र लहलहा रहा था।
सही अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष देश के सभी नागरिक, धर्म या जाति की परवाह किये बिना, समान क़ानून से संचालित होते हैं, जबकि भारत में आलम यह है कि भिन्न-भिन्न जाति-धर्म व विश्वास के लोगों के लिए अलग-अलग क़ानून काम करते हैं। भारत में मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण है, वहाँ की दान-राशि पर सरकार कर लेती है, जबकि गिरजाघर व मस्जिदें स्वायत्त हैं। उनकी दान-राशि उनकी होती है। हज-यात्रा के लिए छूट मिलती है, लेकिन अमरनाथ-यात्रा या कुम्भ-स्नान के लिए कोई छूट नहीं मिलती!
अल्पसंख्यकों का स्वागत और सुरक्षा
हिंदुओं ने हमेशा ही अल्पसंख्यकों का स्वागत किया है, उन्हें सुरक्षा दी है। मुख़्तसर में हिंदुओं की इस सहिष्णुता पर एक नज़र डालें तो भारत के हिंदू समुदाय ने पारसियों का स्वागत तब किया, जब वे पूरी दुनिया में सताये जा रहे थे। वे हज़ारों साल से यहाँ फलते-फूलते रहे। लगभग दो हज़ार साल पहले ज़ेविश जन समुदाय ने यहाँ शरण पायी। 1800 साल पहले सीरियन क्रिश्चियंस के साथ भी यहाँ ऐसा ही सदव्यवहार हुआ। हिंदुत्व से ही निकले जैन-बौद्ध धर्म के लोग पिछले पचीस सौ और सिक्ख भी चार सौ सालों से सहअस्तित्व में रह रहे।
लेकिन अब वह समय आ गया है कि हिंदू समाज इतिहास के इन तथ्यों पर गौर करे और अपने हिंदू होने पर गर्व करे। अब हिंदू को अपने हिंदू होने पर और शर्मिंदा नहीं होना है।
हिंदुत्व की बदौलत है धर्मनिरपेक्षता
आज भी भारत यदि धर्मनिरपेक्ष देश है, तो संवैधानिक संरचना एवं 1976 के संशोधनों तथा क़ानून व क़ानून के बनाने वालों के चलते नहीं, वरन इसलिए कि भारत में बहुसंख्यक लोग हिंदू हैं। जिस दिन हिंदू आबादी बहुसंख्यक नहीं रहेगी, यह देश एक दिन भी धर्म-निरपेक्ष नहीं रह पायेगा, इसकी गारंटी कोई भी ले-दे सकता है। यह हिंदुत्त्व की ही खूबी है कि धर्मनिरपेक्षता इसमें बखूबी सुरक्षित है। और यह किसी काग़ज़ के टुकड़े के बल पर नहीं है, बल्कि हज़ारों सालों से हिंदुत्व की सहनशीलता के अभ्यास व आदत के चलते है। अतः फ़ौरन से पेश्तर भारत को खुले आम अपने को ‘हिंदू (सिख-जैन) राष्ट्र’ घोषित कर देना चाहिए। और इस तरह पूर्वोल्लिखित लोगों व उनकी रुचियों को क़ायम रखने के लिए भारत को खुद दख़ल देना ही होगा, क्योंकि अन्य कोई देश आप के लिए न ऐसा कर रहा, न शायद कर सकता।
‘हिंदू राष्ट्र’ हो जाने मात्र से बहुसंख्यकों के हठात् धर्मांतरण से वांछित रक्षा एवं अल्पसंख्यकों के निहित मंसूबों से बचाव के नये द्वार स्वतः खुल जायेंगे। कहना होगा कि भारत तभी तक एक प्रगतिशील देश रह पायेगा, जब तक वह धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा लेकिन यह धर्मनिरपेक्ष तभी तक रह पाएगा, जब तक हिंदू आबादी का दृढ़ प्रभुत्व बना रहेगा। और यह निश्चित रूप से तभी हो पायेगा, जब भारतवर्ष एक ‘हिंदू राष्ट्र’ हो जायेगा। इस तरह ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘हिंदुत्त्व’ दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यदि भारतवर्ष हिंदू राष्ट्र होता है, तो इससे बेहतर कुछ न होगा। तब समान नागरिक संहिता होगी और किसी को भी कोई अतिरिक्त भत्ता नहीं मिलेगा- हिंदुओं को भी नहीं! किसी भी देश के विकास का सदा ही मुख्य कारक रहा है- क़ानून का नियम। जर्मनी, जापान, अमेरिका आदि सभी प्रगत देश इसी पर टिके रहे हैं। तब धर्मांतरण (किसी का किसी में) प्रतिबंधित होगा, जो धार्मिक टकराहटों का मूल कारण होता है। फिर कोई तबलीगी जमात (बीस-तीस लोगों का समूह, जो घूम-घूम कर इस्लाम का प्रचार करता है) बिलकुल न रहेगी। एक बार धर्मांतरण ख़त्म हुआ, तो हर आदमी अपने मनचाहे धर्म को चुन सकता है, उसके साथ रह सकता है। फिर वह चाहे, तो ‘किसी धर्म में न रहना’ याने नास्तिक होना ही चुन ले। और हिंदुत्व में तो निरीश्वरवाद का भी एक स्थापित सिद्धांत है। कोई बताये ऐसा दूसरा धर्म, जिसमें किसी भी धार्मिक विश्वास का पालन न करने को भी ऐसी मान्यता प्राप्त हो!
