खोते जा रहे कजरी, मल्हार के स्वर।
शिवचरण चौहान।
इस बार सावन तो आया है पर झूले नहीं पड़े। झूले पर पेंग बढ़ाती हुई युवतियां अब नहीं दिखाई दे रही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी से भी कम पानी बरसा है।कजरी के स्वर अब रेडियो-टीवी पर ही कभी कभी सुनने को मिलते हैं।
अब नई पीढ़ी की महिलाएं, युवतियां, लड़कियां व्हाट्सएप चैटिंग में ही लगी रहती हैं तो झूला कौन झूले- कजरी कौन गाए। घरों की बड़ी बूढ़ियां मन मसोस कर रह जाती हैं। एक समय था जब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश बिहार हरियाणा राजस्थान पंजाब दिल्ली गुजरात आदि प्रदेशों में सावन में बागों में झूले पड़ जाते थे। घर के बाहर खड़ी नीम के पेड़ पर शाम होते ही झूले के साथ महिलाएं कजरी गाने लगती थीं। नागपंचमी से लेकर हरियाली तीज और भादों अष्टमी तक झूले पड़े रहते थे। उत्तर प्रदेश में बनारस, मिर्जापुर और रामनगर की कजरी मेले विख्यात थे। अंग्रेज सरकार भी इन्हें नहीं रोक पाई। बृज का सावन और फागुन मशहूर था। हरियाणा के झूले झूलने के लिए नवविवाहिताऐं ससुराल से मायके जाती थी। सावन में सोमवार को शिव पूजा के साथ अखाड़ा और दंगलों की शुरुआत हो जाती थी।
सावन में रिमझिम फुहारों के बीच, शहरों व गांवों में झूला झूलने को परम्परा थी। आज यह परंपरा लुप्त होती जा रही है अब तो कहीं कहीं पर ही झूले दिखाई पड़ते हैं। कजरी गायन, मेहंदी की प्रतियोगिताओं के आयोजन बन्द हो गए है. किन्तु आज भी बनारस मिर्जापुर और रामनगर मथुरा वृंदावन और आसपास के जनपदों के गांवों में सावन में झूला झूलने की परंपरा कुछ जगह कायम है। बनारस मिर्जापुर और रामनगर में कजरी के मेले लगते हैं। कजली गायन की प्रतियोगिता होती है।
पहले आम के पेड़ों की डाल पर या घर के बाहर खड़ी नीम के वृक्ष की डालों में सावन के पहले दिन से झूला झूलने की शुरुआत हो जाती थी। गांव या मुहल्ले को लड़कियां, बड़ी- बूढ़ी शाम होते ही नीम या आम के पेड़ के पास आ जाती थीं। पेड़ की मोटी डाल पर मोटी रस्सी से झूला डाला जाता था। सामान्यत: एक मोटे डण्डे को रस्से में बांध कर उसी में एक साथ दो युवतियां, जिनकी हाल ही में शादी हुई होती है और सावन में मायके अपने बाबुल (पिता) के घर आई हुई होती हैं या कुंवारी लड़कियां झुला झुलती हैं। महिलाएं कजरी गाती है। बनारस भोजपुर की कजरी गायन परम्परा दूर-दूर तक आज भी मशहूर है। अवध-बुन्देलखण्ड तथा बृज के गांव गांव में कजरी गायन की एक विशिष्ट परंपरा रही है। अभी भी कई जगह सावन में यह परंपरा देखी जा सकती हैं। ब्रज क्षेत्र में कदम्ब वृक्ष की डाल पर झूला पड़ता है और राधाकृष्ण झूलते हैं।, वहीं अवध में राम अमराई में आम के वृक्षों में झूला झूलते हैं।
बुन्देलखण्ड में कटवर ,नीम, आम के वृक्ष में झूले पड़ते हैं। ब्रज में कृष्ण अवध में राम और बुन्देलखण्ड में आल्हा-ऊदल और राजकुमारी चंद्रावल प्रमुख पात्र होते हैं। मशहूर झूला गीतों में जब महिलाएं पैग भरती और युवतियां के साथ कजरी गाती है- ‘अरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी/ ओढ़ लई सारी अरे हारी।’ तथा ‘अरे रामा, पवन चले पुरवइया/ बदरिया कारी रे हारी’ तो कजरी के मधुर स्वर सुनकर लोगों का ध्यान बरबस खिंचा चला जाता है। राम और कृष्ण का एक साथ उल्लेख होना और गीत के टेक में ‘रे हारी’ शब्द का आना अवध और भोजपुरी की कजरी की पहचान है।
मथुरा वृंदावन गोकुल बरसाना अयोध्या लखनऊ बनारस रामनगर मिर्जापुर आदि क्षेत्रों में आज भी कजरी गायन और झूला झूलने की परंपरा कभी कभी देखी जा सकती है।
