पश्चिम बंगाल में जो हिंसा का तांडव चल रहा है वह देश में कोरोना संक्रमण की संकटपूर्ण स्थिति के बाद दूसरी सबसे बड़ी चिंता की बात है। अगर दीर्घकाल की दृष्टि से देखें तो बंगाल की राजनीतिक हिंसा कोविड से भी बड़ी चिंता की बात होनी चाहिए।
बड़ी चिंता की बात इसलिए भी कि हमारे देश में लोकतंत्र है …और क्या लोकतंत्र में ऐसा होना चाहिए कि जो पार्टी चुनाव में जीतेगी वह हारने वाली पार्टी के कार्यकर्ताओं के घर जला देगी, उनके घरों में लूटपाट करेगी, महिलाओं के साथ बलात्कार करेगी? क्या उसे इसकी छूट मिलेगी और पुलिस व प्रशासन मूकदर्शक बना देखता रहेगा? यह छूट किसी भी पार्टी को, किसी भी नेता को, चाहे उसे कितना भी बड़ा जनादेश क्यों न मिला हो- कैसे मिल सकती है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि बंगाल के हिंदुओं की रक्षा कौन करेगा? बंगाल की सरकार नहीं करेगी, पुलिस नहीं करेगी- वे दोनों दंगाइयों की मदद में खड़े हैं।
Protested against TMC sponsored post-poll violence at BJP office, Kolkata. Those who are supposed to protect the people are responsible for this violence. We take a vow to protect the Constitutional values laid down by Dr. BR. Ambedkar & stop this political violence from Bengal! pic.twitter.com/iprA5esbWz
बंगाल में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर लगता है जैसे इतिहास अपने आप को दोहरा रहा हो। 16 अगस्त 1946 को जब जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन का आह्वान किया था- उस समय बंगाल और खासकर कोलकाता में जिस प्रकार की हिंसा हुई थी- वही हिंसा आज बंगाल के अलग-अलग इलाकों में देखने को मिल रही है। हम उसी ओर जा रहे हैं। उस समय बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी थे- आज ममता बनर्जी हैं जो अभी दो दिन पहले बहुत बड़े जनादेश के साथ जीत कर आई हैं।
लोकतंत्र में ऐसा प्रावधान है कि चाहे प्रधानमंत्री हो, मुख्यमंत्री हो, मंत्री हो या जनप्रतिनिधि हो- वह सबका होता है। उसे चाहे 30 फ़ीसदी वोट मिले हों या 40 फ़ीसदी या फिर 60 फ़ीसदी- वह प्रतिनिधित्व 100 फ़ीसदी लोगों का करता है। बंगाल में ऐसा नहीं हो रहा है …और ऐसा नहीं होगा तो जनतंत्र नहीं चलेगा।
अम्बेडकर की चेतावनी
बंगाल में हो रही हिंसा पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि वे इस हिंसा से प्रभावित परिवारों से मिलने जा रहे हैं। भाजपा ने 5 मई को देशव्यापी धरने का आह्वान किया है। संविधान सभा में दिए डॉक्टर अंबेडकर के अंतिम भाषण को याद रखना जरूरी है जिसमें उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि ‘अब हम स्वतंत्र हैं। हमें अपना संविधान मिलने जा रहा है। इसलिए ब्रिटिश काल में जो हमारे विरोध प्रदर्शन के तौर तरीकों जैसे धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल, आमरण अनशन आदि को बंद कर दिया जाना चाहिए वरना जनतंत्र खतरे में आ जाएगा।’ उन्होंने कहा कि ‘अब हमारे पास संवैधानिक अधिकार हैं, अपनी समस्याओं को सुलझाने के संवैधानिक औजार हैं, हमें उनका सहारा लेना चाहिए।’
बंगाल में हो रही राजनीतिक हिंसा के संदर्भ में डॉ अंबेडकर की बात का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि जो सरकार अपने नागरिकों की जान माल की हिफाजत करने में अक्षम हो- और केवल अक्षम ही ना हो बल्कि दंगाइयों के मदद कर रही हो- उससे निपटने के हमारे पास माकूल संवैधानिक अधिकार हैं। बंगाल में चुनाव के बीच दिए गए ममता बनर्जी के उस बयान को नहीं भुलाया जा सकता जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘केंद्रीय सुरक्षा बल तो 2 मई के बाद चले जाएंगे, तुमको रहना तो यहीं है- तब देखेंगे’… तो अब वह देख रही हैं… और देख रहा है पूरा देश यह तमाशा। निजी आजादी, मौलिक अधिकार और जनतंत्र की दुहाई देने वाले सभी झंडाबरदारों के मुंह पर इस समय ताला लगा हुआ है।
Protest against the TMC sponsored post-poll violence at BJP office, Kolkata in West Bengal https://t.co/kyyFqazeTO
बंगाल में जारी राजनीतिक हिंसा के मामले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ से बात की और चिंता जताते हुए कहा कि वहां जो कुछ हो रहा है वह रुकना चाहिए। सुनने में तो यह बड़ी अच्छी बात है। लेकिन रोकेगा कौन? क्या प्रधानमंत्री को नहीं पता कि किसी राज्य में कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का होता है। ऐसे में बंगाल में हो रही अराजकता को रोकने का अधिकार वहां की राज्य सरकार का है, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का है, वहां की पुलिस का है। जब वे खुद इस राजनीतिक हिंसा में शामिल हैं तो उसे रोकेगा कौन? राज्यपाल के पास ऐसा कौन सा अधिकार होता है? हां, राज्यपाल के पास एक अधिकार होता है। वह केंद्र को सिफारिश भेज सकता है कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति चरमरा गई है, विधान के मुताबिक शासन नहीं चल सकता, इसलिए यहां सरकार भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाया जाना चाहिए।
ऐसी पार्टी को कोई क्यों वोट देगा
फिलहाल वहां राष्ट्रपति शासन लगे या ना लगे- इसे केंद्र सरकार के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन इसके अलावा भी बहुत से कदम हैं जो केंद्र सरकार उठा सकती है। बंगाल के राजनीतिक हिंसा से प्रभावित लोगों को केवल केंद्र सरकार के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। केंद्र सरकार को केवल चिंता करते हुए और भाजपा को केवल धरना प्रदर्शन करते हुए नहीं देखा जा सकता। वहां जिन लोगों का घर लुट रहा है, जिनके परिवार की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है, जिनके घर को आग लगाई जा रही है- उनसे पूछिए उन पर क्या गुजर रही है। आखिर उनकी गलती क्या है? उनकी गलती यह है कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी को लगता है कि उन्होंने भाजपा को वोट दिया था। जो पार्टी अपने कार्यकर्ताओं की जान माल की रक्षा नहीं कर सकती उसको भला कोई वोट क्यों देगा- यह सवाल आज पश्चिम बंगाल के लोगों के मन में है।
अंग्रेजों, मुसलमानों से नहीं ऐसे हिंदुओं से डरते थे सावरकर
पश्चिम बंगाल में सिर्फ 30 फ़ीसदी मुसलमान हैं और 70 फ़ीसदी हिंदू हैं। इसके बावजूद हिंदुओं की यह स्थिति है। बंगाल में आज की स्थिति देखकर एक बार फिर स्वातंत्र्यवीर सावरकर की याद आती है। उन्होंने कहा था कि ‘मुझे ब्रिटिश राज यानी अंग्रेजों से डर नहीं लगता, मुसलमानों से भी डर नहीं लगता, मुझे डर लगता है उन हिंदुओं से जो हिंदुत्व के विरोधी हैं।’ आज हम उनकी बात को साकार होते हुए देख रहे हैं। हमें ऐसे हिंदुओं से डरने की जरूरत है। हम यहां किसी मुसलमान की बात नहीं कर रहे, ममता बनर्जी की भी बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे वही कर रही हैं जो उनसे अपेक्षित था। सबको पता था कि वह यही करेंगी जो वह 10 साल से करती आ रही हैं। इस समय नंदीग्राम में हारने का जो दुख उन्हें साल रहा है, यह उसी का बदला है। नंदीग्राम वहां विधानसभा क्षेत्र है जहां ममता बनर्जी को मात मिली। ममता बनर्जी यह सोचकर नंदीग्राम से चुनाव लड़ी थीं कि वहां 30 फ़ीसदी मुसलमान वोट हैं। वहां हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हो गया और नतीजा- साम दाम दंड भेद करने और सहानुभूति बटोरने के बाद भी ममता बनर्जी चुनाव हार गईं। यह वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही।
वैसे किसी को भी हार बर्दाश्त नहीं होती यह स्वाभाविक सी बात है- लेकिन क्या कोई चुना हुआ मुख्यमंत्री अपने ही प्रदेश के लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार कर सकता है। जिनके बल पर उसे शासन चलाना है उन्हीं लोगों के घर जला और उजाड़ सकता है। केंद्र सरकार यह कह सकती है कि वहां कानून-व्यवस्था की स्थिति ऐसी है या वैसी है …गवर्नर की रिपोर्ट आई है या नहीं आई है।
कमजोर सरकार का मजबूत कदम
एक उदाहरण देखें। 1990 में चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री थे। मेरे ख्याल में अब तक केंद्र में जितनी सरकारें बनी हैं उनमें वह सबसे कम सांसदों वाली पार्टी के नेता थे। इंटेलिजेंस ब्यूरो आईबी के रिपोर्ट आई कि तमिलनाडु की डीएमके सरकार लिट्टे की मदद कर रही है और उसके प्रमाण थे कि लिट्टे को किस तरह से हथियार दिए गए, ट्रेनिंग दी गई। केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के गवर्नर सुरजीत सिंह बरनाला को संदेश भिजवाया कि आप रिपोर्ट भेजिए कि द्रमुक सरकार को बर्खास्त किया जाए। गवर्नर ने मना कर दिया। वह अकाली दल के नेता थे और केंद्र की इस बात से सहमत नहीं थे। उन्हें लगा कि यह क्षेत्रीय दलों के साथ अन्याय होगा। केंद्र क्षेत्रीय दलों के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार करता रहता है और अनुच्छेद 356 का बहुत दुरुपयोग होता है। केंद्र में कांग्रेस की सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई थीं। यह सब सोचकर उन्होंने मना कर दिया। चंद्रशेखर ने कहा कि केंद्र सरकार के पास अधिकार है कि अगर गवर्नर रिपोर्ट न भेजे तो भी ऐसी परिस्थिति में वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकती है। उन्होंने तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त कर दिया। वह भी ऐसी स्थिति में जबकि वह अपनी पार्टी के 60-70 सांसदों के साथ कांग्रेस की मदद से सरकार चला रहे थे। उन्होंने यह बड़ा कदम उठाया और कोई कुछ नहीं कर पाया।
— PURNESH SUTHAR 🇮🇳🇮🇳 (@purnesh_suthar) May 5, 2021
इच्छा शक्ति है या नहीं
तो सवाल यह है कि आप में करने की इच्छा शक्ति है या नहीं। आज पश्चिम बंगाल में जो हो रहा है अगर केंद्र उसको होने देगा तो फिर देश में जगह-जगह वह होगा। इसको अगर नहीं रोका गया तो यह संदेश जाएगा कि हिंदुओं की रक्षा करने में देश की यह सरकार नाकाम है। आज देश के लोगों में बहुत आक्रोश है। आक्रोश ममता बनर्जी के प्रति नहीं है। उनसे तो यह अपेक्षित था कि वह ऐसा करेंगी। अगर न करतीं तो आश्चर्य होता कि कैसे उनका स्वभाव बदल गया। लेकिन न उनका स्वभाव बदल सकता है, न राजनीति। वह यही सब करके सत्ता में आई हैं। उनको पता है कि यही सब करने से सत्ता बनी रहती है। लोगों में उनको लेकर जो डर है उसी डर ने ममता बनर्जी को जिताया है।
एकजुट मुस्लिम और विभाजित हिंदू
ममता बनर्जी की जीत का पूरा श्रेय मुसलमानों के एक होने और हिंदुओं के बंटे होने को जाता है। पूरी स्थिति आसानी से समझ में आ जाती है जब ममता बनर्जी के रणनीतिकार इस बात की पुष्टि करते हैं कि उनकी सरकार ने दस साल मुस्लिमों का तुष्टीकरण किया। ऐसे में बाकी स्थिति का अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। अभी दो दिन पहले एक इंटरव्यू में प्रशांत किशोर ने कहा कि ‘जहां भी 28 से 30 फ़ीसदी मुसलमान हैं अगर वहां भाजपा को जीतना है तो उसे कम से कम 55 फ़ीसदी से ज्यादा हिंदुओं का वोट चाहिए। तभी वह जीत पाएगी वरना नहीं जीतेगी।’ भाजपा को असम में हिंदुओं का वोट मिला और वह जीत गई। बंगाल में नहीं मिला तो वह हार गई।
Protested against the brutalities of TMC Goons on Karyakartas of @BJP4Bengal.
Mamata’s swearing-in as CM is tarnished by her defeat in #Nandigram followed by #BengalViolence including murders of youths, looting shops of supporters & molesting Dalit Mahilas under her patronage. pic.twitter.com/aDMZEilCMv
मुसलमान मतदाता किस तरह से टैक्टिकल वोटिंग करता है इसर जानने के लिए बंगाल के दो मतदान केंद्रों का उदाहरण पर्याप्त है।
एक मतदान केंद्र का नंबर है 289, यहां 100 फ़ीसदी हिंदू मतदाता हैं। यहां कुल 709 मतदाता हैं जिनमें से 543 ने वोट डाले। यानी कुल 76.58 फ़ीसदी वोट पड़े। यहां तृणमूल कांग्रेस को 252 और भाजपा को 226 मत मिले। फुरफुरा शरीफ के अब्बास सिद्दीकी की मुसलमानों पर आधारित और मुसलमानों के लिए ही बनी आईएसएफ पार्टी को 31 वोट मिले। यानी उसे 31 हिंदुओं ने वोट दिया। इसके अलावा एसयूसीआई को 6 और बीएमबी को 2 वोट मिले। 26 वोट नोटा में गए।
अब एक और मतदान केंद्र का हाल देखते हैं। मतदान केंद्र संख्या 297 में 100 फ़ीसदी मुसलमान मतदाता हैं। यहां कुल वोट हैं 611 और डाले गए वोटों की संख्या है 571… यानी 93 फ़ीसदी से ज्यादा। अब यहां वोटों का बंटवारा देखते हैं। तृणमूल कांग्रेस को 564 वोट मिले। एक वोट आईएसएफ को मिला। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को एआईएमआईएम को 6 वोट मिले। भाजपा को 0 वोट मिला और नोटा में भी 0 वोट गया। इसे अंदाजा लगा सकते हैं कि दोनों समुदायों का वोटिंग पेटर्न और उनकी वोट करने की रणनीति कैसी है। वे 30 फ़ीसदी होकर 60 फ़ीसदी का इफेक्ट पैदा करते हैं और हम 70 फ़ीसदी होकर 30 फ़ीसदी का। यही फर्क है।
आसानी से नहीं जागता हिंदू
जो बात हम आज देख रहे हैं उसे सावरकर ने दशकों पहले पहचान लिया था। शायद तभी उन्होंने कहा था कि उन्हें सबसे ज्यादा डर हिंदुओं के हिंदुत्व विरोधी होने से है। हिंदू आसानी से जागता नहीं है और धर्म उसको तब तक याद नहीं आता है जब तक खतरा या मौत उसके घर के अंदर तक नहीं पहुंचती। आज बंगाल के हिंदुओं को समझ में आ रहा होगा कि उन्होंने क्या किया। उन्होंने जिस तरीके से मतदान किया, वे उसका नतीजा भुगत रहे हैं। बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि आज पश्चिम बंगाल में स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसे हम सांप्रदायिक दंगा नहीं कह सकते- क्योंकि दंगा तो तब होता है जब दोनों तरफ से लोग लड़ रहे हों- यह एकतरफा है। यह ज्यादा खतरनाक इसलिए भी है क्योंकि पुलिस मूकदर्शक बनी हुई है और प्रशासन की शह है। अभी तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ऐसा कोई बयान नहीं दिखाई दिया जिसमें वह इस हिंसा पर चिंता जाहिर करें और इसे रोकने की बात कहें। उनका कहना है कि यह सब बीजेपी वालों का नाटक है, वे दिखावा कर सहानुभूति बटोरना चाहते हैं। ममता बनर्जी को अपने प्रदेश में हो रही राजनीतिक हिंसा की इन घटनाओं की कोई चिंता नहीं है।
अब भी केंद्र सरकार ना जागी तो
इसमें दो राय नहीं कि बंगाल की आज की तस्वीर को देखते हुए कोई भी उद्योगपति वहां निवेश करने नहीं जाएगा। यानी अगले 5 साल तक बंगाल में कोई निवेश नहीं होने वाला है। बंगाल में इतना सब कुछ हो रहा है लेकिन देश के गृह मंत्री अमित शाह कहां हैं? के पंक्तियां लिखे जाने तक उनका कोई बयान सुनाई नहीं दिया। अगर अब भी केंद्र सरकार नहीं जागेगी और इसे राज्य की कानून व्यवस्था की सामान्य स्थिति मानकर छोड़ देगी तो आने वाले दिन बहुत बुरे होने वाले हैं। बंगाल में जो कुछ हो रहा है वह आने वाले दिनों का संकेत ही नहीं बल्कि चेतावनी है। अगर सुन ले सरकार तो बहुत अच्छी बात है। अगर सुन ले उस समुदाय के लोग जिन पर अत्याचार हो रहा है तो बहुत अच्छी बात है। नहीं तो- इसे और बड़े पैमाने पर ऐसे मंजर देखने के लिए तैयार रहिए।