प्रदीप सिंह।
नेहरू-गांधी परिवार हमेशा से यह मानकर चलता आया है कि वह इस देश में सत्ता में रहने के लिए आया है। मैं सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी की बात नहीं कर रहा हूं। जवाहरलाल नेहरू की भी बात नहीं करूंगा, बात करूंगा इंदिरा गांधी की। इंदिरा गांधी क्यों चाहती थीं कि जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री न बनें। क्यों वह चाहती थीं कि गुलजारीलाल नंदा प्रधानमंत्री बनें। आखिर इसकी क्या वजह थी? शास्त्री जी से उन्हें क्या परेशानी थी? गुलजारी लाल नंदा के प्रति स्नेह था या कोई और दूसरी योजना थी? नेहरू जी के निधन के बाद कांग्रेस में इस बात को लेकर बड़ी चर्चा थी कि अब प्रधानमंत्री कौन होगा, बल्कि कहें कि उनके रहते हुए ही काफी पहले से इस बात की चर्चा होने लगी थी कि नेहरू के बाद कौन प्रधानमंत्री होगा।
पहले इंदिरा ने ठुकरा दिया था पीएम पद
उड़ीसा में जब उनको ब्रेन स्ट्रोक हुआ तो उसके बाद यह चर्चा बड़ी जोर पकड़ने लगी। लोगों को लगा कि अब वह ठीक नहीं हो पाएंगे और यही हुआ भी। कांग्रेस का जो हाईकमान होता था वह कांग्रेस वर्किंग कमेटी के पांच-छह वरिष्ठ सदस्य और जो मुख्यमंत्री होते थे उनको एक तरह से हाईकमान की तरह माना जाता था। हाईकमान का यह मानना था कि नेहरू चाहते थे कि उनके बाद उनकी बेटी ही गद्दी संभाले है लेकिन यह बात बोले कौन। नेहरू के रहते हुए इंदिरा गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना तो आसान था लेकिन उनके नहीं रहने पर किसकी प्रतिक्रिया क्या होगी किसी को कुछ पता नहीं था। दूसरा, क्या इंदिरा गांधी इसके लिए तैयार होंगी क्योंकि उन्हें जिस तरह का सदमा लगा है, नेहरू जी के निधन से कुछ साल पहले फिरोज गांधी की मौत हुई थी। इसे लेकर चर्चा शुरू हुई तो सबसे पहले तो गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिला दी गई। 27 मई, 1964 को नेहरू जी का निधन हुआ और 30 मई को लाल बहादुर शास्त्री इंदिरा गांधी के पास गए और उनसे कहा कि अब आप मुल्क संभाल लीजिए। उनको प्रधानमंत्री बनने का ऑफर दिया लेकिन उन्होंने मना कर दिया। कांग्रेस के कुछ और नेताओं ने भी कहा लेकिन इंदिरा गांधी ने उन्हें भी मना कर दिया। जब यह साफ हो गया कि इंदिरा गांधी दौड़ से बाहर हैं तो अब कौन प्रधानमंत्री होगा। उस समय दो-तीन लोगों के नाम चल रहे थे।
प्रधानमंत्री पद के थे तीन दावेदार
कांग्रेस वर्किंग कमेटी के नेता और कांग्रेस के अन्य वरिष्ठ नेता यह मान कर चल रहे थे कि गुलजारी लाल नंदा इतनी आसानी से पद नहीं छोड़ेंगे। वह नेहरू की कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत में थे, होम मिनिस्टर थे इसलिए उनका दावा बड़ा मजबूत था। दूसरे नंबर पर थे मोरारजी देसाई जिनको उत्तराधिकारी के दावेदार से हटाने के लिए नेहरू जी की सलाह पर ही के. कामराज ने योजना बनाई थी। उनको हटाया गया था। उस समय शास्त्री जी को भी हटाया गया था लेकिन बाद में स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद नेहरू शास्त्री जी को वापस ले आए अपनी कैबिनेट में। लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई और गुलजारी लाल नंदा ये तीन दावेदार थे प्रधानमंत्री पद के। मोरारजी देसाई के अपने समर्थक थे जो उनको इसलिए पसंद करते थे कि वह बहुत ही ईमानदार व्यक्ति थे। दूसरा, उनके पास प्रशासनिक अनुभव था। वह बॉम्बे स्टेट के चीफ मिनिस्टर रह चुके थे जब गुजरात और महाराष्ट्र का बंटवारा नहीं हुआ था। इसके अलावा काफी लंबे समय से केंद्र में मंत्री रहे थे इसलिए उनके पक्ष में बहुत से लोग थे। लेकिन कामराज और उनके साथियों को लगता था कि मोरारजी देसाई बहुत ही हठी हैं। उनके साथ काम करना मुश्किल होगा। उनको प्रधानमंत्री बना दिया तो फिर वे खुद को बॉस समझने लगेंगे और किसी की सुनेंगे नहीं। इसलिए सबने मिलकर यह तय किया कि सबसे बेहतर विकल्प लाल बहादुर शास्त्री हैं। लेकिन उनको बनाया कैसे जाए क्योंकि हाईकमान, कांग्रेस वर्किंग कमेटी और उसके बाहर मुख्यमंत्रियों में लाल बहादुर शास्त्री के समर्थक बहुत कम थे।
शास्त्री जी के नाम पर बनी सहमति
कामराज ने एक योजना बनाई और वरिष्ठ नेताओं से बात की। उन्होंने सुझाव दिया कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के जितने सदस्य हैं और जितने मुख्यमंत्री हैं उन सबसे कामराज बात करेंगे और उनसे उनकी पसंद पूछेंगे। जिसके पक्ष में ज्यादा समर्थन होगा उन्हें सर्वसम्मति से नेता चुना जाएगा। मोरारजी को समझ में आ गया कि यह उनको काटने का तरीका है। उन्होंने विरोध किया लेकिन उनकी सुनी नहीं गई क्योंकि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में उनके खिलाफ लोग ज्यादा थे। कामराज और उनके साथियों का बहुमत था। फिर यह प्लान शुरू हो गया और कामराज ने सबसे बात कर आखिर में बताया कि ज्यादातर लोग चाहते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनें। मोरारजी के जो करीबी लोग थे उन्होंने उनसे कहा कि आपको इसे चैलेंज करना चाहिए और वोटिंग के लिए दबाव डालना चाहिए कि पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग में मतदान हो। लेकिन मोरारजी ने कहा कि इससे पार्टी टूट जाएगी। उन्होंने पार्टी के अनुशासन के नाम पर चुपचाप इसको स्वीकार कर लिया। पार्लियामेंट्री पार्टी की जब बैठक हुई तो लाल बहादुर शास्त्री के नाम का प्रस्ताव किया गुलजारी लाल नंदा ने और मोरारजी देसाई ने उसका समर्थन किया। इस तरह से 2 जून, 1964 को लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन इसके बाद भी शास्त्री जी का मार्ग निष्कंटक नहीं।
उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हर बात में हर जगह उनकी तुलना नेहरू जी से हो रही थी। नेहरू की लीगेसी से उनका मुकाबला था। शुरू में वह थोड़ा सकुचाते थे, थोड़ा इंट्रोवर्ट रहे। पार्लियामेंट में विजय लक्ष्मी पंडित ने उनका मजाक भी उड़ाया और कहा कि ये प्रिजनर ऑफ इंडिसीजन हैं, फैसला नहीं ले पाते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जब शास्त्री जी खुलने लगे तो क्या हुआ ये सब जानते हैं। उससे पहले इंदिरा गांधी की बात करना जरूरी है। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया। नेहरू-गांधी परिवार की यह खूबी है कि जब बड़ा पद आता है तो उसे लेने से मना कर देते हैं, जिम्मेदारी से पहले भागते हैं लेकिन वे उसे चाहते हैं। वह पद न मिले तब भी उसके अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं। ये जो आज आप देख रहे हैं राहुल गांधी को, उससे पहले सोनिया गांधी को, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए किस तरह से प्रधानमंत्री का काम कर रही थीं, ये सब वही इंदिरा गांधी की लीगेसी है। इंदिरा गांधी की जीवनीकार हैं कैथरीन फ्रैंक जिन्होंने किताब लिखी है इंदिरा के नाम से “द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी”। इसमें उन्होंने बड़े विस्तार से लिखा है कि इंदिरा गांधी की एक बड़ी करीबी मित्र थीं डोरोथी नॉर्मन, उनसे उनका पत्र व्यवहार बहुत होता था। अपने मन की बात अगर किसी से बताती थीं तो वह थीं डोरोथी नॉर्मन। उनको दो साल से इंदिरा गांधी लिख रही थीं कि न मेरा राजनीति में मन लग रहा है, न भारत में मन लग रहा है। मैं यह सब छोड़ कर निकल जाना चाहती हूं और एक सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिताना चाहती हूं, कहीं विदेश में रहना चाहती हूं। नेहरू जी की मौत के बाद भी इसी तरह से संबंधित बातों के साथ उन्होंने उनको चिट्ठी लिखी थी।
कैबिनेट मंत्री बनने को हो गई तैयार
इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया तो कैथरीन फ्रैंक को लगा कि वह जो लिख रही थीं डोरोथी नॉर्मन को वह सही बात थी। लेकिन कुछ ही दिन बाद इंदिरा गांधी लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में शामिल होने को तैयार हो गईं। जाकिर हुसैन के जरिये लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे पूछवाया कि वह कैबिनेट में आना चाहेंगी और कौन सा मंत्रालय चाहेंगी। कैथरीन फ्रैंक से तो इंदिरा गांधी ने कहा था कि वह विदेश मंत्रालय चाहती थीं लेकिन उनकी बात गलत थी। उन्होंने कभी विदेश मंत्रालय मांगा ही नहीं। उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय मांगी। इसलिए कि उन्हें अपनी छवि बनानी है। उन्होंने कहा कि मैं देश में ही रहना चाहती हूं और अपने पिता के काम को आगे बढ़ाना चाहती हूं। मैं जिस दुख से गुजर रही हूं उसमें बाहर जाना संभव नहीं है। शास्त्री जी ने सरदार स्वर्ण सिंह को विदेश मंत्री बनाया। वे उन्हीं को बनाना भी चाहते थे। पूरी कैबिनेट में अगर उनका सबसे विश्वस्त कोई था तो वह सरदार स्वर्ण सिंह थे। बाकी नेहरू जी के समय के मंत्री थे जिनको शास्त्री जी फिलहाल हटाना नहीं चाहते थे। उनमें सबसे ऊपर जो उनके निशाने पर थे वह टीटी कृष्णमाचारी थे। ताशकंद जाने से पहले उन्होंने उनका इस्तीफा लिया और उसे मंजूर कर लिया। उनके इस्तीफे को जब राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली के पास भेजा तो उन्होंने कहा कि अभी इसे रोक लीजिए। ताशकंद से लौट कर आइए तब इसे मंजूर कीजिएगा, शास्त्री जी ने मना कर दिया। इंदिरा गांधी शास्त्री जी की कैबिनेट में मंत्री बन गईं और उनकी हैसियत चौथे नंबर की थी। प्रधानमंत्री के बाद होम मिनिस्टर गुलजारीलाल नंदा, उसके बाद वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी फिर इंदिरा गांधी। लेकिन इंदिरा गांधी को यह हैसियत मंजूर नहीं थी।
