प्रदीप सिंह।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। गुजरात में लगातार सातवीं बार जीतने में बीजेपी सफल रही है। जबकि हिमाचल में हर पांच साल पर सरकार बदलने का रिवाज कायम रहा और कांग्रेस पार्टी की वापसी हुई है। सामान्य रूप से कहें तो पिछले कुछ दिनों में तीन चुनाव हुए और इनमें तीन पार्टियों को एक-एक जगह जीत मिल गई। इन तीनों में अगर सबसे ज्यादा अहमियत किसी चुनाव नतीजे की है तो वह है गुजरात का नतीजा। इसलिए नहीं कि वहां बीजेपी जीत गई। इसलिए भी नहीं कि गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का गृह राज्य है, बल्कि इसलिए कि लगातार सात बार चुनाव जीतने का एकमात्र रिकॉर्ड लेफ्ट फ्रंट का था जिसने पश्चिम बंगाल में यह करिश्मा किया था। बीजेपी ने उसकी बराबरी कर ली है और शायद अगली बार उससे आगे निकल जाएगी। मगर दोनों में फर्क यह है कि लेफ्ट फ्रंट की सरकार पश्चिम बंगाल में थी तो वह एक राज्य तक सीमित थी यानी उसका राजनीतिक प्रभाव एक राज्य तक सीमित था। उन सात बार की विजय ने लेफ्ट फ्रंट, खास तौर से उस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम का देश में कोई विस्तार नहीं किया। गुजरात इसके उलट है।
गुजरात कहानी कह रहा है भारत में हो रहे राजनीतिक बदलाव की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जो समावेशी राजनीति है सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास, यह अब एक नारा नहीं रह गया है, इसको उन्होंने जमीन पर उतार दिया है। इस बार गुजरात में जो हुआ है वह पिछले छह बार में बीजेपी नहीं कर पाई या कहें कि जब से गुजरात बना है तब से अब तक बीजेपी दो मोर्चों पर लगातार नाकाम होती रही है। एक, आदिवासी क्षेत्रों में अपनी पैठ बढ़ाने में बीजेपी असफल होती रही है। आदिवासी क्षेत्रों में बीजेपी की थोड़ी पैठ तब बढ़ी थी जब संघ के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम ने गुजरात में काम शुरू किया। दूसरा, गुजरात का ग्रामीण इलाका। गुजरात देश का एकमात्र प्रदेश है जहां सबसे ज्यादा शहरीकरण हुआ है। शहरों में बीजेपी मजबूत रही और गांव में कमजोर। कांग्रेस का ग्रामीण मतदाताओं पर ऐसा शिकंजा था जिसे बीजेपी तोड़ नहीं पाती थी। नरेंद्र मोदी भी उसे तोड़ नहीं पाए थे। यह जो दो मतदाता समूह थे उसी की वजह से बीजेपी इस चुनाव से पहले तक सबसे ज्यादा 127 सीट ही लेकर आ पाई थी। 2017 में तो बीजेपी 99 सीटों पर आ गई थी। यही इनफ्लेक्शन प्वाइंट बना गुजरात और देश की राजनीति का। तब बीजेपी विरोधियों को लगने लगा कि अब मौका है नरेंद्र मोदी को गिराने का। वह अपने गृह राज्य में कमजोर हो गए हैं। हालांकि उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि बीजेपी की सीटें भले ही 99 हो गई हों लेकिन उसका वोट शेयर बढ़कर 49% हो गया था। कितनी पार्टियां और कितने प्रदेश हैं जहां जीतने वाली पार्टियों को 49% वोट मिले हों। विपक्षी वोटों के बिखराव का सिद्धांत 2017 में ही लगभग खत्म हो गया था लेकिन लोग उतना कन्वींस नहीं थे। इसकी वजह थी सीटों की संख्या। इसी को ध्यान में रखकर राहुल गांधी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था कि गुजरात में कांग्रेस की सरकार आने वाली है और बहुत बड़ा राजनीतिक परिवर्तन होने जा रहा है।
