कंटक हटा मिटेगी पीड़ा

हितेश शंकर।

काशी, मथुरा, अयोध्या! क्या ये केवल शब्द हैं! व्याकरण की दृष्टि से केवल मात्र संज्ञा! यदि यह प्रश्न आपके मन में कोई कौतुहल, कोई कसमसाहट उत्पन्न नहीं करता तो एक बार अपने आसपास के अत्यंत सामान्य दिखते चेहरों को पढ़ने का प्रयास करें। अयोध्या प्रसाद, मथुरादास, काशीनाथ और इसी तरह अनेक पुण्यतीर्थ नामों की खिड़कियां खुलने लगती हैं। कौन हैं ये लोग! ऐसे लोग जो जीवन भर अपने माथे पर इस देश के मानबिंदुओं को मुकुट की तरह धारण कर कभी रोते, कभी डबडबाई आंखों से मुस्कुराते रहे। क्या सोचकर इनके मां-बाप ने इनका नामकरण किया होगा? जीवन की उमंग, भविष्य की आश्वस्ति, पुरखों की परंपरा का पुण्य स्मरण …. नामकरण के समय यही भाव तो उमड़ते हैं। अयोध्या, मथुरा, काशी इस समाज के मन में सदियों से उमड़ते, यही भाव तो हैं!

ऋषि यज्ञों में बाधा उत्पन्न करते दैत्यों के उत्पात को शांत करने की शक्ति संभाले अयोध्या और उसके राम। संपूर्ण समाज के अधिकारों को रौंदते कंस का कांटा निकालने की कहानी… सारे वातावरण को विषाक्त करते कालिया नाग के मर्दन की साक्षी मथुरा और कान्हा।

और काशी! यह तो स्वयं शिव का साक्षात्कार है। डमरू की डम-डम से गूंजती वे संकरी गलियां, जहां व्यक्ति की सारी संकीर्णता, मलिनता छंट जाती है। सभ्यतागत सत्य की वह नगरी, जहां मोक्ष के गवाक्ष खुलते हैं।

फिर इस खुली हवा से किसे दिक्कत है? सत्य से किसका दम घुटता है? काशी, मथुरा और अयोध्या के ऐतिहासिक आख्यान किसे कष्ट देते हैं? यहीं दबा है वह उत्तर जो इस समाज की टीस, इसे फांकों में बांटने के खेल की पूरी कहानी कहता है। उत्तर की तह में जाने से पहले इस सूची में एक नाम और जोड़ लें- सोमनाथ!

अब सभ्यतागत संघर्ष और सत्ता की सोच को समझना सरल हो जाएगा। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ पुनरोद्धार कार्यक्रम (11 मई, 1951) में कहा था, ‘‘सोमनाथ मंदिर इस बात का परिचायक है कि पुनर्निर्माण की ताकत हमेशा तबाही की ताकत से ज्यादा होती है।’’ किंतु देश के राष्ट्रपति के इस सत्य कथन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री क्या सोचते थे? ऐतिहासिक सत्य से पर्दा हटाने का साहस तो छोड़िए, जवाहरलाल नेहरू तो इतना भी नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उक्त कार्यक्रम में सम्मिलित भी हों।

काशी और अयोध्या के संदर्भ समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि किस प्रकार सत्ता के बूते समाज की आस्था का प्रहसन करने, समाज को रुलाने और खुद हंसने की इसी जिद ने भारतीय राजनीति को दो फाड़ कर दिया।

उदाहरण देखिए :

1949 में अयोध्या में विग्रह हटाने की जिद, पहले ताला लगाने का उपक्रम, फिर 1986 में इसे खोलने का ढोंग।

सारे साक्ष्य सामने होने पर भी विवादित ढांचा गिरने के बाद मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाने की दुस्साहसी उद्घोषण। शीर्ष सत्ता पर अकड़कर बैठी कांग्रेस को समाज की भावना, इस देश की संस्कृति और साफ दिखते साक्ष्यों के विरुद्ध जाने की क्या आवश्यकता थी?

यही कहानी समाजवादी पार्टी की रही। 1990 में राम नाम का कीर्तन करते कारसेवकों पर गोलियां बरसाने या 1993 में काशी ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में पूजा-पाठ को रोकने के पीछे कैसी बर्बर, अन्यायपूर्ण राजनीतिक सोच रही होगी!

नेता यदि सामाजिक भावनाओं को अनुभव नहीं करते तो वे नेतृत्व नहीं कर सकते। ऐसे में वह परिवार और चाटुकार कोटरी के लिए भले चमकदार ‘अगुआ’ दिखें, दल के लिए दलदल और धंसान ही पैदा करते हैं।

भारत के मामले में किसी भी नेतृत्व को बड़ा या बौना बनाने वाला यह अंतर सांस्कृतिक समझ का अंतर है। अगर भारत के सांस्कृतिक गौरव के बारे में समझ सही होती तो अंग्रेजों-मुगलों ने जो बिगाड़ा था, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ता ने उसे पूरे मन से संवारा होता।

किन्तु भग्न भारत की दुर्दशा को देखकर भी अनदेखा करने और अपनी रुचि रूमानी दुनिया के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की गुलाबी तस्वीर परोसने की कहानी, समझ का यही फेर है। (संकेत रूप में इसका उल्लेख पैट्रिक फ्रेंच ने भी किया है) यदि ऐसा न होता तो 12 नवंबर, 1947 को जवाहरलाल नेहरू की आंखों में भी वही आंसू होते, जो तब सरदार पटेल की आंखों में थे। वही सपना होता, जो डॉ. राजेंद्र प्रसाद की आंखों में था।

राष्ट्रीय नेताओं की एक धारा वह थी जो महमूद गजनवी द्वारा उध्वस्त, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रथम कहे जाने वाले, सोमनाथ के पुनरुद्धार के लिए दृढ़प्रतिज्ञ और उद्वेलित थी। और सत्ता की ठसक से भरी दूसरी धारा वह, जो इस सबसे बेपरवाह थी। इतना ही नहीं, उसे इस पर घोर आपत्ति भी थी। यही अंतर था जिसने आधुनिक भारतीय राजनीति की अलग धाराओं की नियति लिख दी। एक वे, जिन्हें इतिहास के निष्ठुर-बर्बरतम पल याद हैं, जिन्हें धरोहरों में अपने पुरखे दिखते हैं। और दूसरे वे, जो आक्रांताओं को अतिथि बताते हुए सच से आंखें मूंद लेना चाहते हैं, जिन्हें हजारों माताओं के जौहर, नरमुंडों की मीनारें, गुरुओं के बलिदान, पुरखों का बलात मत परिवर्तन, यह कुछ नहीं दिखता। जो यह सब नहीं बताते, वे ‘काफिले बसते गए, हिन्दोस्तां बनता गया’ का तराना सुनाते हैं।

किन्तु विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता के इतिहास में आक्रांताओं के अट्टहास की गूंज भी है और इन्हें परास्त करने वाले पराक्रम की हुंकार भी। स्वार्थ व आत्ममुग्धता से भरे प्रपंचकों के किस्से भी हैं और छत्रपति शिवाजी महाराज और लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की गाथाएं भी। सोमनाथ, अयोध्या का ध्वंस भी, पुनरोद्धार भी!

अयोध्या जिस विलक्षण क्षण की साक्षी बनी, वह हम सबने देखा। छिटपुट निर्णयों से आगे काशी का घटनाक्रम भी हम ऐतिहासिक सत्य और न्याय की दिशा में बढ़ते अवश्य देखेंगे।

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आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 20 अगस्त, 2021 को सोमनाथ मंदिर परियोजनाओं के उद्घाटन के समय दिया संबोधन स्वत: याद आता है। उन्होंने अपने संबोधन में अहिल्याबाई का जिक्र करते हए कहा था, ‘‘आज मैं लोकमाता अहिल्याबाई होलकर को भी प्रणाम करता हूं, जिन्होंने विश्वनाथ से लेकर सोमनाथ तक, कितने ही मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। प्राचीनता और आधुनिकता का जो संगम उनके जीवन में था, आज देश उसे अपना आदर्श मानकर आगे बढ़ रहा है।’’

निश्चित ही ऐतिहासिक अन्याय के परिमार्जन की दिशा में देश आगे बढ़ रहा है। काशी ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में अर्चना के स्वर, डमरू और घंटियों की गूंज नंदी के कानों में पड़ रही है।

सबको मुक्ति की आश्वस्ति देने वाले अविमुक्तेश्वर की पदचाप अब गूंजने लगी है। नंदी साधना और दीर्घ प्रतीक्षा के प्रतीक हैं। नंदी की प्रतीक्षा मानो पूरी होने को है।

(लेखक ‘पाञ्चजन्य’ के संपादक हैं। आलेख ‘पाञ्चजन्य’ 11 फरवरी 2024 से साभार)