जिस युग में हम हैं, उसको कुचरना बंद करें।

आशुतोष राणा।
एक भाई ने पूछा है- “आज की नई पीढ़ी साहित्यिक लेखन से और साहित्यिक स्वाध्याय से कहीं ना कहीं दूर हो रही है। आपने देखा होगा कि बच्चे हों, छोटे हों, चाहे बड़े हों जहां स्वाध्याय की अपेक्षा रील्स हो गई, सोशल मीडिया हो गई, डिजिटल मीडिया हो गई… इनसे सीखना जाना चाह रही है। लेकिन जब तक पढ़ेंगे नहीं, स्वाध्याय नहीं करेंगे- तब तक नया लेखन नहीं ला सकते।”

सबसे पहले तो जिस युग में हम हैं उसको कुचरना बंद करें… जैसे- रील मतलब बुराई। जब हम लोग पढ़ रहे थे उस समय मोबाइल नहीं था। तो हमारे पास साधन क्या था? किताबें थीं। और अगर हमको मनोरंजन करना होता था तो क्या था? सिनेमा था। ठीक है। किताबें थी, सिनेमा था। कहने का अर्थ यह है इस चीज को हम कंडेम करना बंद करें। जब युग बदलता है तो सीखने के तरीके भी बदलते हैं। आवश्यक नहीं है कि सिर्फ किताबों से ही हम सीखें। उस समय भी किताबें आती थीं तो ‘पल्प लिटरेचर’ भी आता था। आपको पता है ना पल्प लिटरेचर- मतलब मस्तराम सीरीज की किताब- तब भी आती थी। लड़के किताबों में छिपा के पढ़ते। लुका के पढ़ रहे पकड़ा गए। बाऊ जी ने पकड़ लो। तीन दिन से देख रहे थे बाऊ जी। बे तो रसायन पढ़ रहा हो जब रसायन पढ़ रो बा बाद भी फेल का हो रो। तो कहने का अर्थ यह है कि सबसे पहले तो इस बात को समझो कि जैसे जैसे युग बदलता है हमारे संचार के साथ माध्यम और हमारी शिक्षा के माध्यमों में विस्तार होता रहा है।

30,000+ Boy Reading Pictures | Download Free Images on Unsplash

सोशल मीडिया हम भी चलाते हैं। एक बंदूक क्या करती है? वो बंदूक अगर किसी आतंकवादी के हाथ में तुम देख लो तो तुम्हारे अंदर क्या पैदा होगा? डर। और वही बंदूक अगर तुम अपने किसी सैनिक के हाथ में देख लो तो तुम्हारे अंदर क्या पैदा होगा? तो भैया समस्या हाथ में है कि हथियार में है। समस्या कभी भी हथियार में नहीं होती। समस्या हाथ में होती है कि कौन सा हाथ है जो उस हथियार को रखे हुए हैं। तो मोबाइल हम भी चलाते हैं। हम भी सोशल मीडिया पर हैं। और हम तो एक एक आदमी के कमेंट पढ़ते हैं और जिन जवाबों को हमको देना उचित लगता है हम जवाब देते हैं। ठीक है। हमारे पूरे प्रोफाइल पर चले जाइए आपको चाहे दुनिया में बाहर वो कुछ भी करके चला आ रहा हो, जैसे ही वो हमारे प्रोफाइल पर घुसते है ऐसा लगता है कि जैसे वो मंदिर में आ गए हों…  “इतना अच्छा लगा दद्दा इतना अच्छा लगा आपसे तो पढ़ के बहुत सीखने को मिलता है।”

तात्पर्य सिर्फ यह है कि आज के जो बच्चे हैं उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था क्या हो गई है। बहुत से लोग सुन के सीखते हैं, बहुत से लोग देख के सीखते हैं और बहुत से लोग पढ़कर सीखते हैं। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम चुनाव किस चीज का कर रहे हैं।

 

