त्वरित टिप्पणी/ उत्तराखंड आपदा
व्योमेश जुगरान ।
उत्तराखंड में रविवार को जो आपदा आई वह कितनी प्रकृतिजनित थी और कितनी मानवजनित- यह एक अलग विषय है। वह कितनी भयावह हो सकती थी इसका अनुमान भी आपको भीतर तक झकझोर देगा। अगर तपोवन हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट पूरा हो गया होता और तब यह हादसा हुआ होता तो ऋषिकेश और हरिद्वार तक तबाह हो गए होते।
ध्यान से सुनिए हिमालय की चेतावनी
हम प्रकृति के साथ रहना सीखने को तैयार नहीं हैं शायद! हिमालय ने फिर चेताया है। चेतावनी इस बार भारत-चीन सीमा पर मलारी क्षेत्र में अपर हिमालय से आई है। यह वही मलारी है जिसे चिपको की जननी कहा जाता है और चिपको वूमन गौरा देवी का गांव रैणी इसी क्षेत्र में है। गाहे-बगाहे इस क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की भी खबरें आती रहती हैं। यहां भारत-तिब्बत सीमा पुलिस का अंतिम कैंप घस्तौली है। आईटीबीपी का पुल बह जाने से मलारी क्षेत्र के कई गांवों का संपर्क कट जाने की भी खबर है।
ग्लेशियर ही टूटा या कोई अज्ञात झील उजड़ी
सीमावर्ती होने के अलावा यह इलाका पर्यावरण और इकोलॉजी की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है। सवाल अधिक या ज्यादा नुकसान का नहीं है और न राहत की उस सांस का है जो इस ‘जल प्रलय’ के टल जाने से महसूस की जा रही है। सवाल यह है कि आखिर ऋषिगंगा के ऊपर ग्लेशियर टूटा क्यों और क्या ग्लेशियर ही टूटा या कोई अज्ञात झील उजड़ी?
ग्लेशियरों का चटकना सामान्य प्रक्रिया
अपर हिमालय में ग्लेशियरों का चटकना और बफार्नी हलचलें सामान्य प्रक्रिया है। हिमशिखरों से घिरी घाटियों के अंतिम गांवों के लिए खासकर रात में इन हलचलों की विस्फोटक आवाजें कतई असामान्य नहीं हैं। चूंकि ये हलचलें हिमालय में मीलों अंदर होती हैं, लिहाजा ये मानवीय बस्तियों के लिए कोई सैंदिष्ट खतरा खड़ा नहीं कर पातीं। लेकिन जलवायु परिवर्तन के साथ अपर हिमालय की संवेदनशील घाटियों में बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप इन हलचलों को हमारे करीब लाता जा रहा है।
अराजक संस्कृति ने हिमालय को कमजोर किया
ऋषिगंगा और धौली गंगा की रौद्रता इसी की बानगी है। बफरजोन यानी बायोस्फर (नंदादेवी रिजर्व) क्षेत्र जैसे संवेदनशील इलाकों में बड़े बांधों की इजाजत, नियमों को धता बताते और पहाड़ों को कंपाते हैली सेवाओं के व्यावसायिक फेरे, पहाड़ को पर्यटन के बहाने निचोड़ने की इकतरफा सोच, कुदरती संसाधनों का अवैध दोहन और सरकारी-गैरसरकारी निर्माण कार्यों की अराजक संस्कृति वगैरह ने हिमालय को लगातार कमजोर किया है।
हम और हमारी सरकारें 2013 की केदार त्रासदी से कोई सबक नहीं लेना चाहतीं। उस त्रासदी और उसके बाद का कच्चा चिट्ठा सामने है, आपको मुंह चिढ़ा रहा है। हमारी नैसर्गिक नदियों को सुरंगों में ठेला जाएगा तो वे पहाड़ों और हिमनदों को पुकारेंगी ही।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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