गुरु नानक जयंती पर विशेष।

ओशो।
जब तुम जीतो, तो यह मत सोचना कि मैं जीत रहा हूं। और अगर तुम जीत में ही न सोचोगे कि मैं जीत रहा हूं, तो हार में भी तुम पाओगे कि मैं नहीं हार रहा हूं। वही जीतता है, वही हारता है। उसका ही खेल है। इसलिए हिंदू इस पूरे जगत को लीला कहते हैं। लीला का मतलब है, हारता भी वही, जीतता भी वही। इस हाथ से जीतता है, उस हाथ से हारता है। लेकिन जीतने और हारने वाले बीच में ही सोच लेते हैं; जो उपकरण हैं, जो निमित्त हैं, जो साधन हैं, वे समझ लेते हैं, हम कर्ता हैं।

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कृष्ण अर्जुन को गीता में कह रहे हैं कि तू व्यर्थ बीच में अपने को मत ले। वही कर रहा है, वही करवा रहा है। युद्ध उसका आयोजन है। जिनको मारना है वह मारेगा। जिनको बचाना है वह बचाएगा। तू यह मत सोच कि तू मारने वाला है और तू बचाने वाला है। कृष्ण पूरी गीता में जो कहते हैं, वही नानक इन शब्दों में कह रहे हैं- हुकमी होवन जीअ हुकमी मिलै बड़िआई। हुकमी उत्तम नीचु…।

‘वही छोटे-बड़े को पैदा कर रहा है।’ यह थोड़ा सोचने जैसा है। अगर वही छोटे-बड़े को पैदा कर रहा है, तो फिर कोई छोटा नहीं कोई बड़ा नहीं। क्योंकि दोनों का बनाने वाला वही है। तुमने एक छोटी सी मूर्ति बनाई, तुमने एक बड़ी मूर्ति बनाई; बनाने वाले तुम ही हो। जब कर्ता एक है, तो कौन छोटा कौन बड़ा? जब दोनों में उसका ही हाथ लगा है- लेकिन हम सोचते हैं मैं छोटा, मैं बड़ा, और जीवन भर हम पीड़ा उठाते हैं। और तुम इतने बड़े कभी भी न हो पाओगे कि तुम तृप्त हो जाओ। अगर तुमने रूप को देखा, अपने आकार को देखा, तो तुम कभी इतने बड़े न हो सकोगे कि तृप्त हो जाओ। आकार तो छोटा ही होगा, कितना ही बड़ा क्यों न हो।

लेकिन अगर तुमने निराकार के हाथ अपने आकार में देखे, तब तुम तत्क्षण बड़े हो गए। बनाने वाला वही है। एक छोटे से घास को भी वही बनाता है। और दूर आकाश को छूते देवदार के वृक्ष को भी वही बनाता है। अगर दोनों के पीछे उसी का हाथ है, फिर कौन बड़ा कौन छोटा? उसी की हार है, उसी की जीत है। फिर हम सब शतरंज के मोहरे हैं। जीते तो वह, हारे तो वह। बड़ाई मिले तो उसे, बुराई मिले तो उसे।

ध्यान रखना, तुमने बहुत बार भक्तों के वचन सुने होंगे, पढ़े होंगे। अनेक भक्त तुमने पाए होंगे; कहते हैं, बड़ाई तेरी, बुराई मेरी। ऊपर से देखने पर बहुत अच्छा लगता है। वे कहते हैं कि जो-जो भला है, तेरा; जो-जो बुरा है, मेरा। लगता है बड़े विनम्र हैं। लेकिन अगर बुराई तुम्हारी तो भलाई उसकी कैसे हो सकेगी? यह विनम्रता झूठी है। यह विनम्रता वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक विनम्रता तो सभी दे देगी, कुछ भी न बचाएगी। तुमने अपने अहंकार के लिए थोड़ा सहारा फिर बचा लिया। और तुम कितना ही ऊपर-ऊपर से कहो कि बड़ाई तेरी और बुराई मेरी, लेकिन जब बुराई मेरी है तो बड़ाई तेरी होगी कैसे? असफलता मेरी और सफलता तेरी? यह बात थोथी है। या तो दोनों मेरे होंगे, या तो दोनों तेरे होंगे।

इसलिए झूठी विनम्रता और सच्ची विनम्रता में बड़ा फर्क है। झूठी विनम्रता कहती है कि मैं तो आपके पैरों की धूल हूं, लेकिन हूं जरूर। और जब कोई आदमी कहता है, मैं आपके पैरों की धूल हूं, तब उसकी आंखों में देखना। वह आपसे अपेक्षा कर रहा है कि आप भी कहो कि नहीं-नहीं; आप और कैसे? मैं आपके पैरों की धूल हूं। उसकी आंखों में चाह है। और अगर आप मान लो कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, यही तो मेरा विचार है; तो वह आदमी सदा के लिए दुश्मन हो जाएगा। और कभी आपको माफ न कर सकेगा।

बड़ाई भी उसकी, बुराई भी उसकी। हम बीच में आते ही नहीं हैं। हम तो बांस की पोंगरी हो गए। वह गीत जैसा गाए उसका। इतनी भी अकड़ क्यों अपनी बचा कर रखना कि अगर भूलचूक होगी तो मेरी–तब तो मैं बच गया। तब तो थोड़ा सा मैंने अपने को बचा लिया। और मैं ऐसा रोग है कि तुम थोड़ा-सा बचाओ, वह पूरा बच जाता है। या तो उसे पूरा छोड़ो, या वह पूरा बचता है। तुम उसकी रत्ती भी बचाओ, तो वह पूरा का पूरा बचा हुआ है। वह कहीं गया नहीं। तुमने छिपाया है।

