प्रदीप सिंह।
नरेंद्र मोदी के बारे में मैं कई बार कह चुका हूं कि वह सिर्फ एक राजनेता, एक पार्टी के प्रमुख नेता नहीं हैं। वह देश के सिर्फ प्रधानमंत्री नहीं हैं, एक समाज सुधारक भी हैं। उनके अंदर समाज सुधारक का यह तत्व बहुत ही प्रभावी है। यह हमेशा समाज को सुधारने की दिशा में कुछ न कुछ सोचता रहता है, कुछ न कुछ करता रहता है। वह कुछ ऐसे कदम उठाते हैं जिसका दूरगामी असर हो। कुछ लोगों को लगता होगा कि उनका लक्ष्य 2024 का लोकसभा चुनाव है या 2029 का चुनाव है या विधानसभा के चुनाव हैं। उनकी मंजिल यह नहीं है, यह मंजिल के रास्ते के पड़ाव हैं और पड़ाव मंजिल से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होते।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार इस बात की ओर इशारा करते हैं, बार-बार इस बात को समझाने की कोशिश करते हैं कि ये पड़ाव हैं। चुनाव हार गए या जीत गए कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन जो परिवर्तन वह करना चाहते हैं, स्थायी रूप से देश में जो बदलाव करना चाहते हैं, समाज के बारे में सोचते रहते हैं कि भावी पीढ़ियों का भविष्य कैसे बेहतर बनाया जाए। समाज सुधार की दिशा में उन्होंने एक बहुत बड़ा कदम उठाया है जिसे चुनावी राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। इससे उसका महत्व कम हो जाता है। वह उतना प्रभावी दिखाई नहीं देता है। लगता है कि चुनाव जीतने के हथकंडे हैं और चुनाव जीतने के बाद उसका कोई मतलब नहीं रहेगा। मगर वह जो कदम उठाते हैं वे ऐसे होते नहीं है।
चार नए वर्ण
मैं बात कर रहा हूं कि सदियों से चली आ रही जो पुरानी वर्ण व्यवस्था है, उसको तोड़े बिना वे एक नई वर्ण व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं और जब नया निर्माण होता है तो वह एक दिन में नहीं होता है, उसमें समय लगता है। उसकी शुरुआत उन्होंने कर दी है। उन्होंने जो चार नई जातियां बताई है, दरअसल मैं मानता हूं कि ये चार नए वर्ण हैं। गरीबी, महिला, युवा और किसान। आप कहेंगे कि इनमें और पुरानी बुनियादी व्यवस्था में क्या अंतर है? क्या यह नई वर्ण व्यवस्था पुरानी वर्ण व्यवस्था की खामियों को ठीक कर देगी? पुरानी वर्ण व्यवस्था में जो सबसे बड़ी खामी है वह है अलग-अलग वर्णों में श्रेष्ठता का भाव। अलग-अलग वर्णों में भी और एक वर्ण के अंदर भी, चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, उनमें यह भाव है कि हम अपने दूसरे सहयोगी से ज्यादा श्रेष्ठ है। एक बात यह है और दूसरी, उनमें गतिशीलता नहीं है कि इस वर्ण से दूसरे वर्ण में जा सकें। जब वर्ण व्यवस्था बनी थी तब बात दूसरी थी। आज वह जाति में बदल गई है, इसीलिए गतिशीलता खत्म हो गई। अगर वह वर्ण ही बना रहता तो उसमें गतिशीलता रहती है। वर्ण में गतिशीलता रहती है, जाति में नहीं रहती है यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय शूद्र नहीं बन सकते हैं। इसी तरह से दूसरी जातियों के बारे में कह सकते हैं। यह बदलाव आता नहीं है। वह जो दूसरी वर्ण व्यवस्था की बात कर रहे हैं उसमें सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें गतिशीलता है। उससे भी बड़ी बात यह है कि जो पुरानी वर्ण व्यवस्था आज तक चली आ रही है उसमें सामंजस्य का अभाव है। आपस में आक्रामकता है, एक दूसरे को पछाड़ने की और आगे निकल जाने की प्रतियोगिता है और नीचे दिखाने की भी। वह जो विचारधारा है वह नई वर्ण व्यवस्था में नहीं है, इसलिए उसमें सामंजस्य की गुंजाइश ज्यादा है।
जातियों का गठबंधन अस्थायी
कांग्रेस पार्टी अभी भी अतीत में देख रही है। उसको अभी भी इस वर्ण व्यवस्था में अपना फायदा दिख रहा है। वह उसमें अपने लिए लाभ देखने और अपना भविष्य तलाशने की कोशिश कर रही है। बिहार में जब जाति जनगणना हुई तो कांग्रेस पार्टी को लगा कि इससे गरीबों के वोट का एक बड़ा द्वार उसके लिए खुलेगा और गरीब वर्ग और जातियां उसकी ओर अपने आप आकर्षित होती हुई चली आएंगी, मगर ऐसा होता नहीं है। जो बात नरेंद्र मोदी के समझ में आ गई, मुझे लगता है कि वह बात देश के किसी और राजनेता के समझ में नहीं आई। पुरानी वर्ण व्यवस्था में जातियों का जो संबंध है वह स्थायी नहीं हो सकता। आप व्यावहारिक रूप से देखना चाहे तो बहुजन समाज पार्टी का उदाहरण ले लें। बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस से प्री पोल अलायंस किया, भाजपा के साथ पोस्ट पोल अलायंस किया, समाजवादी पार्टी के साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव में प्री पोल अलायंस किया, कोई भी गठबंधन टिक नहीं सका। क्यों नहीं टिक सका, आखिर कोई तो कारण होगा? आप अगर अंक गणित की दृष्टि से देखें तो यह गठबंधन ज्यादा प्रभावी होना चाहिए और इसका चमत्कारिक का असर होना चाहिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आप चाहे 1993 का सपा और बसपा का गठबंधन देख लें, दोनों के मिलने के बावजूद विधानसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और बीजेपी से आगे भी निकल नहीं पाई। अकेले लड़कर भी बीजेपी को गठबंधन से एक सीट ज्यादा मिली। 1996 में बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस से प्री पोल अलायंस किया, वह भी नहीं चला। फिर उसके बाद बीजेपी से दो-तीन बार पोस्ट पोल अलायंस किया और मिलकर सरकार बनाई। फिर 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन किया। कोई भी गठबंधन ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि गठबंधन में शामिल जातियों में समरसता नहीं है, जो सामाजिक समूह है उनमें समरसता, सामंजस्य नहीं है।
श्रेष्ठता का भाव और समरसता का अभाव
नरेंद्र मोदी को यह बात समझ में आ गई। हालांकि, उन्होंने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद सामाजिक समीकरण को साधा, अति पिछड़ों का साथ लिया। उनको संगठन में, सरकार में हिस्सेदारी दी, पद दिए, उनका सशक्तिकरण किया। केंद्र और जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार थी, उनकी सरकारी योजनाओं के जरिये उन्हें जोड़ने की कोशिश की और उसमें वह सफल भी रहे। इन सबके बावजूद उनको मालूम है कि यह लंबे समय तक टिकेगा नहीं। ये जातियां लंबे समय तक आपस में टिक नहीं सकती हैं। देश में करीब 25,000 जातियां हैं। उनमें आपस में होड़ है। एक वर्ग है जो अपने को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को कमतर मानता है। ब्राह्मणों में, क्षत्रियों में, वैश्यों में और यहां तक कि दलितों में भी कुछ जातियां हैं जो अपने को श्रेष्ठ मानती हैं। इसके अलावा, जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई और मंडलवादी पार्टियों को सत्ता मिली, तो यादव, कुर्मी, लोध या अन्य ऐसी जातियां जिनकी संख्या बड़ी है, उनमें श्रेष्ठता का भाव था। उन्होंने अति पिछड़ी जातियों को दबाने का काम किया, उनको उभरने नहीं दिया, सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी। यह जो प्रतिस्पर्द्धा है, श्रेष्ठता का भाव है, सामंजस्य का अभाव है, इसको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत अच्छी तरह से समझा है। उनको यह बात समझ में आ गई कि हमने सामाजिक समीकरण बना तो लिया, लेकिन इसको लंबे समय तक टिका कर रखना मुश्किल होगा। जब वह बात करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी आने वाले 20, 30, 40 सालों तक सत्ता में रहेगी, तो उसके लिए जरूरी है कि एक स्थायी गठबंधन हो। स्थायी गठबंधन के लिए दो चीज होना जरूरी है। एक है इंटर क्लास मोबिलिटी और दूसरा है सामंजस्य।
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दूरगामी लक्ष्य
तीसरी बात, इसमें आक्रामकता का अभाव है। उन्होंने जो नई वर्ण व्यवस्था बनाई है युवा, महिला, किसान और गरीब की, उसमें आपको कहीं भी आपस में आक्रामकता नहीं दिखाई देगी, सामंजस्य का अभाव नहीं दिखाई देगा, बल्कि सामंजस्य की इच्छा दिखाई देगी। ज्यादा से ज्यादा सामंजस्य बने, इसकी ललक दिखाई देगी। इस बात को उन्होंने समझा और इस नारे को जब उन्होंने दिया, तो बहुत से लोगों को लगा कि 2024 के लिए वह एक रणनीति बना रहे हैं ताकि विरोधियों को मात दी जा सके। इस रणनीति पर चलकर 2024 का चुनाव जीतना चाहते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि नरेंद्र मोदी कोई भी काम तात्कालिक लाभ के लिए नहीं करते हैं। वह जो काम करते हैं उसका तात्कालिक लाभ मिल जाए, यह अलग बात है लेकिन उनका लक्ष्य बड़ा दूरगामी होता है। वह स्थायी बदलाव, स्थायी प्रभाव के लिए काम करते हैं। वह राष्ट्र के बारे में सकारात्मक रूप से सोचते हैं। विभाजन