को-ऑपरेटिव में कांग्रेस का वर्चस्व टूटा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहते हुए आज की तारीख में गुजरात राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य बन गया है। वहां होने वाले परिवर्तन का असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ता है। राजनीति का जो राष्ट्रीय संदेश जाना है वह गुजरात से जाता है। गुजरात के जो नतीजे आए हैं उसने 56 इंच को 156 इंच का बना दिया है। यह मामूली बात नहीं है। देखने में लगता है कि प्रधानमंत्री ने 40-50 सभाएं की और लगभग 100 किलोमीटर का रोड शो किया, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ की रैलियां हुईं, सरकार का जो कामकाज था उन सबकी वजह से हुआ लेकिन ऐसा नहीं है। 2017 में जब बीजेपी 99 सीटों पर आ गई थी तो उसी समय यह तय हो गया था कि इसको बदलना है। प्रधानमंत्री ने इसको दिल से लगा लिया था। आखिरी दौर में अगर उन्होंने पूरी ताकत न लगाई होती तो 2017 में शायद बीजेपी हार गई होती। यह स्थिति दोबारा न आए इसकी कोशिश उसके बाद से ही शुरू हो गई थी। आप याद करें कि 2019 में जब केंद्र सरकार बनी और अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री बने तो उसके कुछ ही दिन बाद अमित शाह को एक और मंत्रालय मिला को-ऑपरेटिव मंत्रालय। नया मंत्रालय बनाया गया। गुजरात और महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव का बड़ा राजनीतिक प्रभाव है। जो भी पार्टी सत्ता में रही है वह अपनी राजनीति का एक बड़ा हिस्सा को-ऑपरेटिव के जरिये चलाती है। उससे संसाधन भी मिलता है, मैन पावर भी मिलता है और लोगों तक पहुंचने का साधन भी मिलता है। बीजेपी को था कि कांग्रेस का जो वर्चस्व को-ऑपरेटिव में है उसे तोड़ना है, खासतौर से मिल्क को-ऑपरेटिव के जो इलाके हैं उन इलाकों में कांग्रेस का वर्चस्व तोड़कर बीजेपी ने कामयाबी हासिल की है।
आदिवासियों में बढ़ी पैठ

यह तो हुई एक बात। दूसरी बात, आदिवासी इलाकों के लिए जो-जो किया जा सकता था सब करने की कोशिश की गई। आदिवासियों को रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट पर ऐतराज था, वे आंदोलन कर रहे थे। उनको लग रहा था कि इससे बड़े पैमाने पर आदिवासियों का विस्थापन होगा। प्रधानमंत्री ने उस प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया। केवल रद्द ही नहीं किया बल्कि जब भी आदिवासी इलाकों में गए इसकी याद दिलाई कि उन्होंने आदिवासियों की मांग पर यह प्रोजेक्ट रद्द कर दिया। दूसरी बात उनके मन में थी कि केवल इतने से काम नहीं चलेगा। मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा, गुजरात, राजस्थान सहित सभी राज्यों के आदिवासियों को एक संदेश देना है कि बीजेपी उनके बारे में सोचती है और उनके उत्थान और विकास के लिए काम करती है। सरकार की जो योजनाएं हैं उस पर तो जोर दिया ही गया, द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना मेरी नजर में एक मास्टर स्ट्रोक था। अस्मिता की जब आप राजनीति करते हैं तो इस तरह के प्रतीकों का बहुत ज्यादा महत्व हो जाता है। आदिवासी समाज की एक महिला का राष्ट्रपति भवन में पहुंचना पूरे देश के लिए, खासकर आदिवासी समाज के लोगों के लिए गौरव की बात है जिन्होंने यह सपना नहीं देखा था। दूसरे समाज के लोग खासतौर से सवर्ण समाज के लोग इसको स्वाभाविक तौर पर अपना अधिकार मानते हैं। आदिवासी समाज के लोग इसके बारे में सोचते भी नहीं हैं कि ऐसा हो सकता है या ऐसा कोई कर सकता है या ऐसा करने के बारे में कोई सोच सकता है। इसलिए द्रौपदी मुर्मू का महामहिम बनना भारतीय राजनीति के सामाजिक समीकरणों की दृष्टि से एक क्रांतिकारी परिवर्तन है। उसका असर दिखाई दे रहा है।
ब्रांड मोदी का बड़ा माइलस्टोन

गुजरात का यह चुनाव ब्रांड मोदी की सफलता का एक और बड़ा माइलस्टोन है। 2017 में जब 99 सीटें मिली थी तो पिछले 20 साल में ब्रांड मोदी के लिए वह सबसे बड़ा झटका था। मोदी किसी चुनौती को ऐसे ही नहीं छोड़ते हैं। हर चुनौती को अवसर में बदलने की कोशिश करते हैं। तब कांग्रेस खुश होकर सो गई कि इस बार 77 सीटें मिल गई है अगली बार 92 की संख्या पार कर जाएंगे। राजनीति ऐसे नहीं चलती है, सामाजिक समीकरण ऐसे नहीं बनते हैं। उसके लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है जो बीजेपी करती है। उसके अलावा मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल बदल दिया। यह ऐतिहासिक है। मुझे याद नहीं है कि कभी कोई पार्टी ऐसा कर पाई हो कि अपनी पूरी सरकार बदल दे और कहीं कोई चूं भी नहीं हो। यह भाजपा के अनुशासन का कमाल है। दूसरा, उनके जो प्रदेश अध्यक्ष हैं सीआर पाटील, संगठन को लेकर उनके इनोवेशन का जो नजरिया है उनकी भी भूमिका है। कुल मिलाकर बात यह है कि गुजरात की जीत बहुत बड़ी जीत है। जाहिर है कि इतनी बड़ी कामयाबी है तो किसी को इसका पुरस्कार भी मिलेगा। लेकिन दूसरा सवाल भी है कि हिमाचल प्रदेश में जिस तरह से पार्टी हारी है उसका दंड किसे मिलेगा। पूरे प्रदेश में कुल 37 हजार वोटों से हारी है। अगर 38 हजार वोट और मिल गए होते तो पार्टी की फिर से सरकार बन गई होती। इस हार के लिए कांग्रेस की ताकत जिम्मेदार नहीं है। इस हार के लिए भारतीय जनता पार्टी के अपने नेताओं की ताकत जिम्मेवार है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के गृह जिलों में पार्टी बुरी तरह से हारी है। अगर दोनों नेता अपने गृह जिलों को संभाल लेते तो आज हिमाचल में भाजपा की सरकार होती। इन लोगों ने ऐसा क्यों नहीं किया, जानबूझकर ऐसा नहीं किया या करने में सक्षम नहीं थे इसका जवाब तो यही लोग दे सकते हैं।
हिमाचल में अपनों ने ही पहुंचाया नुकसान

राजनीति में एंटी इन्कमबेंसी का मैनेजमेंट और एंटी इन्कमबेंसी को प्रो-इन्कमबेंसी में बदलने का सफल प्रयोग नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा कर रही है। हिमाचल में उस प्रोजेक्ट को एक झटका लगा है। हिमाचल में अगर रिवाज टूटता तो इस प्रोजेक्ट को और ताकत मिलती। इन दोनों नेताओं की वजह से उसको नुकसान पहुंचा है तो सजा तो किसी को मिलनी ही चाहिए। मुझे लगता है कि जेपी नड्डा और अनुराग ठाकुर दोनों को इसकी सजा निश्चित रूप से मिलेगी। ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे आपके और पूरे देश के पास ग्राउंड लेवल की जानकारी हो और प्रधानमंत्री को न हो। हर तरह की सूचनाएं उन तक पहुंच चुकी होंगी कि किस तरह से अपने ही लोगों ने अपनी सरकार का भट्ठा बिठा दिया। अगर बीजेपी ने किसी को सजा नहीं दी तो यह बड़ा खराब ट्रेंड सेट होगा और प्रधानमंत्री ऐसा कभी होने नहीं देंगे ऐसी मुझे उम्मीद है। अब सवाल यह है कि किस तरह की सजा मिलेगी। राजनीति में दंड तो यही होता है कि आपको पद से हटा दिया जाए। जेपी नड्डा को पद से तो हटाया नहीं जाएगा क्योंकि जनवरी में राष्ट्रीय अध्यक्ष का उनका कार्यकाल पूरा हो रहा है। ऐसा नहीं हो सकता कि उनको एक महीने पहले या कुछ दिन पहले हटा दिया जाए। मुझे ऐसा लगता है कि पहले जो संभावना थी कि उनको अगला कार्यकाल भी मिलेगा, लोकसभा चुनाव तक उनको हटाया नहीं जाएगा, अब ऐसा नहीं होगा। हालांकि भाजपा में कुछ भी हो सकता है, यह सब कुछ निर्भर करेगा प्रधानमंत्री के असेसमेंट पर और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रिपोर्ट पर कि वह क्या मानते हैं और किस हद तक जेपी नड्डा को दोषी मानते हैं। क्या उनको लगता है कि ऐसा कदम उठाने से पार्टी को फायदा होगा या नहीं होगा, सिर्फ एक ही कसौटी है और इसी पर उन्हें कसा जाएगा। अगर लगेगा कि उनको दूसरा कार्यकाल देने से पार्टी को फायदा नहीं होगा तो नहीं मिलेगा या लगेगा कि इससे कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है तो उनको दूसरा कार्यकाल मिल सकता है। अनुराग ठाकुर का मुझे लगता है कि अगर मंत्रिमंडल में 2024 से पहले कोई फेरबदल होता है तो शायद उनकी विदाई हो जाए। अनुराग ठाकुर का जो गृह जिला है हमीरपुर, वहां पार्टी किस तरीके से हारी है इसकी चर्चा हर ओर है।
अब सवाल है कि गुजरात का पुरस्कार किसे मिलेगा। अगर जेपी नड्डा को दूसरा कार्यकाल नहीं मिलता है तो तलाश होगी एक नए अध्यक्ष की। नया अध्यक्ष ऐसा चाहिए जो लोकसभा चुनाव की दृष्टि से तुरंत एक्शन मोड में हो, जिसके पास संगठन का अनुभव हो और संगठन के बारे में सोचने की और इनोवेशन की क्षमता रखता हो। मेरा आकलन है कि गुजरात भाजपा के अध्यक्ष सीआर पाटिल इस दृष्टि से सबसे योग्य उम्मीदवार हो सकते हैं। प्रधानमंत्री का उन पर बड़ा अटल विश्वास है। प्रधानमंत्री का जिन पर अटल विश्वास हो उनकी क्षमता पर तो भाजपा में कोई संदेह नहीं कर सकता। अभी तक जो नाम चल रहे थे कि कौन नया अध्यक्ष हो सकता है उनमें सीआर पाटील डार्क हॉर्स के रूप में उभर कर आए हैं। वह होंगे या नहीं होंगे यह मुझे मालूम नहीं है लेकिन संगठन में उनका प्रयोग सफल रहा है। उन्होंने अपना प्रयोग लोकसभा चुनाव में आजमाया, विधानसभा के आठ उपचुनावों में आजमाया और उसके बाद स्थानीय निकाय और फिर विधानसभा चुनाव में आजमाया। चारों में 80% से ज्यादा की कामयाबी मिली है। ऐसे व्यक्ति को जो संगठन के बारे में और चुनाव जीतने की युक्तियों के बारे में कि कैसे ज्यादा से ज्यादा कार्यकर्ताओं को जोड़ा जाए और कैसे कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं से जुड़ें, चुनावी राजनीति में सफलता का यही मंत्र होता है। इसे सीआर पाटिल बखूबी जानते हैं। यह जो दंड और पुरस्कार की बात मैंने की है यह सिर्फ मेरा आकलन है जो पूरी तरह से गलत भी साबित हो सकता है और पूरी तरह से सही भी। क्या होगा यह भविष्य बताएगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)