Courtesy: Dr. Vinay Bajrangi

नानक कहते हैं, ‘हुक्म से आकार की उत्पत्ति हुई। हुक्म को शब्दों में कहा नहीं जा सकता है।’ जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। और हुक्म तो सबसे महत्वपूर्ण बात है। उसके पार तो कुछ भी नहीं है। शब्द तो कामचलाऊ हैं। साधारण जीवन का काम चल जाता है। लेकिन असाधारण को शब्दों में प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। उपाय न होने के कई कारण हैं, वे समझ लेने चाहिए।

उस अलौकिक की प्रतीति मौन में होती है। और जिसे हम मौन में जानते हैं उसे शब्द में कैसे कहेंगे? शब्द और मौन विपरीत हैं। जब उसका अनुभव होता है तब भीतर कोई शब्द नहीं होते। तब परम सन्नाटा होता है। उस परम सन्नाटे में उसकी प्रतीति होती है। तो जिसको शून्य में जाना है, उसको शब्दों में कैसे बांधिएगा? माध्यम बदल गया। शून्य अलग माध्यम है। शून्य निराकार का माध्यम है। शब्द आकार हैं। सब शब्द आकार देते हैं। तो निराकार को आकार में कैसे बांधिएगा?

इसलिए जिन्होंने भी जाना है, उन्हें बड़ी अड़चन है। कैसे कहें उसे? ऐसा ही समझो कि तुमने एक सुंदर संगीत सुना, और तुम किसी बहरे को समझाना चाहते हो…।

संतों ने सिर्फ तुम्हारी तरफ गौर से देखा है और हल करने की कोशिश की है। और जो उनके भीतर समाया है, वह तुम्हारी आंखों में उंडेलना चाहा है। इसलिए साधु-संगत की बात करते हैं नानक। कि साधुओं के साथ रहो अगर समझना है, जो उन्होंने जाना है। संगति करो, सत्संग करो। सुनने-कहने से बहुत न होगा। कुछ कहा जाएगा, कुछ तुम समझोगे; लोग बहरे हैं। कुछ बताया जाएगा, कुछ तुम देखोगे; लोग अंधे हैं। तुम अपनी व्याख्या करोगे, तुम शब्दों को अपने अर्थ दे दोगे।

Courtesy: Jansatta

नानक कहते हैं, ‘हुकमी न कहिया जाए।’ वह कहा नहीं जा सकता। फिर भी इशारे किए जा सकते हैं। ये इशारे हैं। यह कहना नहीं है, ये इशारे हैं। इन शब्दों में वह हुक्म नहीं है। ये शब्द तो मील के किनारे लगे पत्थर की तरह हैं। ये बता रहे हैं कि चले जाओ, आगे है मंजिल। लेकिन बहुत से लोग मील के पत्थर को पकड़ कर बैठ जाते हैं।

वह तुम भी कर सकते हो। तुम भी कर सकते हो कि रोज सुबह उठ कर जपुजी का पाठ करो। और उसको दोहराते रहो। और कंठस्थ कर लो। तुमने मील का पत्थर पकड़ लिया। यह तो इशारा है। इसे कंठस्थ करने से कुछ भी न होगा। इसमें जिस तरफ इशारा है उस तरफ चलना पड़ेगा। यात्रा करनी पड़ेगी। धर्म एक यात्रा है। तुम चाहे जपुजी को पकड़ो, चाहे गीता को, चाहे कुरान को, अगर तुम पकड़ कर बैठ गए, तो तुमने मील के पत्थर को छाती से लगा लिया। समझो और आगे बढ़ो। जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ोगे वैसे-वैसे राज प्रकट होगा।

‘हुक्म को शब्दों में नहीं कहा जा सकता। हुक्म से ही जीवों की उत्पत्ति होती है। हुक्म से ही बड़ाई मिलती है। हुक्म से ही कोई छोटा है, कोई बड़ा है। हुक्म से ही सुख-दुख की प्राप्ति होती है।’

थोड़ा सोचो, जब तुम्हें दुख मिलता है तो तुम किसी को जिम्मेवार ठहराते हो। अगर जिम्मेवार ही ठहराना है तो हुक्म को जिम्मेवार ठहराओ। पति दुखी है तो सोचता है कि पत्नी जिम्मेवार है। पत्नी दुखी है तो सोचती है, पति जिम्मेवार है। बाप दुखी है तो सोचता है, बेटा जिम्मेवार है। अगर जिम्मेवारी ही देनी है, तो परमात्मा को दो। उससे छोटे में काम न चलेगा।

लेकिन बड़ा मजा है। तुम जब भी दुखी हो, तो अपने आसपास जिम्मेवारी किसी के कंधे पर टांग देते हो। और जब तुम भी सुखी हो तब तुम खुद मानते हो कि मेरे ही कारण मैं सुखी हूं।

यह तर्क किस भांति का है? सुखी हो तब तुम अपने कारण और दुखी हो तब किन्हीं और के कारण! इस वजह से न तो तुम दुख को हल कर पाते हो और न तुम सुख का राज खोज पाते हो। क्योंकि दोनों हालत में तुम गलत हो। न तो दूसरा जिम्मेवार है दुख के लिए और न तुम जिम्मेवार हो सुख के लिए। दोनों के पीछे परमात्मा जिम्मेवार है। और अगर एक ही हाथ से सुख-दुख आ रहे हैं तो उनमें भेद क्या करना! फर्क क्या करना!