प्रहलाद सबनानी।
भारत की लगातार तेज हो रही आर्थिक प्रगति पर विश्व के कुछ देश अब ईर्ष्या करने लगे हैं एवं उन्हें यह आभास हो रहा है कि आगे आने वाले समय में इससे उनके अपने आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इस सूची में सबसे ऊपर चीन का नाम उभर कर सामने आ रहा है। और फिर, चीन की अपनी आर्थिक प्रगति धीमी भी होती जा रही है। दूसरे, विश्व को भी आज यह आभास होने लगा है कि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के मामले में केवल चीन पर निर्भर रहना बहुत जोखिम भरा कार्य है। इसका अनुभव विशेष रूप से विकसित देशों ने कोरोना महामारी के बाद से वितरण चैन में आई भारी परेशानी से किया है, जिसके चलते इन देशों में मुद्रा स्फीति की समस्या आज भी पूरे तौर पर नियंत्रण में नहीं आ पाई है। साथ ही, चीन की विस्तारवादी नीतियों के चलते उसके अपने किसी भी पड़ौसी देश से (पाकिस्तान को छोड़कर) अच्छे सम्बंध नहीं हैं।
इन सब बातों को देखते हुए कई देश अब यह सोचने पर मजबूर हुए हैं कि चीन+1 की नीति का अनुपालन ही उनके हित में होगा। अर्थात, यदि किसी उद्योगपति ने चीन में अपनी एक विनिर्माण इकाई स्थापित की है तो आवश्यकता पड़ने पर उसके द्वारा अब दूसरी विनिर्माण इकाई चीन में स्थापित न करते हुए इसे अब किसी अन्य देश में स्थापित किया जाना चाहिए। यह दूसरा देश भारत भी हो सकता है क्योंकि भारत अब न केवल “ईज आफ डूइंग बिजनेस” के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार करता हुआ दिखाई दे रहा है बल्कि भारत में बुनियादी ढांचा के विस्तार में भी अतुलनीय प्रगति दृष्टिगोचर है।
केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक क्षेत्र में लागू की गई कई नीतियों के चलते भारत आज विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तो बन ही गया है और अब यह तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से आगे बढ़ रहा है। अर्थ के कई क्षेत्रों में तो भारत विश्व में प्रथम पायदान पर आ भी चुका है। इससे अब चीन के साथ अमेरिका को भी आने वाले समय में वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव में कमी आने की चिंता सताने लगी है। अतः विश्व के कई देशों में अब भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर ईर्ष्या की भावना विकसित होती दिखाई दे रही है। इस ईर्ष्या की भावना के कारण वे भारत के लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी करने का प्रयास करते दिखाई देने लगे हैं। यह समस्याएं केवल आर्थिक क्षेत्र में खड़ी नहीं की जा रही हैं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक आदि क्षेत्रों में भी खड़ी करने के प्रयास हो रहे हैं।
सबसे पहिले तो कुछ देश प्रयास कर रहे हैं कि भारत में किस प्रकार सामाजिक अशांति फैलायी जाए। इसके लिए भारत की कुटुंब प्रणाली को तोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। देश में विभिन्न टी वी चैनल पर इस प्रकार के सीरियल दिखाए जा रहे हैं जिससे परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच आपस में छोटी छोटी बातों में लड़ने को बढ़ावा मिल रहा है। इन सीरियल में सास को बहू से, ननद को देवरानी से, छोटी बहिन को बड़ी बहिन से, एक पड़ौसी को दूसरे पड़ौसी से, संघर्ष करते हुए दिखाया जा रहा है। इन सीरियल के माध्यम से भारत में भी पूंजीवाद की तर्ज पर व्यक्तिवाद को हावी होते हुए दिखाया जा रहा है। जबकि भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति हमें संयुक्त परिवार में आपस में मिलजुल कर रहना सिखाती है, त्याग एवं तपस्या की भावना जागृत करती है एवं परिवार के छोटे सदस्यों द्वारा अपने बड़े सदस्यों का आदर करना सिखाती है। इसके ठीक विपरीत पश्चिमी सभ्यता के अंतर्गत संयुक्त परिवार दिखाई ही नहीं देते हैं वे तो व्यक्तिगत स्तर पर केवल अपने आर्थिक हित साधते हुए नजर आते है। पश्चिमी देशों के इन प्रयासों से आज कुछ हद्द तक भारतीय समाज भी पश्चिमी सभ्यता की ओर आकर्षित होता हुआ दिखाई देने लगा है। आज विकसित देशों के परिवारों में बेटे के 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात वह परिवार से अलग होकर अपना परिवार बसा लेता है। अपने बूढ़े माता पिता की देखभाल भी नहीं कर पाता है। इसके चलते इन देशों में सरकारों को अपने प्रौढ़ वर्ग के नागरिकों के देखरेख करनी होती है और इनके लिए सरकार के स्तर पर कई योजनाएं चलानी पड़ती है। आज इन देशों में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या के लगातार बढ़ते जाने से सरकार के बजट पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। जबकि भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा के कारण ही इस प्रकार की कोई समस्या दिखाई नहीं दे रही है। अतः पश्चिमी देशों द्वारा भारत की कुटुंब प्रणाली को अपनाए जाने के स्थान पर इसे भारत में भी नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।
दूसरे, कई देश अब भारत में सामाजिक समरसता के तानेबाने को भी विपरीत रूप से प्रभावित करने के प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं। विशेष रूप से हिंदू समाज में विभिन्न मत, पंथ मानने वाले नागरिकों को आपस में लड़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि इन्हें आपस में बांटा जा सके और भारत में अशांति फैलायी जा सके तथा जिससे देश की आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित हो सके। भारत के इतिहास पर नजर डालने पर ध्यान में आता है कि भारत में जब जब सामाजिक समरसता का अभाव दिखाई दिया है तब तब विदेशी आक्रांताओं एवं अंग्रेजों को भारत में अपना शासन स्थापित करने में आसानी हुई है। उन्होंने “बांटो एवं राज करो” की नीति के अनुपालन से ही भारत के कुछ भू भाग पर अपनी सत्ता स्थापित की थी। अब एक बार पुनः इसी आजमाए हुए नुस्खे को पुनः आजमाने का प्रयास किया जा रहा है। चाहे वह जातिगत जनगणना करने के नाम पर हो अथवा समाज के विभिन्न वर्गों को दी जाने वाली सुविधाओं को लेकर किये जाने वाले आंदोलनों की बात हो।
तीसरे, कई देशों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भी अस्थिरता फैलाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सबसे ताजा उदाहरण बांग्लादेश का लिया जा सकता है जहां हाल ही में सत्ता परिवर्तन हुआ है। अब बांग्लादेश में अतिवादी दलों के हाथों में सत्ता की कमान जाती हुई दिखाई दे रही है इससे अब बांग्लादेश में भी आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित होगी। मालदीव में पूर्व में ही भारत विरोध के नाम पर अतिवादी दलों ने सत्ता हथिया ली है, जो वहां भारत “गो बैक” के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं एवं चीन के साथ अपने राजनैतिक रिश्ते स्थापित कर रहे हैं। नेपाल में भी हाल ही में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद वे चीन के करीब जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। श्रीलंका पूर्व में ही राजनैतिक अस्थिरता के दौर से गुजर चुका है। पाकिस्तान तो घोषित रूप से अपने आप को भारत का दुश्मन देश कहलाता है। अफगानिस्तान में भी तालिबान की सत्ता स्थापित हो चुकी है, हालांकि अफगानिस्तान ने भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है।
कुल मिलाकर भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने हेतु कुछ देशों द्वारा भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में अशांति फैलाकर ये देश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भारत में आने से रोकने के प्रयास कर रहे हैं ताकि विदेशी कम्पनियां भारत में विनिर्माण इकाईयों को स्थापित करने के प्रति हत्तोत्साहित हों और देश में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण कर ले। इस प्रकार के माहौल में आज भारत के आम नागरिकों में देश प्रेम का भाव जगाने की सबसे अधिक आवश्यकता है एवं विभिन्न समाजों एवं मत पंथ को मानने वाले नागरिकों के बीच आपस में भाई चारा स्थापित करने की भी महती आवश्यकता है। अन्यथा, एक बार पुनः विदेशी ताकतें भारत की आम जनता को आपस में लड़ा कर इस देश पर अपना शासन स्थापित करने में सफल हो सकती हैं। परंतु, हर्ष का विषय है कि भारत में कई सांस्कृतिक संगठन अब कुछ देशों की इन कुटिल चालों से भारत की आम जनता को अवगत कराने के प्रयास करने लगे हैं एवं समाज की सज्जन शक्ति भी अब इन बातों को जनता के बीच ले जाकर उन्हें इस प्रकार के कुत्सित प्रयासों के परिणामों से अवगत कराने लगी हैं और कुछ हद्द तक इसका आभास अब आम जनता को होने भी लगा है।
लेखक भारतीय स्टेट बैंक के सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक हैं