झूले आज भी पड़ते हैं, घरों में पेडों, बागों में। बच्चे, लड़कियां, पुरुष आज भी झूलते हैं, पर अब पहले जैसी परम्परा व उल्लास खत्म हो गया है। बच्चों को तो अभी भी प्राथमिक स्कूलों में- आओ मिल सब झूला झूलें। पेंग बढ़ाकर नभ को छू लें- पढ़ाया जाता है। कानपुर (उत्तर प्रदेश) में चौक के श्रीकृष्ण पुस्तकालय चौक तथा मूलगंज वाले जनता पुस्तकालय एक समय इन गीतों को पुस्तकें हजारों की संख्या में बेचा करते थे किंतु आज पुस्तकालय बंद हो रहे हैं।
अब अगर कहीं गांव, गली या मुहल्ले से कजरी के मीठे बोल सुनने को मिल जाएं तो लगता है, कानों में मिसरी घुल रही है।
कजरी मिर्जापुर की भारी, मेला रामनगर सरनाम
आज भी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की कजरी और रामनगर का कजरी मेला विश्व विख्यात है। मारीशस तक से लोग आते हैं। कजरी के सुप्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा अवधी की मालिनी अवस्थी सहित अनेक कजरी गायिकाएं आज भी कजरी गाती हैं।
कजरी गीतों को आधार बनाकर अनेक हिन्दी कवियों ने गीत-नवगीत लिखे हैं। कजरी में उल्लास, नारी का सुख-दुख सभी कुछ होता था। झूला झूलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। यहाँ एक साथ बैठना, गाना, प्रेम व एकता को बढ़ावा देते हैं। सावन भर बच्चों से लेकर बड़े तक, लड़कियों से लेकर दाइयाँ तक- झूला झूलने के लिए बेताब रहते थे। सावन के महीने में ही जमकर बारिश होती थी। शहरों में जहां लोगों को प्रचण्ड गर्मी से छुटकारा मिलने लगता था वहीं गांवों में धान की रोपाई जोरों पर होती थी। मक्का, ज्वार, बाजरा, अरहर के पौधे सावन की फुहारों में लहराकर इतराने लगते थे। जब मोर नाचने लगते हैं तो भला मनुष्य क्यों चुप बैठे। झूला झूलने की परम्परा कब पड़ी किसने डाली, इसका कोई इतिहास नहीं मिलता है।
तुलसीदास, महाकवि जायसी, सूर तथा रीतिकाल के कवियों ने भी झूला झूलने का उल्लेख किया है। संस्कृत ग्रन्थों में सावन मास में झूला झूलने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
तुलसी ने लिखा- ‘पलंग, पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।’ यहां हिंडोला या हिन्डोरा शब्द झूले के पयार्यवाची के रूप में आया है। सीता जी पलंग, पीठ, गोद और झूले को छोड़कर कभी जमीन में पैर नहीं रखती हैं। राम को भी कौशल्या कहती हैं कि यह कठिन भूमि पर कैसे चलेंगी। लोक गीतों में झूलों के बारे में उल्लेख मिला है कि सावन झूला झूलने की परम्परा अवध, बुन्देलखंड, बृज, भोजपुर आदि क्षेत्रों में सदियों से है।
प्रियतम को बिरहनी के संदेश… तुम चले आओ
झूला गीतों पर शोध नहीं हुए हैं। झूला गीतों में जहाँ जनमानस का उल्लास है तो नारी का दर्द भी है। इन गीतों में बादलों को सन्देश वाहक, हरकारा बनाकर संदेश भिजवाया जाता है। कालिदास भी मेंघों को दूत बनाकर सावन में बिरहनी के संदेश उसके प्रियतम तक भिजवाते हैं। दर्जनों हिन्दी फिल्मों में सावन के दृश्य हैं। फिल्मों में कजरी गीतों को हो कुछ फेर बदलकर फिल्मी गीत बना लिया गया है। ‘सावन के झूले पड़े हैं तुम चले आओ’ तो बेहद लोकप्रिय है। हमारे देश में महिलाएं नवजात शिशुओं को घर के पालने में लिटाकर घर के काम करती हैं। भगवान राम, कृष्ण भी पालना झूलते थे… और सती अनुसुइया तो त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बच्चा बनाकर झूला झुलाती हैं।
(लेखक लोक संस्कृति, लोक जीवन और साहित्य व समाज से जुड़े विषयों के शोधार्थी हैं)