करके लोगों का साथ लेने की कोशिश नहीं करते हैं। इसलिए, वह अगर पसमांदा की बात करते हैं तो उनके बहुत सारे समर्थक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि इसका दीर्घकाल में कोई फायदा नहीं होना है, नुकसान ही होना है। इन सबको जोड़ने के लिए जरूरी है कि जो सरकार की नीतियां हैं उनकी डिलीवरी हो। उसी से विश्वास जागता है और उसी से उन्होंने विश्वास कायम किया है। उनकी जो सरकारी नीतियां हैं, उनके जो कार्यक्रम हैं, उनकी डिलीवरी ने ही उनकी विश्वसनीयता को पक्का किया है। इसीलिए वह जब मोदी की गारंटी की बात करते हैं तो लोगों को वह बात पसंद आती है, लोग उसको स्वीकार करते हैं। मोदी की गारंटी बाकी किसी भी गारंटी पर इसलिए भारी पड़ती है कि उसकी विश्वसनीयता के पीछे एक ठोस आधार है और वह है परफॉर्मेंस का, गुड गवर्नेंस का। गवर्नेंस आपस में जोड़ता है, गवर्नेंस आपस में लड़ाता नहीं है, गवर्नेंस से लोगों में सामंजस्य की कमी नहीं आती है, गतिशीलता की कमी नहीं आती है। यह बात नरेंद्र मोदी ने बहुत जल्दी पहचान लिया और उसी के अनुसार अपनी पार्टी की नीतियां, विचारधारा और सरकार के कार्यक्रम उन्होंने बनाए हैं। उनके विरोधी अभी भी उनकी राजनीति को समझ नहीं पाए, इसलिए मात खाते हैं।
जाति से आगे की राजनीति
अभी हाल के विधानसभा चुनाव में तीन राज्यों, जिनमें भाजपा जीती है, आप देखिए कि कांग्रेस और दूसरी मंडलवादी क्षेत्रीय पार्टियों को लगा कि पिछड़ा वर्ग का कार्ड खेलने से, जाति की गणना का कार्ड खेलने से उनका जनाधार बढ़ जाएगा, उनका वोट बढ़ जाएगा। वह बीजेपी को और मोदी को मात दे सकेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इन तीनों राज्यों में पिछड़ा वर्ग, दलित और जनजाति समूह की संख्या 80 फीसदी से ज्यादा है, इसके बावजूद भाजपा को भारी जीत हासिल हुई। यह ऐसे माहौल में हुई है जब राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी, मोदी विरोधी शक्तियों द्वारा यह कोशिश की जा रही थी कि जाति के आधार पर मोदी को परास्त किया जा सके। जाति की गणना का मुद्दा उठाकर, जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी, का मुद्दा उठाकर वोट बटोरे जा सकते हैं। आप बांट कर वोट नहीं बटोर सकते। यह विभाजन और विखंडन की ओर ले जाता है। जातियों की जो संख्या मैंने बताई, उनमें आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। उनमें प्रतिस्पर्द्धा होती है और बंटवारा होता है। इससे नुकसान ज्यादा होता है, फायदा तो कोई होता नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियों को अब तक यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी। वह भी कांग्रेस की तरह ही अतीतजीवी हो गई हैं। वह 80 के दशक में जी रही हैं। उनको लगता है कि 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जो परिस्थितियां बनी थी और जो राजनीतिक लाभ उनको मिला, जाति जनगणना से वही लाभ उनको मिल सकता है। मगर फिर से ऐसा होने वाला नहीं है। इसलिए कि उससे आगे की रणनीति, उससे आगे की राजनीति और सबसे बड़ी बात उससे आगे की समाजनीति बनाने वाले नरेंद्र मोदी इस समय देश के सर्वोच्च नेता हैं। उनकी लोकप्रियता, उनकी साख, उनकी विश्वसनीयता का आज कोई मुकाबला करने वाला सामने नहीं है।
गरीबी उन्मूलन में सहायक
एक बड़ी बात और है कि यह जो नई वर्ण व्यवस्था है, यह गरीबी उन्मूलन में सबसे बड़ी सहायक बन सकती है। गरीबी उन्मूलन में जो डिलीवरी सिस्टम है उसमें मददगार साबित हो सकती है। गरीबी उन्मूलन के लिए इनमें आपस में सामंजस्य, आपस में गतिशीलता है। गरीबों की संख्या लगातार कम होती जाए, लोगों का जीवन स्तर लगातार सुधरता जाए, उसके लिए सरकार की जो नीतियां बनेंगी, जो कार्यक्रम बनेंगे उनको लागू करने में इससे मदद मिलेगी। यह तोड़ने वाली नहीं, जोड़ने वाली शक्तियां है और इस शक्ति को पहचाना है नरेंद्र मोदी ने। नरेंद्र मोदी जब सक्रिय राजनीति से अलग हो जाएंगे, जब उनके कार्यकाल का आकलन होगा, तब इसके बारे में लोगों को ज्यादा अच्छी तरह से समझ में आएगा। अभी मोदी विरोध में उनकी आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ है। वह इस परिवर्तन को, बड़े बदलाव को देख नहीं पा रहे हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)