साल 1967 में जब कामराज ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अवकाश लिया तो यह पद रूढ़िवादी निजलिंगप्पा को मिला। वह इससिंडिकेट के शुरुआती सदस्य थे। इस वजह से इंदिरा को अपने लोगों को कांग्रेस की नई कार्यसमिति में शामिल कराने में सफलता नहीं मिली। इसके बाद सिंडिकेट के सदस्य इंदिरा को गद्दी से उतारने की योजना बनाने लगे। 12 मार्च, 1969 को निजलिंगप्पा ने अपनी डायरी में लिखा, मुझे ऐसा नहीं लगता कि वह (इंदिरा गांधी) प्रधानमंत्री के रूप में बने रहने के काबिल हैं। शायद बहुत जल्दी मुकाबला होगा। 25 मार्च को उन्होंने लिखा कि मोरारजी देसाई ने उनसे प्रधानमंत्री को हटाए जाने की जरूरत पर चर्चा की।
भारतीय रेलवे ने 1.5 लाख लाख युवाओं को दिए रोजगार, 9 साल में की रिकॉर्ड भर्तियां
हालांकि सिंडिकेट के इन कुचक्रों के प्रति इंदिरा गांधी सचेत थीं। हालांकि वो पार्टी की एकता और अपने सरकार के अस्तित्व को खतरे में नहीं डालना चाहती थीं। वो जी-तोड़ कोशिश में लगी थीं कि खुलेआम संघर्ष और विभाजन को टाला जाए। इस बीच मई 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु हो गई। सिंडिकेट राष्ट्रपति के पद पर अपने किसी आदमी को बैठाना चाहता था। उसने इंदिरा के विरोध के बावजूद नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मनोनीत कर दिया।
इससे आहत इंदिरा को लगा कि अब खुलकर मैदान में आना ही होगा। उन्होंने पहले तो मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय छीना। फिर 14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की। इसके बाद राजाओं के प्रिवीपर्स को बंद करने की घोषणा की। उनकी दोनों घोषणाओं का जनता के बीच सकारात्मक असर हुआ। अब वह खुले तौर पर मैदान में उतर आईं। उन्होंने कांग्रेस के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वीवी गिरी को अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील की। इसका नतीजा यह हुआ कि वीवी गिरी चुनाव जीत गए। इससे तिलमिलाए सिंडिकेट ने 12 नवंबर 1969 को उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से बाहर कर दिया। इंदिरा गांधी ने तुरंत अलग प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस संगठन बनाया। इसे नाम दिया कांग्रेस (आर) । सिंडिकेट के प्रभुत्व वाली कांग्रेस का नाम पड़ा कांग्रेस (ओ) । (एएमएपी)