कैथरीन फ्रैंक कहती हैं कि उनको समझ में नहीं आया कि जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया, जब वो यह सब छोड़ कर चली जाना चाहती थी, जब वो राजनीति में नहीं रहना चाहती थी तो फिर उन्होंने कैबिनेट मंत्री बनना क्यों स्वीकार कर लिया। जबकि वह लाल बहादुर शास्त्री को बिल्कुल पसंद नहीं करती थीं। यह बात उन्हें समझ में नहीं आई तो उन्होंने अपने से जो निष्कर्ष निकाला, वह यह कि उसकी वजह यह थी कि तीन मूर्ति भवन राष्ट्रीय संग्रहालय बन जाएगा, यहां नेहरू मेमोरियल संग्रहालय बनेगा तो उनके पास रहने के लिए दिल्ली में कोई जगह नहीं बचेगी। उनके पास नियमित आमदनी का कोई जरिया भी नहीं था। नेहरू जी की किताबों की रॉयल्टी आती थी लेकिन वह भी कभी कम कभी ज्यादा, नियमित तौर पर नहीं आती थी। उनको नियमित आमदनी की जरूरत थी और रहने के लिए एक छत की जरूरत थी। इसलिए कैबिनेट मंत्री बन गईं। आपमें से कोई इस बात को मान सकता है कि इंदिरा गांधी की स्थिति ऐसी हो गई थी कि नियमित आमदनी के लिए और रहने के लिए छत की जरूरत की वजह से मजबूरन उन्हें लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में मंत्री बनना पड़ा। यह कैथरीन फ्रैंक तो मान सकती हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि भारत का कोई नागरिक इसे स्वीकार कर सकता है। इंदिरा गांधी ने इस बारे में कभी किसी को खुलकर बताया भी नहीं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।
नेहरू की बेटी होने का था दंभ
कैबिनेट मिनिस्टर बन गई तो उनको 1 सफदरजंग का घर मिला। उसमें वह करीब 20 साल रहीं। बीच के ढाई-तीन साल को छोड़ दीजिए जब जनता पार्टी की सरकार थी। उन्होंने वहीं अंतिम सांस ली यानी वहीं पर उन पर हमला हुआ। उस घर को छोड़कर कहीं और जाने की कोशिश नहीं की। कैथरीन फ्रैंक के मुताबिक, नेहरू जी की बेटी ने मजबूरी में मंत्री बनना स्वीकार कर लिया। अब आप देखिए कि जो शख्स राजनीति में नहीं रहना चाहता था, जो शख्स भारत से दूर चला जाना चाहता था, उसके मन में कितने द्वंद्व चल रहे थे, अकेले में रहना चाहता था वह मजबूरी में कैबिनेट मिनिस्टर बन जाता है। उसके बाद उनकी पहली नाराजगी शास्त्री जी से क्या हुई, नापसंद की तो बाद की बात है। पहली बार सरकार में आने के बाद उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा से कहा कि सरदार स्वर्ण सिंह को विदेश मंत्री बनाने से पहले शास्त्री जी ने मुझसे सलाह नहीं ली। एक कैबिनेट मिनिस्टर अपने प्राइम मिनिस्टर के बारे में यह कह रहा है। यह कैबिनेट मिनिस्टर प्राइम मिनिस्टर के बारे में नहीं कह रहा था, यह नेहरू की बेटी होने का जो दंभ था वह बोल रहा था। देश के प्रधानमंत्री को अपना विदेश मंत्री किसे बनाना है यह वह अपने चौथे नंबर के मंत्री से पूछ कर बनाएं। इससे आप इंदिरा गांधी और पूरे परिवार के माइंडसेट का अंदाजा लगा सकते हैं कि वे किस तरह से सोचते हैं। उसी खुन्नस में इंदिरा गांधी ने विदेशों का दौरा शुरू कर दिया, वह भी प्रधानमंत्री की मंजूरी के बिना। अमेरिका, सोवियत संघ, बुल्गारिया, कनाडा, बर्मा, युगोस्लाविया गईं। इन सब यात्राओं में उन्होंने वहां के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मुलाकात की और भारत की विदेश नीति के बारे में बात की। इससे प्रधानमंत्री की असहजता का अंदाजा लगा लीजिए। लाल बहादुर शास्त्री यह सब इसलिए बर्दाश्त करते रहे कि इंदिरा गांधी नेहरू जी की बेटी हैं। नेहरू के प्रति भारत के लोगों के मन में जो सम्मान था, वह उनको चुप रखे हुए था। वह यह जानते थे कि यह सिलसिला बहुत दिन तक चलने वाला नहीं है। लेकिन इंदिरा गांधी यहीं तक रूक गई होती तो भी गनीमत थी।
प्रधानमंत्री को करने लगी दरकिनार
मार्च 1965 में मद्रास में भाषाई दंगे शुरू हो गए। संविधान में यह व्यवस्था दी गई थी कि संविधान बनने के 15 साल बाद अंग्रेजी को सरकारी भाषा से हटा कर हिंदी को सरकारी भाषा बना दिया जाएगा। 1950 में संविधान लागू होते समय ही बनाया जा रहा था लेकिन नेहरू उसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने उस समय होने नहीं दिया और कहा कि 15 साल का समय मिलना चाहिए तैयारी के लिए। वह एक बहाना था इसे टालने का। तमिलनाडु के लोगों को लगने लगा कि अंग्रेजी को हटाकर हिंदी को सरकारी भाषा बना दिया जाएगा। वे तमिल के लिए नहीं लड़ रहे थे। तमिल भाषा के लिए लड़ रहे होते तो बात समझ में आती है, वे अंग्रेजी के लिए लड़ रहे थे। जाहिर है कि उसका सीधा-सीधा मतलब राजनीतिक था। कुछ लोगों ने आत्मदाह कर लिया। के. कामराज और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मुलाकात हुई। दोनों ने तय किया कि थोड़े दिन शांति रखते हैं, इसको थोड़ा ठंडा होने देते हैं फिर इस पर विचार करते हैं। लेकिन इंदिरा गांधी नहीं रुकीं। उन्होंने दिल्ली से फ्लाइट पकड़ी और सीधे पहुंच गई मद्रास। वहां उन्होंने आंदोलनकारियों को सरकार की तरफ से आश्वासन दिया कि हिंदी को आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जाएगा। इंदिरा गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि लाल बहादुर शास्त्री हिंदी के समर्थक हैं। वह प्रधानमंत्री रहेंगे तो हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाएंगे। शास्त्री जी को नीचा दिखाने, उनके खिलाफ स्टैंड लेने और अपने पिता के समर्थन में स्टैंड लेने के लिए उन्होंने हिंदी के आधिकारिक भाषा बनने का रास्ता ही बंद कर दिया। इससे शास्त्री जी बहुत ज्यादा नाराज हुए। उन्होंने तय कर लिया कि यह सिलसिला ज्यादा दिन तक नहीं चलेगा।
शास्त्री सरकार को अस्थिर करने की चाल
उस समय जब वह मद्रास से लौटकर आईं तो इंदर मल्होत्रा ने फिर उनका इंटरव्यू लिया और उनसे पूछा कि आप प्रधानमंत्री को बिना बताए मद्रास चली गईं और उनको आश्वासन देकर आईं तो उन्होंने कहा कि मैं केवल सूचना एवं प्रसारण मंत्री नहीं हूं। मैं राष्ट्रीय नेता हूं और जो चाहे कर सकती हूं। आपको क्या लगता है कि मैं अगर आज इस्तीफा दे दूं तो यह सरकार बचेगी, उन्होंने खुद ही जवाब दिया कि बिल्कुल नहीं बचेगी। आखिर में उन्होंने कहा, “यस आई हैव जंप ओवर द प्राइम मिनिस्टर हेड”। साथ ही कहा कि जरूरत पड़ी तो फिर ऐसा करूंगी। अब आप कल्पना कीजिए कि आज की तारीख में या किसी भी युग में, नेहरू के समय में भी सरदार पटेल ऐसी भाषा बोल सकते थे क्या। नेहरू से सैकड़ों मतभेद होने के बावजूद इस तरह की भाषा सार्वजनिक रूप से सरदार पटेल भी नहीं बोल सकते थे जो इंदिरा गांधी ने शास्त्री जी के लिए कही। लेकिन कहते हैं कि समय का चक्र बड़ा अजीब तरीके से घूमता है और कई तरीके से घूमता है। यह बात मार्च 1965 की है और सितंबर-अक्टूबर में भारत-पाकिस्तान सीमा पर तनाव बढ़ने लगा। आखिर में युद्ध शुरू हुआ और भारत विजयी हुआ। रातों-रात लाल बहादुर शास्त्री देश के नायक बन गए। पूरे देश में शास्त्री जी की जय जयकार होने लगी। यह बात इंदिरा गांधी को बहुत ज्यादा बुरी लगी। उनके मन में छटपटाहट बढ़ गई। उनको लगा कि बाजी उनके हाथ से निकल रही है। उसके बाद उन्होंने तय किया कि अब वह नया खेल खेलेंगी। उन्होंने चार लोगों की एक चौकड़ी बनाई। दिनेश सिंह जो राज्य मंत्री थे, मोरारजी के मंत्रिमंडल में भी विदेश राज्य मंत्री रहे, योजना आयोग के उपाध्यक्ष अशोक मेहता, इंद्र कुमार गुजराल जिनकी इंदिरा गांधी से दोस्ती हुई थी उनके बड़े भाई जो पेंटर थे उनके जरिये, और चौथे सदस्य थे पत्रकार रोमेश थापर। यह चौकड़ी इंदिरा गांधी की सलाहकार बन गई।
इनमें से इंद्र कुमार गुजराल और दिनेश सिंह लगातार इंदिरा गांधी को उकसाते रहे शास्त्री जी के खिलाफ कुछ न कुछ करते रहने के लिए, उनकी स्थिति को असहज बनाने के लिए, उनको अस्थिर करने के लिए। इंदिरा गांधी ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को दिए इंटरव्यू में कहा कि शास्त्री जी नेहरू जी की समाजवाद और गुटनिरपेक्ष की नीति से भटक रहे हैं। इसके पूरे संकेत उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद दिए थे। उन्होंने इकोनॉमी को ज्यादा उदार बनाने की जरूरत समझी। उनको समझ में आ रहा था कि यह जो कोटा परमिट कंट्रोल है उससे देश की इकोनॉमी नहीं बढ़ेगी। पहला कदम जो उन्होंने उठाया सीमेंट को डीकंट्रोल कर दिया। इसके अलावा देश के उद्योगपतियों को बुलाकर उनके साथ बैठक की, इन्वेस्टमेंट की बात की। इसके अलावा अपने अधिकारियों से कहा कि वे एक प्लान बनाएं ताकि और ज्यादा उदारीकरण किया जा सके। उस समय वे ताशकंद जाने वाले थे। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि जब लौट कर आऊंगा तो इसे लागू किया जाएगा। एक तरफ वे इसकी तैयारी कर रहे थे और दूसरी तरफ इंदिरा गांधी उनके खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी कर रही थीं। इसलिए शुरू में मैंने जो सवाल उठाया था कि आखिर क्या वजह थी कि इंदिरा गांधी चाहती थीं कि लाल बहादुर शास्त्री की बजाय गुलजारी लाल नंदा प्रधानमंत्री बनें, कैथरीन फ्रैंक ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने इसका जवाब कुछ और दिया था। उन्होंने उनसे कहा कि गुलजारी लाल नंदा कह रहे थे कि उनको कुछ दिन और प्रधानमंत्री रहने दिया जाए, इसलिए मैंने उनका समर्थन किया था। लेकिन वजह दूसरी थी।
गुलजारी लाल नंदा को पद से हटाना था आसान
इंदिरा गांधी को मालूम था कि गुलजारी लाल नंदा को हटाना आसान होगा। खुद गुलजारी लाल नंदा भी ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहना नहीं चाहते थे। जबकि लाल बहादुर शास्त्री को हटाना उनके लिए ज्यादा कठिन होगा। लाल बहादुर शास्त्री गरीबी से उठकर यहां तक पहुंचे थे। वे गरीब और गरीबी को समझते थे। लोगों के मन में उनके प्रति आदर का भाव था। इंदिरा गांधी को लगा कि लाल बहादुर शास्त्री अगर ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रह गए तो उनको हटाकर उनका प्रधानमंत्री बनना बहुत कठिन हो जाएगा। इसलिए वह चाहती थीं कि किसी भी सूरत में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री न बनें। जब बन गए तो उनको अस्थिर करने की कोशिश उन्होंने शुरू कर दी। इसके लिए उन्होंने अपनी मंडली बनाई, अपने लोग बनाए और शास्त्री जी के खिलाफ अभियान चलाना शुरु कर दिया। इसी बीच शास्त्री जी जनवरी 1966 के पहले हफ्ते में ताशकंद गए। वे वहां से लौटकर नहीं आए, उनका पार्थिव शरीर आया। रात के डेढ़ बजे इंदिरा गांधी को उनके निजी सचिव ने शास्त्री जी के निधन की खबर दी। साथ ही उन्हें बताया कि राष्ट्रपति भवन में शपथ ग्रहण समारोह होने जा रहा है। गुलजारी लाल नंदा वहां पहुंच चुके थे, इंदिरा गांधी पहुंची और टीटी कृष्णमाचारी पहुंचे। गुलजारी लाल नंदा के अलावा वहां सिर्फ ये दो लोग थे। रात के सवा तीन बजे गुलजारी लाल नंदा को फिर से कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। तड़के 4 बजे इंदिरा गांधी अपने घर लौटी और लौटते ही सबसे पहला फोन किया रोमेश थापर।
रोमेश थापर से उन्होंने कहा कि तुरंत घर आ जाओ। इंदिरा गांधी नहीं चाहती थी कि इस बार कोई चूक हो, कोई और प्रधानमंत्री बन जाए। इस बार वह प्रधानमंत्री का पद मना करने के मूड में नहीं थी लेकिन आदत से मजबूर थी यह जताने को कि हम तो त्याग करते हैं, हम सत्ता नहीं चाहते हैं। उन्होंने रोमेश थापर से पूछा कि आपको क्या लगता है कि क्या करना चाहिए? थापर ने पलट कर पूछा कि आप क्या करना चाहती हैं? इंदिरा गांधी ने कहा, कुछ नहीं। वह चाहती थीं कि रोमेश थापर कहें कि आप प्रधानमंत्री बनने का प्रयास कीजिए। शास्त्री जी के निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन गईं। लेकिन परिवार का जो यह इंटाइटलमेंट का स्वभाव है उसके बारे में कैथरीन फ्रैंक ने भी लिखा है। उन्होंने बहुत कोशिश की समझने की कि आखिर यह हो क्या रहा है। इंदिरा गांधी बोलती कुछ हैं, चिट्ठी में अपनी सहेली को लिखती कुछ हैं और करती कुछ हैं। उन्होंने लिखा कि दरअसल इंदिरा गांधी को बचपन से ही लाइमलाइट में रहने की आदत हो गई थी। यह उनके स्वभाव का अंग बन गया था। वह बिना लाइमलाट के रह नहीं सकती थीं। इसके लिए पावर चाहिए और पावर प्रधानमंत्री बने बिना आ नहीं सकती थी। इससे छोटा पद उनके लिए ठीक नहीं था। इसलिए उन्होंने पहले कदम के रूप में शास्त्री जी के कैबिनेट में मंत्री बनना मंजूर किया। लाल बहादुर शास्त्री अगर कुछ समय तक और प्रधानमंत्री होते तो देश किस दिशा में जाता, इसकी हम आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं।