एक दिन यहां वे पूर्व परिचित पृथ्वीराज कपूर से मिले जिन्होंने तुरंत ही उन्हें नाटक लिखने के लिए एडवांस के तौर पर सौ रुपये दे दिए। उन्होंने उनके लिए कलाकार और गौरा नाम के दो नाटक लिखकर दिए। फिर पृथ्वीराज कपूर के कहने पर राजकपूर ने उनसे बरसात फिल्म लिखवाई और इतिहास बन गया। वे सबसे लोकप्रिय और सफल फिल्म लेखक बन गए । दक्षिण की प्रसिद्ध फिल्म निर्माण कंपनी जैमिनी ने अपनी हिंदी फिल्म उनसे लिखाना शुरू किया। यहीं की फिल्म पैगाम की कहानी और संवाद रामानंद सागर ने ही लिखे थे जिसमें राजकुमार और दिलीप कुमार की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी ।
दोनों उस फिल्म में भाई थे। ‘पैगाम’ के निर्माण के दौरान यह दोनों ही स्टार अभिनेता हमेशा अपने अपने संवादों को लेकर बेहद सजग रहते थे जिसके चलते अनेक बार दोनों के अहं में टकराव हो जाता था। इसी का एक रोचक किस्सा सागर साहब के पुत्र आनंद सागर ने उन पर लिखी किताब में साझा किया है। रामानंद सागर ने फिल्म ‘संगदिल’ से ‘इंसानियत’ तक दिलीप कुमार के साथ काम किया था। दोनों में एक-दूसरे की कला के प्रति आदर का भाव था। यह बात प्रसिद्ध थी कि यदि फिल्म की मुख्य भूमिका में दिलीप कुमार और संवाद लेखक रामानंद सागर होते थे और यदि किसी दृश्य के संवाद में परिवर्तन किया जाता था तो दिलीप कुमार किसी भी हालत में तब तक शॉट नहीं देते थे, जब तक रामानंद सागर को सेट पर बुलाकर उनसे उनकी सहमति न ले ली जाती।
राजकुमार यह बात जानते थे। एक दिन जैमिनी स्टूडियो में सेट पर दो भाइयों के बीच अत्यधिक नाटकीय अहं के टकराव के दृश्य के लिए राजकुमार ने कहा- “जानी, इस सीन के संवाद मेरे जोशीले चरित्र के अनुरूप नहीं हैं। इसमें मेरे छोटे मृदुभाषी भाई दिलीप कुमार के संवादों की तुलना में और अधिक नाटकीयता लेकर आओ। सेट पर सन्नाटा छा गया। रामानंद सागर से इस प्रकार की रौबदार भाषा में कोई भी कभी नहीं बोला था। रामानंद सागर और दिलीप कुमार ने एक-दूसरे को देखा। रामानंद सागर ने लाइट्स बंद करने के लिए कहा और अपने सहायक को बुलाकर इतने जोर से कहा कि सब सुन सकें, राज से कहो कि फिल्म का चरित्र अभिनेता से अधिक महत्वपूर्ण है, मैं चाहूं तो भी मैं यह संवाद बदल नहीं सकता। ऐसा करने से दो भाइयों के बीच आदर्शवादी टकराव का दर्शन फीका पड़ जाएगा; विषय-वस्तु पर अभिनेता हावी हो जाएगा।
और निर्देशक एसएस वासन की कुर्सी पर बैठ गए। बहुत कम रोशनी थी, लगभग अंधेरा ही था, कोई कुछ नहीं बोला या फुसफुसाया समय चलता रहा। दोनों अभिनेता गहन शांति के साथ अपनी कुर्सियों पर बैठे थे। कई घंटे बीत गए। आखिर राजकुमार आहिस्ता से उठे, सबने उनकी प्रसिद्ध पदचाप सुनी, वे सागर जी के पास आए और बोले- क्या शॉट है, जानी ? और तनावपूर्ण वातावरण में शूटिंग फिर आरंभ हो गई।
चलते-चलते
रामानंद सागर को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। दिलीप कुमार और राजकुमार ने दोबारा एक साथ काम नहीं किया, जब तक कि एक व्यावसायिक ताने-बाने से बुनी फिल्म ‘सौदागर’ में सुभाष घई उन्हें साथ लेकर नहीं आए थे। रामानंद सागर के संघर्ष और दिन-रात के परिश्रम ने उन्हें जैमिनी स्टूडियो का अहम हिस्सा बना दिया । उन्होंने इसके मालिक एसएस वासन से बॉक्स ऑफिस पर सफलता का फॉर्मूला फिल्म शिल्प सीखा और बड़ी बहू, जान-पहचान, पूनम, शिन शिना बूबला बू, संगदिल, शगूफा, इल्जाम, दीदी, रुखसाना, इंसानियत, राज तिलक, घूंघट, जिंदगी जैसी फिल्मों के साथ नया इतिहास रचा।
(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। वे साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)