के. विक्रम राव।

इस्राइल से भारत के रिश्ते पांच दशकों से कटे रहे। कारण बस इतना था कि यहूदी गणराज्य से जो भी भारतीय पार्टी नातेदारी करती है हिन्दुस्तानी मुसलमान उसे वोट नहीं देते।


 

Israel steps up Gaza offensive, kills senior Hamas military leaders | World News – India TV

अरब आतंकी गिरोह ”हरकत—अल—मुक्वाम—अल—इस्लामी” (हमास) के राकेट के हमले से गाजा सीमावर्ती इलाके में सेवारत नर्स 32—वर्षीया सौम्या की 11 मई की रात मृत्यु हो गयी। अगले ही दिन विश्व नर्स दिवस था। उसकी अस्सी—वर्षीया यहूदी मरीज भी बुरी तरह घायल हो गयी। आक्रमण के वक्त सौम्या अपने पति संतोष से फोन पर नौ—वर्षीय पुत्र के हालचाल ले रही थी। पति ने विस्फोट सुना और फोन खामोश हो गया।

पांच हजार किलोमीटर दूर केरल के हरित जिले इदुक्की के ग्राम कीरीथाडु में अपने कुटुम्ब को छोड़कर सौम्या जीविका हेतु नौ साल पूर्व इस्राइल आयी थी। हालांकि इदुक्की के कांग्रेसी सांसद एएम कुरियाकोस को विदेश राज्य मंत्री तथा केरल भाजपा अध्यक्ष वी. मुरलीधरन ने सौम्या के शव को भारत शीघ्र लाने की सूचना दी।

राष्ट्रहित बनाम मजहबी दबाव

India Israel ties: A timeline

मंथन का मुद्दा यहां यह है कि इस्लामी आतंक से विश्व कब तक संतप्त रहेगा? इस्राइल से भारत के रिश्ते पांच दशकों से कटे रहे। कारण बस इतना था कि यहूदी गणराज्य से नातेदारी जो भी भारतीय पार्टी करती है हिन्दुस्तानी मुसलमान उसे वोट नहीं देते। फिलिस्तीन का मसला कश्मीर जैसा बना दिया गया। दोनों मजहबी पृथकवाद के शिकार रहे। सेक्युलर भारत के किसी भी राजनेता में इतना पुंसत्व नहीं रहा कि वह कहे कि विदेश नीति का एकमात्र आधार राष्ट्रहित होता है, मजहबी अथवा भौगोलिक दबाव नहीं। लेकिन इस्राइल—नीति की बाबत सीधा वोट से रिश्ता हो गया। जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो इस्राइल के विदेश मंत्री जनरल मोशे दयान दिल्ली लुकेछिपे आये थे। अटल बिहारी वाजपेयी, विदेश मंत्री, सूरज ढले रात के अंधेरे में सिरी फोर्ट के परिसर में उनसे मिले थे। मजबूत इच्छाशक्ति के धनी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने तब कहा था कि यदि वे और अटलजी रोशनी में इस यहूदी राजनयिक से मिलते तो जनता पार्टी की सरकार ही गिर जाती। मोशे दयान की इस गुपचुप यात्रा को तब कांग्रेसी संपादक एमजे अकबर ने अपने दैनिक ”दि टेलीग्राफ” में साया किया था। तो ऐसी सियासी धौंस रही पचास वर्ष तक इन वोट—बैंक के मुल्ला—मालिकों की भारतीय कूटनीति पर!

नरसिम्हा राव और मोदी

An Unsolicited Advice from PV Narasimha Rao to PM Narendra Modi

भला हो कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का जिन्होंने (1992) इस्राइल को मान्यता दी और उसका राजदूतावास खुलवाया। फिर जो भी प्रधानमंत्री आये खासकर वामपंथी इन्दर गुजराल आदि ने इस्राइल से रिश्ते उदासीन ही रखे। नरेन्द्र मोदी ने सारा श्रेय ले लिया, जब उन्होंने इस्राइल के प्रधानमंत्री को भारत आमंत्रित किया और स्वयं राजधानी तेलअविव और पवित्र जेरुशलेम गये।

मोदी ने तेलअविव में कहा भी था कि : ”इतिहास के इस संकोच” को उन्होंने मिटा दिया। प्रधानमंत्री को कहना चाहिये था कि वे किसी अल्पसंख्यक वोट बैंक के कैदी नहीं हो सकते। भारत की विदेश नीति को कोई भी आतंकी गुट भयभीत नहीं कर सकता।

जो दोषी हैं इस्राइल से रिश्ता न रखने के

लेकिन अब राष्ट्रस्तर पर बहस होनी चाहिये और जो दोषी हैं इस्राइल से रिश्ता न रखने के उन अपराधियों को इतिहास के कटघरों में खड़ा किया जाये। संयुक्त राष्ट्र समिति में 1949 में इस्राइल गणराज्य को सदस्य बनाने का प्रस्ताव आया था। जवाहरलाल नेहरु के आदेश पर भारत ने इस्राइल के विरुद्ध वोट दिया। सारे इस्लामी राष्ट्रों ने भी विरोध किया था। इन्हीं इस्लामी राष्ट्रों ने कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया था। एक दकियानूसी मजहबी जमात है। उसका नाम है ”आर्गेनिजेशन आफ इस्लामी कंट्रीज।” जब मुस्लिम फिलीस्तीन का विभाजन कर नया राष्ट्र इस्राइल का गठन हो रहा था तो सारे मुस्लिम देशों ने जमकर मुखालफत की थी और शाश्वत हिंसक युद्ध की धमकी भी दी। मगर जब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा विशाल भारत का विभाजन कर पश्चिमी तथा पूर्वी पाकिस्तान (आज बांग्लादेश) बन रहा था तो सारे इस्लामी राष्ट्रों ने तकसीम का स्वागत किया था। आज तक कश्मीर को ये राष्ट्र समूह पाकिस्तानी ही मानता है। ”सारे जहान से अच्छा” पंक्तियों के रचयिता अलामा मोहम्मद इकबाल ने 1909 में लिखा था कि : ”जो मुसलमान जिहादी नहीं है, वे सब यहूदियों की भांति कायर हैं।” वजह यह थी कि औसत यहूदी व्यापारी है और शांतिप्रिय होता है। हालांकि पंथनिरपेक्ष गणराज्य के उपराष्ट्रपति पद का दशक तक आनन्द उठाने वाले मियां मोहम्मद हामिद अंसारी राज्यसभा में इस्राइल का विरोध ही करते रहे।

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भारतीय मुस्लिमों से अपेक्षा रही थी कि वे मिल्लत को समझायेंगे कि इस्राइल से मदद भारतहित में है। पर ऐसा प्रयास कभी भी नहीं किया गया। मसलन इस्राइल अब 5—जी में सहयोग कर मुम्बई अस्पताल के मरीज का शल्य चिकित्सा तेलअविव में बैठकर संचालित कर सकता है। भारत को कृषि, जलसिंचन, रेगिस्तान को हराभरा बनाने, खाद्य सुरक्षा आदि में सहयोग दे सकता हे। सुरंग खोदने में उसे दक्षता है। पाकिस्तान सीमा पर इस तकनीक द्वारा वह घुसपैठियों को बाधित कर सकता है। इस्राइल के पास राडार व्यवस्था है, जिससे जंगलों में छिपे नक्सली आतंकियों का पता लगाया जा सकता है।

एक खास बात। जितने भी अरब राष्ट्र हैं जो इस्राइल पर वीभत्स आक्रमण कर चुके हैं तथा आज भी उसे नेस्तानाबूद करने में ओवरटाइम करते हैं, सभी निजी तौर पर इस्राइल से तकनीकी और व्यापारी संबंध कायम कर रहे हैं। इन कट्टर इस्लामी देशों की लिस्ट में नाम है मोरक्को, बहरीन, अबू धाबी, जोर्डन, संयुक्त अरब अमीरात, सूडान इत्यादि। सबसे प्रथम है मिस्र जिसके नेता कर्नल जमाल अब्दुल नासिर ने सबसे पहले (7 जून 1967) को संयुक्त अरब देशों का हमला इस्राइल पर बोला था। सभी इस्लामी बिरादरी बुरी तरह पराजित हो गये थे। अचरज यह हे कि कम्युनिस्ट चीन जो आज इस्लामी देशों का भाई बनता है, उसने भारत द्वारा (29 जनवरी 1992) मान्यता देने के माह भर पूर्व ही इस्राइल को मान्यता दे दी थी।

बन्दूक के बल पर सरकारें

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एक विशिष्टता और । इन अरब राष्ट्रों में वोट द्वारा नहीं, बन्दूक के बल पर सरकारें बनती है। इस्राइल में गत दो वर्षों में चार बार संसदीय मतदान हुआ। बहुमत की सरकार नहीं बन सकी थी। सवोच्च न्यायालय ने संसद के स्पीकर यूली एडेहस्टेइन को (25 मार्च 2020) त्यागपत्र देने पर विवश कर दिया था, क्योंकि उन्होंने सदन को निलंबित कर दिया था।

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अब देखिये भारत के विपक्षी दलों की निखालिस अवसरवादिता की एक झलक। संयुक्त राष्ट्र संघ में गाजा पर इस्राइल द्वारा प्रतिरोधात्मक हमले (पुलिवामा टाइप) करने की निन्दा वाले प्रस्ताव का भारत ने समर्थन नहीं किया था। इस पर पीडीपी की कश्मीरी नेता महबूबा मुफ्ती ने लोकसभा में (15 जुलाई 2014) मोदी सरकार की आलोचना वाला प्रस्ताव पेश किया। इसका समर्थन किया तृणमूल कांग्रेस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, समाजवादी पार्टी, मजलिसे इतिहादे मुसलमीन आदि ने। संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू ने प्रस्ताव को बहुमत द्वारा अस्वीकृत करा दिया। मगर हमास के गाजा पट्टी पर घातक हमले की निन्दा अभी तक भारत में किसी ने नहीं की। सौम्या की शहादत को क्या यही श्रद्धांजलि है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)