वामपंथी इतिहासकारों ने मनगढंत कहानियां गढ़ कर सच को छुपाया

 

प्रदीप सिंह।

इतिहास को लेकर अपने देश में पिछले कुछ सालों से काफी चर्चा है। इतिहास को लगातार जानबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से गलत रूप में पेश किया गया। भारतीयों को कमतर दिखाने की, हारी हुई मानसिकता वाला कमजोर दिखाने, मुगलों को, अंग्रेजों को बड़ा करके दिखाने, उन्होंने जो किया जो अच्छा किया उसे बढ़ा कर दिखाना और उनके जो कारनामे हैं, कुकृत्य हैं उनको दबा कर दिखाने का काम किया गया। आजादी के आंदोलन के जो वीर हैं उनको कम से कम दिखाने की कोशिश की गई। तमाम तरह की कोशिशें की गई। अब उन इतिहास के पुनर्लेखन की बात चल रही है। इतिहास को सही संदर्भ में पेश करने की बात चल रही है। सही तथ्यों के साथ पेश करने की बात हो रही है।

Bahadur Shah Zafar, the last Mughal who would rather have been a poet

भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर के बारे में कहा गया कि 1857 में उन्होंने आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का नेतृत्व किया। अंग्रेजों से लड़े, देश के लिए लड़े, कितने बड़े देशभक्त थे। जो विद्रोही थे उनका नेतृत्व किया। कहा गया कि बहादुर शाह जफर अंग्रेजों से लड़ते हुए आखिर में हार गए और अंग्रेजों ने उन्हें कैदी बना लिया। कैदी बनाकर उन्हें रंगून भेज दिया गया जहां वे जेल में रहे और जेल में रहते हुए उनकी मौत हो गई। बहादुर शाह जफर का बड़बोलापन आप देखिए कि हारने के बाद उन्होंने एक शेर लिखा-“गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।” जो तेग उनकी लाल किले से बाहर नहीं चल पाई बल्कि कहें कि आखिर में तो लाल किले में भी नहीं चल पाई उसकी लंदन तक चलने की बात कर रहे थे। मिलिट्री प्लानिंग के बारे में इस बादशाह को कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था। वह कमजोर अशक्त थे और अपनी सबसे युवा बेगम जीनत महल के इशारे पर चलते थे। उनका शासन लाल किले से बाहर नहीं चलता था। उनको ये मुगालता था कि वे भेष बदल सकते हैं, अपना रूप बदल सकते हैं और कहते थे कि रूप बदल कर किसी भी देश में जा सकते हैं और वहां क्या हो रहा है उसकी खबर ला सकते हैं। लेकिन ये खामियांकोई महत्व की बात नहीं है बल्कि मैं कुछ और बताने जा रहा हूं।

गद्दार थे बहादुर शाह जफर

Tipu and Bahadur Shah Zafar as Heroes of Imran

मैं बताने जा रहा हूं कि बहादुर शाह जफर गद्दार थे। उनकी गद्दारी की कहानी, उसका किस्सा, उसके तथ्य लगातार छपवाए जाते रहे। 1857 में विद्रोही सिपाही लड़ते हुए दिल्ली तक आ गए और उनको अपना नेता बनाया। बहादुर शाह जफर ने उनके साथ गद्दारी की, देश के साथ गद्दारी की। और उस बहादुर शाह जफर को ट्रैजिक हीरो के रूप में दिखाया जाता है। जितने भी वामपंथी इतिहासकार हैं वे बहादुर शाह जफर को ट्रैजिक हीरो और फ्रीडम फाइटर बताते हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए इससे बड़ी गाली कोई और नहीं हो सकती। वे देश के लिए कभी एक मिनट भी नहीं लड़े। अब आप देखिए कि किस तरह से इतिहास को पेश किया गया। पीढ़ी दर पीढ़ी ये पढ़ते आए हैं कि आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर देश के लिए लड़े, स्वतंत्रता के लिए लड़े, बागियों का उन्होंने नेतृत्व किया, अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए, ये सब झूठ है। तो सच्चाई क्या है, सच्चाई ये है कि वह अंग्रेजों की कृपा पर निर्भर थे। ईस्ट इंडिया कंपनी उनको एक लाख रुपये महीना पेंशन देती थी, इसलिए कि लाल किले में वो अपनी सेना की एक टुकड़ी रख सकें। सिर्फ एक लाख रुपये महीने के बदले में उन्होंने यह समझौता कर लिया था। पश्चिमी इतिहासकार विलियम डेरलिम्पल ने उनको कला और सादगी का पुजारी बताया। वास्तव में वो क्या था ये कहीं बताने की कोशिश नहीं की गई।

