बालेन्दु शर्मा दाधीच।
अगर आप अपने आसपास नज़र डालेंगे तो तुरंत पहचान जाएंगे कि आपके सोशल मीडिया नेटवर्क में कौन उपभोक्ता है और कौन सप्लायर। कौन सिर्फ कम्युनिकेटर है और आपके कम्युनिकेशन को और आपके डेटा को मोनेटाइज करने की स्थिति में है। ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी हो सकते हैं और वे लोग भी जिन्हें सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर कहा जाता है।
क्या आप जानते हैं कि आपका कितना डेटा सोशल मीडिया कंपनियों ने इकट्ठा करके रखा हुआ है? एक मिसाल देता हूँ। ब्रिटेन का एक अखबार है द गार्जियन। उसके एक पत्रकार डायलन करन ने गूगल पर पड़ा अपना सारा निजी डेटा डाउनलोड करके देखा जो गूगल मोबाइल फोन, गूगल सर्च और दूसरे ठिकानों पर आपकी गतिविधियों से इकट्ठा करता है। इस डेटा का आकार था साढ़े पाँच गीगाबाइट। अगर आप माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के औसत साइज के 30 लाख डॉक्यूमेंट बनाएंगे तो उनका आकार इतना होगा। जब उन्होंने फेसबुक से अपना डेटा डाउनलोड किया तो उसका आकार निकला 600 मेगाबाइट। यानी चार लाख वर्ड डॉक्यूमेंटों के बराबर। जाहिर है, इस डेटा से इन कंपनियों ने बहुत कुछ हासिल किया होगा। कैंब्रिज एनालिटिका के बारे में आपको पता ही होगा। आप जानते ही हैं कि आम यूज़र के डेटा का उपयोग करके कैसे पूरी की पूरी सरकारें बदल दी जाती हैं और मतदाता के वोट का लक्ष्य बदल जाता है।
जो सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर हैं वे भी इन माध्यमों से बहुत कुछ हासिल करते हैं। दूसरे लाभों को छोड़ दें और सिर्फ आर्थिक लाभ की बात करें तो ये कुछ उदाहरण देखिए। अमेरिका की मशहूर रियलिटी टीवी स्टार और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर किम कार्दाशियान इन्स्टाग्राम पर किसी कंपनी के पक्ष में एक टिप्पणी करने के एवज में कुछ करोड़ रुपए लेती हैं। हमारे विराट कोहली भी करोड़ों लेते हैं और अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा भी। भुवन बाम और टेक्निकल गुरूजी जैसे इन्फ्लुएंसर भी कुछ करोड़ रुपए सालाना कमाते हैं। मगर आप और हम इस सोशल मीडिया से कितना कुछ अर्जित करते हैं? सिर्फ आर्थिक रूप से नहीं बल्कि किसी भी रूप में। या फिर हम इससे पाते नहीं बल्कि सिर्फ खोते हैं- अपना समय, अपना क्वालिटी टाइम, अपना स्वास्थ्य, अपने मन की शांति, अपना पैसा, खेलकूद का समय, सामाजिक मेलजोल के अवसर, अपने रिश्तों की गरमाहट और ऐसी ही कुछ दूसरी चीजें?
सिर्फ इस्तेमाल करने के लिए इस्तेमाल करने से सोशल मीडिया आपको कुछ नहीं देने वाला है। अलबत्ता वह आपसे बहुत कुछ ले लेगा, भले ही आपको इसका अहसास भी न हो और शायद आपको फर्क भी न पड़ता हो।
हमने और हमारे बर्ताव ने सोशल मीडिया, उसके कलेवर तथा कामकाज के तौर-तरीकों को प्रभावित किया है, इस बात में कोई संदेह नहीं। लेकिन शायद सोशल मीडिया ने हमें ज्यादा प्रभावित कर दिया है। मैं आपको दो उदाहरण देना चाहूंगा। अब यह मान्यता लगभग आम हो चुकी है कि सोशल मीडिया हमारी याददाश्त और तर्क क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। छोटे से छोटे सवाल के लिए हम जवाब सोचने की बजाए गूगल पर सर्च करने लगे हैं। इंटरनेट युग में हम अपने मस्तिष्क पर जोर डालने के आदी नहीं रह गए हैं। हम अपनी स्मृति को कष्ट नहीं देना चाहते क्योंकि हमें लगता है कि अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं रह गई है- गूगल हमारी वर्चुअल स्मृति बन गया है। हम किसी का फोन नंबर याद करने की कोशिश भी नहीं करते क्योंकि मोबाइल फोन वह काम कर देता है।
निकोलस कार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द शैलोज’ में सवाल उठाया है कि क्या गूगल हमें बेवकूफ बना रहा है? उन्होंने हमारे युग की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बहसों में से एक शुरू की है जिसका विषय है – इंटरनेट के शानदार फलों का आनंद लेने की प्रक्रिया में क्या हम गहराई से पढ़ने और लिखने की अपनी क्षमता का बलिदान कर दे रहे हैं? अपने ही आचरण को गौर से देखेंगे तो आप मानेंगे कि शायद यही सच है। हमें लंबी-चौड़ी चीजें पढ़ना अब पसंद नहीं है। इंटरनेट से डाउनलोड की हुई छोटी-छोटी जानकारियों से हमारा काम चल जाता है। हम किताबें खंगालकर कोई गहन शोध नहीं करते, गूगल पर सर्च करके थोड़ी जोड़-तोड़ से काम चला लेते हैं।
(लेखक जाने माने तकनीकीविद हैं और माइक्रोसॉफ़्ट में ‘निदेशक-भारतीय भाषाएं और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं)