विशेष

प्रमोद जोशी।
पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में इमरान खान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सफल रहने के बाद सोमवार से पाकिस्तानी राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा, जिसमें संभवतः शहबाज़ शरीफ देश के नए प्रधानमंत्री बनेंगे। सोमवार को असेंबली का एक विशेष सत्र होने वाला है जिसमें नए प्रधानमंत्री का चुनाव किया जाएगा, जो अगले चुनावों तक कार्यभार संभालेंगे। चुनाव समय से पहले नहीं  हुए, तो वे अक्तूबर 2023 तक प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं। अगले एक साल और कुछ महीने का समय पाकिस्तान के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसले इस दौरान होंगे। खासतौर से अमेरिका-विरोधी झुकाव में कमी आएगी। उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता लेने और एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से बाहर आने के लिए अमेरिकी मदद की जरूरत है। 

पहले प्रधानमंत्री

Pakistan PM Imran Khan refuses to condemn repression of Muslim Uyghurs in China - World News

शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में 174 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। मतदान से पहले नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। असद कैसर के बाद पीएमएल-एन नेता अयाज़ सादिक ने सत्र की अध्यक्षता की। पाकिस्तान के इतिहास में इमरान देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अविश्वास-प्रस्ताव के मार्फत हटाया गया है। इसके पहले 2006 में शौकत अजीज और 1989 में बेनजीर भुट्टो के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव लाए गए थे, पर उन्हें हटाया नहीं जा सका था।
पिछले दो  हफ्ते के घटनाक्रम में बार-बार इमरान खान के ‘तुरुप के पत्ते’ का जिक्र होता रहा, जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ‘ट्रंप-कार्ड’ कहा। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे इस बात की पुष्टि हुई। उनके समर्थकों ने उसे ‘मास्टर-स्ट्रोक’ बताया। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। साथ ही उन 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया, जो उनके खिलाफ खड़े थे। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब ‘बिके हुए’ नहीं, असंतुष्ट लोग हैं।

सुप्रीम-हस्तक्षेप

अविश्वास प्रस्ताव के पहले इमरान खान ने जारी किया व्हिप, सदन में साथ रहें या वोटिंग सत्र में शिरकत न करें

बहरहाल देश के उच्चतम न्यायालय ने संसद के उपाध्यक्ष के फैसले को रद्द करके पूरी योजना को ध्वस्त कर दिया। इमरान खान साबित नहीं कर पाए कि उनके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय साजिश है। देश की सेना ने भी ऐसा नहीं माना। उन्हें समझना चाहिए था कि बदहाली क्यों है?  जनता परेशान क्यों है? ऐसा करने के बजाय उन्होंने बचकाने बयान जारी करके अपनी साख गिराई। वह भी ऐसे दौर में जब दुनिया अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है।
पिछले कुछ हफ्तों में पाकिस्तान में जो कुछ हुआ, उसके पीछे इस देश के लोकतंत्र के लिए अच्छे और खराब दोनों तरह से संकेत छिपे हुए हैं। अच्छी बात है कि ‘देशद्रोह और गद्दारी’ की साजिशों और दूसरे किस्म की कलाबाजियों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने सांविधानिक-व्यवस्था को कायम रखा। दूसरे सेना ने खुद को नागरिक-प्रशासन से दूर रखा। पर इस दौरान व्यक्तिगत रूप से इमरान खान ने राजनीति के जिन तौर और कुर्सी से चिपके रहने के जिन तरीकों को अपनाया, वह चिंताजनक है।