जान बचाने को स्वीकारा बागियों का नेतृत्व

इसके बारे में जो कुछ बाहर आया और जिसके बारे में तथ्यों के आधार पर लिखा गया है वो इतिहासकार आर. सी. मजूमदार ने लिखा। बहादुर शाह जफर अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी साबित करने का कोई मौका छोड़ते नहीं थे। लेकिन उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव आया 11 मई, 1857 को सुबह आठ बजे। इसी दिन विद्रोही सिपाही मेरठ में अंग्रेजी सिपाहियों को मारकर, उन्हें हराकर दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में वे बहादुर शाह जफर के पास पहुंचे और उनसे उनका नेतृत्व करने को कहा। ऐसे वैसे नहीं कहा। सिपाहियों के मन में उनके प्रति सम्मान नहीं था। कैसे कहा, आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि किसी ने उनकी सफेद दाढ़ी खींची, किसी ने हाथ खींचा। जब ये सब हुआ और वे अपने कमरे से बाहर निकले तो देखा कि दीवान-ए-खास में घुड़सवार सैनिकों का जमावड़ा लगा हुआ था। ऐसे में उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचा था, सिवा इसके कि बागियों की बात मान लें। फिर बागियों ने दूसरी शर्त रखी। उनसे कहा कि हमारे साथ पूरी दिल्ली में चलिए जुलूस में और पूरी दिल्ली घूम कर आइए। उन्हें जाना पड़ा। उनको मालूम था कि अगर नहीं गए तो मारे जाएंगे। और अगर जाते हैं तो अंग्रेज नाराज हो जाएंगे और उनकी पेंशन चली जाएगी। दूसरी जो सुख-सुविधाएं मिली हुई हैं वो चली जाएंगी। लेकिन जान बचाने के लिए मजबूरन उन्हें जाना पड़ा। तो ये है उन्हें नेतृत्व कैसे मिला, इसका किस्सा।

जैसे ही सिपाही पहुंचे, बहादुर शाह को यह समझ में नहीं आया कि करें क्या। उन्हें रास्ता सुझाया उनके हकीम अहसानुल्ला खान ने। उसने सुझाव दिया कि सिपाहियों की बात मान लीजिए। जान बचाने का यही तरीका है। उनके शहजादों को बागियों की अलग-अलग टुकड़ियों का नेतृत्व करने को कहा गया। अहसानुल्ला खान का कहना था कि इससे बागी शांत हो जाएंगे। कोई ऐसी कार्रवाई करेंगे जिससे आपको परेशानी हो। बादशाह ने उनका सुझाव मान लिया। मुंशी जीवन लाल जो बहादुर शाह जफर के मुंशी थे, उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है कि बागियों के आने के बाद पूरी दिल्ली के बाजार बंद हो गए क्योंकि दुकानों में जो सामान थे वो बागियों ने ले लिया। जब बागियों ने उनके साथ ये सब किया और उनको मजबूरी में उनकी बात माननी पड़ी तो वे अपने निजी आरामगाह में गए और रोने लगे कि उनको कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा था कि इससे निकलने का रास्ता क्या है। और इस तरह से बागियों की बात मानकर वो हिंदुस्तान के बादशाह बने। आपमें से ज्यादातर लोगों ने इतिहास की सामान्य किताबों में ये सब नहीं पढ़ा होगा। आपने यही पढ़ा होगा कि बहादुर शाह जफर ने भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, बागी उनका जयकार कर रहे थे, बागियों ने उनको अपना नेता मान लिया आदि आदि। कितनी मनगंढत बातें लिखी और बताई गई हैं।