धार्मिक सहिष्णुता की पराकाष्ठा
मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा भारत-भूमि पर आकर तोड़-फोड़ करने व घमासान मचाने के बहुत पहले से धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता भारतवासियों की लोक-प्रकृति रही है। 1000 शताब्दी के आसपास भारतीय उपमहाद्वीप पर मुस्लिम आक्रमण शुरू हुए और लगभग सात सौ से अधिक सालों (1739 ईस्वी) तक चलते रहे। इस दौरान लगभग सौ मिलियन हिंदुओं का विनाश हुआ होगा। विश्व-इतिहास में इससे बड़ी प्रलय शायद दूसरी न हुई होगी। और ग़ज़ब यह है कि न ही तब के हिंदू-समुदाय ने और न बाद में उनके वंशजों ने इसका कोई प्रतिशोध लिया! यह हिंदुत्व बिलकुल नहीं है, वरन छद्म धर्मनिरपेक्षता का शर्महीन कार्यान्वयन है। और यही बहुसंख्यक हिंदू समुदाय एवं मुसलमानों के बीच आपसी टकराव का मुख्य कारण सिद्ध हुआ है। हिंदू राष्ट्र में हिंदू-इतर समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता क़तई बाधित नहीं होगी।
हिंदुओं को अपनी भूमि के ऐसे गरिमामय इतिहास पर गर्व होना चाहिए और उन्हें अपने टकरावों को ख़त्म करने के लिए इन तथ्यों का सहारा लेना चाहिए। शर्म के मारे वास्तविकता से उनका दूर भागना उस ज़मीन को भयंकर आपदाओं की भेंट चढ़ाना होगा, जिसकी मिट्टी में सहिष्णुता की खाँटी प्रकृति एवं समृद्ध संस्कृति गहनता से समायी हुई है। कहना होगा कि मुस्लिम देशों की माँगों को पूरा करने के लिए अपनी उक्त बेशक़ीमती निधियों को बेमोल लुटा कर भारत ने अब तक पर्याप्त अहमकाना कार्य किया है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी मान्यताओं को वार देना भी अति सहिष्णुता का ही सिला है।
लेकिन अब समय आ गया है कि अपनी शांति-सहिष्णुता की विरासत के साथ और उसी के बल हिंदुओं को एकजुट हो जाना चाहिए। और जैसा कि इतने विवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा एवं प्रवृत्ति में ही धर्मनिरपेक्षता के मूल्य समाहित हैं, तो बिना किसी प्रस्तावना या भूमिका के भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाके उसकी धारणा को जीवन व व्यवहार में उतार के दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
(लेखक पाकिस्तानी मूल के जाने माने ब्लॉगर हैं और (लंदन) ब्रिटेन में रहते हैं। यह आलेख उनकी 10 अगस्त 2020 की सोशल मीडिया पोस्ट पर आधारित है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। )
(मूलतः अंग्रेजी में लिखे इस लेख का हिंदी में अनुवाद साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ सत्यदेव त्रिपाठी ने किया है।)