(14 मार्च पर विशेष)

देश-दुनिया के इतिहास में 14 मार्च की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े परिवर्तन की गवाह है। ठीक 93 साल पहले भारतीय सिनेमा की पहली सवाक (बोलती) फिल्म ‘आलम आरा’ रिलीज हुई थी। इस फिल्म का पहला शो मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को दिखाया गया। शो तीन बजे शुरू होना था, लेकिन लोग सुबह नौ बजे ही सिनेमा हॉल के बाहर जमा हो गए थे। भीड़ को बेकाबू होता देख पुलिस बुलानी पड़ी। दर्शकों पर लाठीचार्ज भी हुआ। इस फिल्म की दीवानगी का आलम ये था कि इसके टिकट लोगों ने ब्लैक में 50-50 रुपये में खरीदे, जो उस जमाने में काफी बड़ी रकम हुआ करती थी।

124 मिनट की थी फिल्म

यह फिल्म एक राजकुमार और एक बंजारन लड़की की प्रेमकथा थी। आलम आरा जोसफ डेविड के लिखे एक पारसी नाटक पर आधारित थी। अर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनी इस फिल्म में मास्टर विट्ठल, जुबैदा, जिल्लो, सुशीला और पृथ्वीराज कपूर ने भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में सात गाने थे। इसी फिल्म का ‘दे दे खुदा के नाम पे’ को भारतीय सिनेमा का पहला सॉन्ग माना जाता है। इसे वजीर मोहम्मद खान ने गाया था। 124 मिनट की इस फिल्म को इम्पीरियल मूवीटोन नाम की प्रोडक्शन कंपनी ने प्रोड्यूस किया था।

नहीं थे साउन्ड सीक्वन्स जोड़ने के उपकरण

जिस वक्त की ये बात है, उस वक्त फ़िल्म जगत के मौजूदा हालातों मे साउन्ड सीक्वन्स ऐड करने के उपकरण का कोई इंतजाम नहीं था। उसके बावजूद इंतजाम करके, उपकरण मगवाये गए और एक नहीं, बल्कि दो भाषाओं हिन्दी और संस्कृत मे इस फ़िल्म को बनाया गया। इस फ़िल्म मे साउन्ड सीक्वन्स और डायलॉग्स के साथ साथ गाने भी फिल्माए गए। और यही नहीं, गाने मशहूर भी हुए। वजीर मोहम्मद खान द्वारा गाया हुआ मशहूर गाना “दे दे खुदा के नाम पर” उस वक्त काफी प्रसिद्ध हुआ था।

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खो गई फ़िल्म

सोचिए, आपका मेहनत और लग्न से हासिल किया हुआ वह पहला अवॉर्ड खो जाए तो। कुछ ऐसा ही हुआ भारतीय सिनेमा के साथ जब उसका यह अनमोल रत्न कहीं गुम हो गया। आलम आरा की कोई भी ज्ञात प्रतियां बची नहीं हैं। फिल्मी जगत के लिए यह एक बोहोत ही दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जिस फ़िल्म ने भारतीय सिनेमा मे आवाज़ को पैदा किया, वही फ़िल्म आज भारतीय सिनेमा के इतिहास मे सिर्फ पन्नों मे दर्ज हो कर रह गई है। फिल्म भले ही गुम हो गई हो, फिर भी भारतीय सिनेमा के इतिहास मे आलम आरा का नाम हमेशा ही स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा, क्यूंकि यही डब्ल्यूओ फ़िल्म है जिसने भारतीय सिनेमा को उसका वह प्रारूप दिया, जिस रूप मे आज हम उसे जानते हैं।(एएमएपी)