नेतृत्व का करते रहे नाटक

आर. सी. मजूमदार लिखते हैं कि इसमें बागियों की कोई गलती नहीं थी। उनका कोई नेता नहीं था। उनको एक नेतृत्व करने वाला चाहिए था। उनको लगा कि मौजूदा परिस्थितियों में बेहतर विकल्प यही है। बहादुर शाह जफर के साथ जो हुआ वह उनके व्यक्तित्व और चरित्र के मुताबिक हुआ। यह उसका दोष है। वो जिस तरह से बेगम जीनत महल के इशारे पर चलते थे, जिस तरह से वो असक्त हो चुके थे, किसी काम में न तो उनकी रुचि थी और न उनका दखल था। उन्होंने बागी सिपाहियों को भी यह समझाने की कोशिश की कि सांसारिक जीवन त्याग दो। फकीर बन जाओ, संन्यासी बन जाओ, ये ज्यादा अच्छा है। उनको लगा कि यह कहने का शायद उन पर असर हो जाएगा और ये मुसीबत टल जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बागी बहादुर शाह जफर के पास फकीर या संन्यासी बनने के लिए नहीं आए थे। बहादुर शाह मजबूरी में बागियों का नेतृत्व करने का नाटक करते रहे लेकिन उनको यह समझ में आ गया कि ये बहुत ज्यादा दिन तक चलेगा नहीं, उनकी पोल खुल जाएगी। उन्होंने गुप्त रूप से अंग्रेजों को एक संदेश भिजवाया।

अंग्रेजों को मदद का भेजा संदेश

उन्होंने यह संदेश भेजा कि बागियों को कुचलने में वे अंग्रेजों की मदद करने को तैयार हैं। इतना ही नहीं, आगरा के लेफ्टिनेंट गवर्नर को चिट्ठी लिख कर संदेश भिजवाया कि दिल्ली में बागी कहां कहां पर हैं। साथ ही यह भी जानकारी दी कि उनकी संख्या कितनी है, उनकी क्या स्थिति है, उनके पास क्या-क्या हथियार हैं, उनकी ताकत क्या है, उनकी कमजोरी क्या है। ताकि अंग्रेज विश्वास करते रहें कि वे अब भी उनके वफादार बने हुए हैं, उनकी पेंशन बनी रहे और उन्हें जो सुविधाएं मिल रही थीं वो बरकरार रहे।बहादुर शाह जफर की गद्दारी का सबसे बड़ा प्रमाण सामने आया 4 जुलाई, 1857 को जब उन्होंने अपने एक मुलाजिम (गुमाश्ता-क्लर्क) के जरिये कमांडर इन चीफ टी. रीड को संदेश भिजवाया। रीड ने उस संदेश को भेजा पंजाब के चीफ कमांडर को। उस संदेश में जो कहा गया था उसे जानकर आपको बड़ा आश्चर्य होगा। उन्होंने कहा था कि अगर अंग्रेजी फौज दिल्ली आती है तो उसके प्रवेश का द्वार हम खोल सकते हैं। हम किले का दरवाजा खोल सकते हैं। किले के पीछे वाले हिस्से में बादशाह के परिवार के आने-जाने का जो निजी रास्ता है उसे चुपचाप खोल दिया जाएगा ताकि अंग्रेजी फौज अंदर आ सके। वो गुमाश्ता था फतेह मोहम्मद। ये कोई सुनी सुनाई बात नहीं है बल्कि वो चिट्ठी रिकॉर्ड में है, दस्तावेजी सबूत है। बादशाह इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए। उनको लगा कि पता नहीं अंग्रेज इससे संतुष्ट हुए या नहीं। उन्होंने बेगम जीनत महल और अपने शहजादों को इस काम में लगा दिया कि अंग्रेजों को लगातार चिट्ठी लिखते रहो।