कल आपने डस्टिंग की। अगले दिन डस्टिंग क्यों करनी पड़ जाती है? आपने धूप, धूल इनवाइट की थी क्या? नहीं की थी। आप ने तो पर्दे वर्दे सब बंद रखे थे। खिड़कियां दरवाजे सब बंद थे। फिर भी अगले दिन जब आप झाड़ू करते हैं तो आप देखते हैं कि वापस धूल निकल रही है। तो यह हम मनुष्यों का जीवन, सकार और नकार की सम्मिलित ध्वनि ही ओमकार। अगर आपको नकारात्मकता का सदुपयोग करना है तो उसको नकार कर नहीं, उसको स्वीकार कर करो। ध्यान रखना घी काहे से मिलता है, मक्खन से। मक्खन किससे मिलता है, दूध से। आप दूध से सीधे घी नहीं निकाल सकते। दही जमाना पड़ेगा। दही जमाने के लिए क्या करना पड़ता है- मतलब विकार डालना पड़ता है। जब आप विकार डालते हैं तो जो निराकार है वह साकार हो जाता है। विकारों को हम इतना खंडित ना करें, खारिज ना करें। विकार का सदुपयोग करना आना चाहिए कि जब आप आपको निराकार को साकार करना है तो विकार को उसमें डालिए। उसको बिगाड़ फिर मथिए। मथने के बाद उसमें से जितनी भी चीजें निकलेंगी वह सारी चीजें उपयोगी रहेंगी चाहे वह छाछ हो, दही हो, मक्खन हो और चाहे वह घी हो। तो विकार का अगर इस्तेमाल करना हम सीख जाएं तो हम पाएंगे कि असल में तो विकार होता क्या है?

मेरा अपना यह मानना है कि किन्हीं भी माध्यमों को दोष ना दें। अगर कहीं सुधार करना है, चित्त की तरफ दृष्टि डालनी है, तो क्या करते हैं? जिन आंखों से हम दुनिया देखते हैं क्या उन आंखों को हम देख पाते हैं। नहीं देख पाते ना। अगर किसी चीज को हमको सुधारना है तो सबसे पहली शुरुआत स्वयं से करनी पड़ेगी। आप स्वयं को समाज क्यों नहीं मानते हैं? हम भी तो समाज है अकेले हैं लेकिन अगर हम जिस समाज की अपेक्षा और आशा रखते हैं तो आपके और सबके पास सोशल मीडिया है। एक बार यह चला के देखो। मत देखो जो चीजें तुमको पसंद नहीं आती। अपने आप उन चीजों के स्तर बदल जाएंगे।

अच्छाई और बुराई दोनों संक्रामक होती हैं। जैसे एक आदमी जम्हाई ले तो जम्हाई आने लगती है, एक आदमी ताली बजाए तो लोग ताली बजाने लगते हैं। ऐसे ही अच्छाई भी संक्रामक होती है और बुराई भी संक्रामक होती है। अगर 500 आदमियों ने तय कर लिया कि नहीं भैया हमें तो नहीं सुननी, पढ़नी, देखनी फालतू की बकवास। फिर देखिए क्या फर्क पड़ता है।

मेरे भाई, हम सिर्फ युग को दोष देना बंद करें। क्योंकि युग हम और आप ही तो हैं, और कौन है युग? युग तो हम बदलते हैं। हम उबलते हैं तो भूचाल उबल जाते हैं, हम मचलते हैं तो तूफान मचल जाते हैं। हमको बदलने की कोशिश मत करो भाई। हम बदलते हैं तो इतिहास बदल जाते हैं। तो शुरुआत अगर करनी अभी से ही करनी होगी। दूसरा- हम दूसरे को तो सुधारने के लिए तो तत्काल जुट जाते हैं कि भैया आपसे चूक हो गई। दूसरे को सुझाव दीजिए, लेकिन स्वयं के सुधार को हम क्या करते हैं? दूसरे को तो सुधारने का प्रयास करते हैं और स्वयं को सुझाव देते हैं और निकल जाते हैं। .

(लेखक जाने माने अभिनेता, मोटिवेशनल गुरु और कवि हैं। ‘मौन मुस्कान की मार’ और ‘रामराज्य’ उनकी चर्चित पुस्तकें हैं)