बैरूनी-साजिश

Gas pipeline dominates Pakistan PM Khan's Russia trip | The Third Pole

इमरान ख़ान का कहना है कि उन्हें सत्ता से बाहर निकालने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में साजिश रची गई है। उनके विरोधी, बैरूनी (विदेशी) ताकतों के साथ मिल गए हैं। यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध छिड़ने के दिन इमरान ख़ान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाक़ात करने रूस पहुंचे थे। इमरान का कहना है कि रूस और चीन के मामले में उन्होंने अमेरिका के साथ खड़े होने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद उन्हें सत्ता से निकालने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में साजिश रची जा रही थी। उन्होंने अपने विरोधियों को विदेशी-ताकतों के हाथों बिका हुआ, घोषित कर दिया। संकीर्ण धार्मिक-आधार पर बने देश की जनता को वे लगातार धार्मिक आधार पर भड़काते रहे हैं। उनकी बदज़ुबानी के इसके छींटे भारत पर भी पड़े हैं।
इमरान खामोश नहीं रहेंगे। अंदेशा है कि आने वाले वक्त में, खासतौर से चुनाव के दौरान हालात बिगड़ेंगे। इमरान खान को लगता है कि उन्होंने अमेरिका-विरोधी माहौल बनाकर जनता के एक बड़े वर्ग की हमदर्दी हासिल कर ली है। वे इसीलिए फौरन चुनाव चाहते हैं। उनकल विरोध में फौरी तौर पर राजनीतिक दलों में एकता कायम हो गई है, पर यह एकता कितनी दूर तक चलेगी, यह कहना मुश्किल है। अंदेशा यह भी है कि नई सरकार इमरान खान से राजनीतिक-बदला लेने की कोशिश कर सकती है। हालांकि पीएमएल-एन के अध्यक्ष शहबाज़ शरीफ़ ने कहा है कि हम किसी से बदला नहीं लेंगे, लेकिन क़ानून अपना काम करेगा।

सेना का समर्थन

PM Imran briefed on national and regional security situation during visit  to ISI headquarters - Pakistan - DAWN.COM

माना जाता है कि इमरान ख़ान को 2018 के चुनाव में देश की सेना का समर्थन हासिल था। पर अब पर्यवेक्षकों का कहना है कि सेना ने उनकी पीठ पर से हाथ हटा लिया था। अब संभवतः देश में सेना के समर्थन से असैनिक सरकार चलाने की ‘हाइब्रिड-व्यवस्था’ में बदलाव होगा। यह व्यवस्था इमरान खान की सरकार के साथ ही शुरू हुई थी। 2008 में परवेज़ मुशर्रफ की सरकार के हटने के बाद से सेना एक समांतर शक्ति के रूप में काम कर रही थी और देश की सुरक्षा और विदेश-नीति के फैसले कर रही थी।
इमरान खान के दौर के शुरुआती वर्षों में सेना की भूमिका काफी बढ़ गई थी। पर इस दौरान इमरान सरकार ने विदेश-नीति से जुड़े फैसले सीधे करने की कोशिश की और अनाप-शनाप बयान भी दिए। पाकिस्तान में सेना को ‘एस्टेब्लिशमेंट या सत्ता-प्रतिष्ठान’ माना जाता है। मोटे तौर पर उसकी भूमिका पूरी तरह खत्म भी नहीं होगी, पर लगता है कि यह भूमिका विदेश-नीति और राष्ट्रीय-सुरक्षा तक ही सीमित रहेगी। सन 2018 के चुनाव में इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ को सेना के समर्थन के बावजूद बहुमत नहीं मिला था। उन्हें छोटे दलों का समर्थन दिलाने में भी सेना की भूमिका थी।

बढ़ता अहंकार

मामूली बहुमत से सरकार चलती रही, पर इमरान खान का अहंकार बढ़ता चला गया। वे आंतरिक राजनीति के साथ ही विदेश-नीति में भी विफल हुए। इमरान को इतना तो समझ में आता ही था कि वे संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना नहीं कर सकेंगे, फिर भी उन्होंने हटना स्वीकार नहीं किया और जो तोड़ निकाला, वह बचकाना था। यह भी मानना होगा कि इमरान ने करीब साढ़े तीन साल की सत्ता में लोकप्रियता हासिल करने के अलावा सत्ता के गलियारों में घुसपैठ कर ली है। वे राजनीतिक ताकत बने रहेंगे।
Imran Khan Defended Draconian PECA Ordinance In The Name Of Child  Pornography
2018 के चुनाव में इमरान खान को आगे बढ़ाने में वहाँ के मीडिया ने भी मदद की थी, पर प्रधानमंत्री बनने के बाद वे मीडिया के ही खिलाफ हो गए। उनसे पहले की सरकार ने ‘प्रिवेंशन ऑफ इलेक्ट्रॉनिक क्राइम्स एक्ट (पेका)’ बनाया था, जिसे इमरान खान ने और कठोर बना दिया। पर लोकतांत्रिक भविष्य उसकी संस्थाओं की परिपक्वता पर निर्भर करेगा। न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका के संतुलन को बनाने की जरूरत है। इस वक्त जो समाधान हो रहा है, वह नज़ीर बनकर भविष्य के संकटों को खड़ा होने से रोकेगा। संकटों के विवेकशील समाधान से ही लोकतांत्रिक-व्यवस्था पुख्ता होती है।

भारत का उदाहरण

इमरान खान ने अपने एक भाषण में भारत की ‘खुद्दारी’ की तारीफ की। पर वस्तुतः यह बात बार-बार साबित हुई कि वे भारत के प्रशंसक नहीं नफरत करने वालों में हैं। बहरहाल इस परिघटना में भारत के लिए भी कुछ नसीहतें छिपी हैं और आश्वस्ति के कुछ कारण भी हैं। हमारे यहाँ सत्ता-परिवर्तन अपेक्षाकृत आसानी से होते रहे हैं। पाकिस्तान को यह बात सीखनी चाहिए।
What led to leader Imran Khan's downfall in Pakistan? | Imran Khan News |  Al Jazeera
उनके हटने के बाद क्या दोनों देशों के रिश्ते सुधरेंगे? हो सकता है कि कुछ बदलाव हो, पर बड़ी उम्मीदें पालना गलत होगा। पाकिस्तान की राजनीति में ‘भारत-द्रोह’ केंद्रीय राजनीतिक-सिद्धांत है। पूरी व्यवस्था इसपर चलती है। इमरान खान के पहले नवाज़ शरीफ के दौर में बातचीत शुरू करने की कोशिश हुई थी, पर शायद उन्होंने सेना को भरोसे में नहीं लिया था। उसके परिणाम में ही आज इमरान खान हमारे सामने हैं।
पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। हाल में जारी राष्ट्रीय-सुरक्षा की नई नीति के प्रारूप में कहा गया है कि असली आर्थिक-सुरक्षा है। पिछले साल नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का भारत के साथ जो समझौता हुआ था, वह अभी तक कारगर है। इसका मतलब है कि दोनों देशों के बीच किसी स्तर पर समन्वय है। इसी पृष्ठभूमि में पिछले साल पाकिस्तान ने भारत से कपास और चीनी खरीदने का पहले फैसला किया और फिर उसे रद्द कर दिया। इससे सरकार के अंतर्विरोध तो मुखर हुए ही, साथ ही इमरान खान की अपरिपक्वता भी सामने आई।
जो भी नई राजनीतिक-व्यवस्था बनेगी, वह खुद को भारत-हितैषी साबित नहीं करना चाहेगी। हाँ, व्यापार की आंशिक शुरुआत सम्भव है, जो दोनों देशों के बीच विश्वास-बहाली का बड़ा जरिया है। यदि दक्षेस को सक्रिय करना सम्भव हुआ या पाकिस्तान में दक्षेस शिखर सम्मेलन करा पाना सम्भव हुआ, तो वह बड़ी सफलता होगी। पाकिस्तान को श्रीलंका के अनुभव से सीखना चाहिए। अभी नहीं जागे, तो सब कुछ खो देंगे। सकारात्मक तरीके से सोचेंगे तब भी बदलाव अपना समय लेगा। दक्षिण एशिया को गरीबी और पिछड़ेपन से छुटकारा दिलाने के लिए नए रास्तों की जरूरत है। दुर्भाग्य से भारत- पाकिस्तान- बांग्लादेश और श्रीलंका में संकीर्णता की आँधियाँ चल रही हैं। उन्हें रोकना होगा। पर कैसे और कौन रोकेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)