बागियों को दिया धोखा

उनसे कहा गया था कि कमांडर इन चीफ, लेफ्टिनेंट गवर्नर सबको चिट्ठी लिखते रहो। उन चिट्ठियों में इसी बात का जिक्र होता था कि हम मदद के लिए तैयार हैं। आप बताइए कि हम क्या मदद कर सकते हैं, कैसे मदद कर सकते हैं। 19 अगस्त को एक और चिट्ठी आई जिसे मेरठ के कमिश्नर ने लिखा था। उन्होंने बहादुर शाह के बारे में लिखा कि यह बागियों से भी गद्दारी कर रहा है और देश से भी गद्दारी कर रहा है।यह भरोसा करने लायक नहीं है।उसके बाद अंग्रेजों ने आक्रमण किया, उसकी जीत हुई और बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर लिया गया। बहादुर शाह जब गुमाश्ते से संदेश भिजवा रहे थे तो उनमें एक ही शर्त थी किउनकीएक लाख रुपये महीने वाली पेंशन बनी रहे और कुछ सुविधाएं मिल जाए। यह चरित्र था बहादुर शाह जफर का जिसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बताकर हमें दशकों से पढ़ाया जा रहा है। यह काम किया वामपंथी इतिहासकारों ने। ऐसे उदाहरण पूरे इतिहास में भरे पड़े हैं जब एक गद्दार को राष्ट्रभक्त बता दिया और राष्ट्रभक्त को गद्दार बता दिया गया। अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के बाद बहादुर शाह को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया।वहीं जेल में उसकी मौत हुई। वहां भी उसकी शायरी के जरिये उसका महिमामंडन करने की कोशिश हुई,“कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए,दो गज जमीन भी न मिली कुयार में”। उसको कोई लेना-देना नहीं था देश से, वह देश का गद्दार था। आजादी का जो पहला आंदोलन था उससे गद्दारी की थी।

Ex-PM Manmohan Singh's condition stable, improving | Delhi news

बहादुर शाह ने, इतिहासकारों ने तो गद्दारी की ही लेकिन उसके बाद क्या हुआ, आजादी के बाद क्या हुआ? आजादी के बाद वर्ष 1949, 50 या 70 की बात मैं नहीं कर रहा हूं। मैं बात बात कर रहा हूं वर्ष 2012 की। तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। 2012 में वे रंगून गए और रंगून में यंगून गए जहां बहादुर शाह जफर की कब्र थी।उसकी कब्र पर उन्होंने फातिहा पढ़ा। एक गद्दार को आजाद देश के प्रधानमंत्री ने यह सम्मान दिया। जिसने आजादी के आंदोलन से गद्दारी की, जिसने देश से गद्दारी की उसको कांग्रेस सम्मान लायक समझती है। आप इस बात को समझिए, ऐसा संभव नहीं है कि डॉ. मनमोहन सिंह को इस बात की जानकारी नहीं होगी, इतिहास का पता नहीं होगा। उसके बाद भी यह किया गया क्योंकि यह उम्मीद थी कि ऐसा करने से भारत का मुसलमान खुश होगा, मुसलमानों का वोट मिलेगा। कांग्रेस वोट के लिए कहां तक जा सकती है, क्या कर सकती है इसका अंदाजा लगाइए। ये जो वामपंथी इतिहासकार थे और कांग्रेस, इनका ऐसा गठबंधन था जिसको कहते हैं सिंबायोटिक रिलेशनशिप जिसमें दोनों को फायदा हो रहा था।  इसलिए यह बहुत लंबे समय तक चला। अब वह साम्राज्य धीरे-धीरे टूट रहा है तो उसकी छटपटाहट, उसकी बेचैनी, उसका गुस्सा, उसका आक्रोश ये सब आपको दिखाई दे रहा है।

इतिहास पढ़ते समय आप यह मान कर चलिए कि अगर वह इतिहास वामपंथी इतिहासकारों ने लिखा है तो उस पर आंख बंद करके भरोसा मत कीजिए। उसकी पड़ताल कीजिए, तहकीकात कीजिए या थोड़े समय इंतजार कीजिए जब उसमें बदलाव शुरू होगा और वास्तविक इतिहास पता चलेगा। मुझे लगता है कि बहादुर शाह जफर ने जो गद्दारी की उससे कम गद्दारी वामपंथी इतिहासकारों ने नहीं की है। देश की कई पीढ़ियों को गुमराह करने का काम किया है। गद्दारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि आप अपने देश के लोगों से ही सच को छुपा रहे हैं, गलत चीज पेश कर रहे हैं और इसका उनको कोई अफसोस नहीं है। अगर आप ये बातें कहेंगे तो कहा जाएगा कि इतिहास का भगवाकरण करने की कोशिश हो रही है। मगर मैं कहता हूं कि इतिहास का शुद्धिकरण करने की कोशिश हो रही है, जो सच है उसे सामने लाने की कोशिश हो रही है।