अपने समाज से क्या चाहती हैं मैथिली ठाकुर।
अशोक झा।
कुछ ऐसे मौके होते हैं जब आप किसी समाज की ताक़त और उसकी बौद्धिक चेतना का सटीक आकलन कर सकते हैं। मैथिल समाज के लिए इस तरह की एक मामूली परीक्षा की घड़ी आ चुकी है और एक समाज के रूप में, उसके चेतनाहीन होने के सारे लक्षण प्रकट होने लगे हैं।
मुद्दा है यह ख़बर कि मैथिली ठाकुर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ सकती हैं। मुझे इससे कुछ मतलब नहीं है कि मैथिली ठाकुर क्या है। मेरे लिए सिर्फ़ इतनी ही बात महत्वपूर्ण है कि वह एक महिला है और मधुबनी की रहनेवाली है। इस ख़बर ने मैथिलों की छोटी दुनिया में तूफ़ान खड़ा कर दिया है।
क्यों भाई?
क्या उसे अपने बारे में कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं है?
नहीं है, ऐसा बहुलांश मैथिल सोचते हैं। क्योंकि वह एक लड़की है।
सवाल यह है कि हम उसके बारे में क्यों जजमेंटल हो रहे हैं?
क्या ऐसा करना हमारे लिए जरूरी है? क़ायदे से तो नहीं होना चाहिए।
कोई अपने बारे में क्या निर्णय लेता है इसके बारे में हमारी या किसी की राय का क्या मतलब है?
अगर चुनाव लड़ने का उसका फ़ैसला कल ग़लत साबित होता है, तो इसका ख़ामियाज़ा भी उसे ही भुगतना होगा। आप या हमारे पेट में दर्द क्यों हो रहा है?
वह किस पार्टी से चुनाव लड़ रही है इस बात से भी आपकी नींद नहीं उड़नी चाहिए। और सही तो यही है कि बहुत कम मैथिलों को इस बात से नाराज़गी है कि वह भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ेगी। भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ना तो महज एक संयोग है। हो सकता है कि किसी और पार्टी ने उसको ऐसा प्रस्ताव दिया होता तो आज उसी पार्टी की टिकट पर उसके चुनाव लड़ने की चर्चा हो रही होती। अभी तक हम यह नहीं जानते कि उसे किसी और राजनीतिक दल ने टिकट देने का प्रस्ताव दिया था कि नहीं। महज भाजपा से चुनाव लड़ने के कारण वह समाज की दुश्मन नहीं बन जाती है। और कौन जानता है कि आज भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने का विचार कर रही मैथिली कल किसी और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ती नहीं दिखेगी। उसकी राजनीतिक यात्रा तो अभी मात्र शुरू होने को है।
बहुत से लोगों को लगता है कि एक गायक के रूप में उसमें काफ़ी संभावनाएं हैं और उसे अभी बहुत सारे अहम मुक़ाम हासिल करने हैं। ठीक है, यह आपका विचार है। पर अगर उसे लगता है कि उसे अपने लिए किसी नए रास्ते को चुनना है तो इससे आपको क्या समस्या है। उसके बारे में आपके विचार हो सकते हैं क्योंकि वह एक public figure है। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। उसके करोड़ों चाहनेवाले हैं, क्या उसमें इन सभी लोगों की व्यक्तिगत अपेक्षाओं को पूरा करने का सामर्थ्य है? क्या यह संभव है? क्या उसे ऐसा करना चाहिए?
कतई नहीं। और आपकी अपेक्षाओं की वेदी पर वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की बलि भला क्यों चढ़ाए? ठीक है, आपको उसका यह फैसला पसंद नहीं आया और आप उसके वोटर हैं तो उसे वोट मत दीजियेगा। सच तो यह है कि चुनाव में उसे विजयी नहीं बनाकर आप उसे यह संदेश दे सकते हैं कि हमें तुम्हारा राजनीति में जाना पसंद नहीं है, तुम गायकी में ही हमारा मान बढ़ाओ।
क़ायदे से मैथिलों को ख़ुश होना चाहिए था कि उनकी ही एक लड़की अपने लिए एक महत्वाकांक्षी रास्ते पर चलने का निर्णय कर रही है। आप उसे ऐसी सलाह दीजिये कि वह एक बेहतर लोकप्रतिनिधि साबित हो सके। उसका मार्गदर्शक बनकर आप अपना और अपने समाज, महिलाएँ जिसकी अहम हिस्सा हैं, दोनों का उपकार करेंगे।
मैं यह नहीं मानता कि भाजपा से चुनाव लड़ने का निर्णय लेने से वह बुरे लोगों की ज़मात में शामिल हो गई है। यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है और हमें उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए। हम कौन होते हैं यह निर्णय करनेवाले कि कौन किस पार्टी का समर्थन करे। यह किसी का अपना चुनाव हो सकता है। भाजपा से उसके चुनाव लड़ने पर मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा है। यहाँ तो बहुलांश कथित रूप से उच्च जाति के मैथिल भाजपा समर्थक हैं। कट्टर भाजपाई हैं। उसका यह होना भी उसी होने का हिस्सा है। पर सोशल मीडिया में उस पर हमले किन्हीं और कारणों से हो रहे हैं। इसमें प्रमुख है उसका महिला होना। बहुत से संस्कारी मैथिलों को यह पसंद नहीं कि २५ साल की कोई मैथिल लड़की चुनाव मैदान में उतरे। “बताइए, २५ बरखक नाक ठेकल अपन बेटीक बियाह नहि कराक’ एकर पतित बाप ओकरा चुनाव लड़ा रहल छैक”। ऐसे कमेंट्स सोशल मीडिया पर आ रहे हैं।
कमेंट करनेवाले एक सज्जन एक मैथिल बुज़ुर्ग हैं और कलकत्ते में अपनी पूरी ज़िंदगी बिताए हैं। इनका दावा है कि वे बहुत बड़े बौद्धिक हैं और मिथिला, मैथिल और मैथिली की चिंता में दुबराये जा रहे हैं। कोई इनसे पूछे कि जिस कलकत्ता ने बँगालियों को एक समाज के रूप में आधुनिकता और सांस्कृतिक चेतना से लबरेज़ कर दिया उस कलकत्ता में पूरी ज़िंदगी बिताकर उन्होंने क्या सीखा। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो मैथिली के चुनाव लड़ने के निर्णय से परेशान हो उठे हैं। मिथिला में इस तरह के बौद्धिक अपाहिज़ों की भरमार है।
इन बौद्धिक अपाहिज़ों को यह गवारा नहीं कि कोई लड़की आगे बढ़े। लड़कियों की जीवन यात्रा शादी, बच्चा पैदा करने और मर जाने या मार दिए जाने के इतर भी कुछ हो सकता है वैसा इस समाज ने सोचा ही नहीं है। यहाँ अपवादों की बात नहीं हो रही है, पर अपवाद तो अपवाद ही होते हैं। वे बहुलांश समाज के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। प्रथम दृष्टया मैथिल समाज की छवि जो हमारे सामने उभरती है वह पितृसत्ता में आकंठ डूबे एक चेतनाहीन निस्पंद समाज की है।
अगर ऐसा नहीं होता तो देश के हर तरह के सामाजिक-आर्थिक संकेतांकों में सबसे नीचे अपना नाम दर्ज करानेवाले बिहार में मिथिला हर मोर्चे पर सबसे फ़िसड्डी है। मैथिलों को अपनी ही पीठ थपथपाने में महारथ हासिल है। उन्हें कहीं भी आप यह शेखी बघारते हुए देख सकते हैं कि मैथिल दुनिया के सबसे प्रगतिकामी लोग हैं। अगर मैं किसी के दबाव में कुछ देर के लिए यह मान भी लूँ कि मैथिल बहुत पढ़े लिखे हैं, तो शिक्षा जिस तरह समाज को चेतनासंपन्न करती है वह चेतना कहीं भी देखने को नहीं मिलती। चेतना का जो स्पंदन एक जीवंत समाज में होता है, मिथिला उससे शून्य है। आँकड़े इसके गवाह हैं। पर मैथिल अगर ईमानदारी से अपना आकलन करेंगे तो उन्हें यह पता लग जाएगा कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ।
एक लड़की के स्वतंत्र अस्तित्व से मैथिलों को बहुत परेशानी होती है। देश के दूसरे हिस्से में भी पुरुषों को अपनी महिलाओं के आगे बढ़ने पर ख़ुशी होने के बजाय रंज होता है। पर कुछ ऐसे समुदाय इसी देश में हैं जो महिलाओं को अगर आगे बढ़ाने का सुचिंतित प्रयास नहीं करते तो कम से कम उनके रास्ते में भी नहीं आते। पर मैथिलों की बात ही कुछ और है। हम मैथिल, अपने समाज में सार्वजनिक जीवन में कितनी महिलाओं को आगे आने दिए हैं? महिला के सशक्त होने से पावर स्ट्रक्चर प्रभावित होता है। और ऐसा कोई पुरुष समाज क्यों होने देगा। यही वह वजह है कि जब मैथिली ठाकुर जैसी लड़कियों के सार्वजनिक जीवन में किसी ठोस और असरकारी भूमिका में आने की बात होती है तो पुरुषों में हड़कंप मच
जाता है।
मैथिली ठाकुर के पिता पितृसत्ता में विश्वास करनेवाले नहीं हैं, मैं यह भी नहीं मानता। पर हम तो इतनी जल्दबाज़ी में हैं कि उनके इस चरित्र के जग ज़ाहिर होने की प्रतीक्षा भी नहीं कर रहे हैं। मैथिली को अपने बारे में कुछ भी फ़ैसला लेने का पूर्ण अधिकार है। उसे यह अधिकार है कि वह किस राह चले, क्या पहने और क्या खाए। उसे किस पार्टी से चुनाव लड़ना चाहिए यह निर्णय करने का अधिकार भी उसे है।
एक समाज के रूप में जिस मैथिली ठाकुर पर अभी तक आपको गौरव का अनुभव हो रहा था, उसके अपनी पाँख फड़फड़ाकर उड़ने की कोशिश करते देखते ही मैथिलों के होश उड़ गए हैं। उसे आशीर्वाद दीजिये। मनाइये कि पितृसत्ता के जबड़े में फँसी लाखों लड़कियों के लिए वह मुक्ति का पैग़ाम बने। अगर अपने देश और समाज की लड़कियों के लिए उदाहरण बनने का सामर्थ्य और बौद्धिक पूँजी उसमें नहीं है तो भी आपको उसमें कुछ देर के लिए विश्वास जताना चाहिए। उसपर भरोसा करना चाहिए। आपकी शुभेच्छा उसे ऐसा करने को उद्यत करेगी। जरूरी नहीं कि उसके राजनीति में आने से मिथिला की लड़कियों का कायाकल्प हो जाएगा। पर उसके रास्ते में खड़े होकर हम न तो उसका भला करेंगे और न ही अपने समाज का। वही समाज आगे बढ़ता है जिसकी नयी पीढ़ी को यह भरोसा होता है कि उसके समाज का हाथ उसकी पीठ पर है।
उसका बियाह करवाने और उसको लांछित करने के कुत्सित प्रयास से बचिए।
ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि कल कोई और लड़की आगे क़दम बढ़ाने से डरे नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)