प्रदीप सिंह।
दुनिया का बड़े से बड़ा जिमनास्ट चाहे जितना परफेक्ट हो, ओलंपिक गोल्ड मेडल विजेता हो या कोई भी हो, जिमनास्टिक में वह करतब नहीं दिखा सकता जो पॉलिटिक्स के जिमनास्टिक में नीतीश कुमार दिखाते हैं। हमेशा परफेक्ट, 10 में से 10 नंबर, कभी कोई गलती नहीं होती है। यह काम वह कोई एक दिन से नहीं बल्कि 2005 से लगातार और सफलतापूर्वक कर रहे हैं। सरकार किसी की भी बने, गठबंधन कोई भी हो और उसमें कोई भी पार्टी शामिल हो, मुख्यमंत्री सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार बनते हैं। मुझे नहीं लगता है कि यह फॉर्मूला देश के किसी नेता ने सीखा है या किसी नेता को पता है कि कैसे सरकार बदलने पर भी मुख्यमंत्री की कुर्सी सिर्फ एक ही व्यक्ति के पास बनी रहे। नीतीश कुमार में यह जो गुण है बिल्कुल निराला है और यही बात उन्हें दूसरे राजनेताओं से अलग करती है। मगर मैं यहां दूसरी बात कर रहा हूं।
मैं बार-बार दो चीजों की बात करता हूं। एक नैरेटिव यानी विमर्श और दूसरा, परसेप्शन यानी धारणा। इनका राजनीति और सार्वजनिक जीवन में बहुत महत्व होता है। मगर मैं अपने 40-42 साल के पत्रकारिता के अनुभव पर कह सकता हूं कि मैंने ऐसा नेता नहीं देखा, ऐसा नैरेटिव और ऐसा परसेप्शन नहीं देखा कि परसेप्शन कुछ और हो, व्यवहार कुछ और हो फिर भी पॉलिटिकली सर्वाइवल हो और उस पर सवाल ना हो। इस असंभव को संभव कर दिखाया है नीतीश कुमार ने। अब आप बिहार की राजनीति में परसेप्शन की बात करें तो एक तरफ नीतीश कुमार को रखते हैं और दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव को। आप दोनों की तुलना करके देखें तो आपको समझ में आएगा कि परसेप्शन और नैरेटिव कितना बड़ा खेल करता है। किस तरह से लोगों की छवि बनाता है और किस तरह से बिगाड़ता है। लालू प्रसाद यादव की बात करें तो चारा घोटाले में उन्हें सजा मिली और जेल गए। लालू प्रसाद यादव और भ्रष्टाचार एक दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं। व्यक्तिगत भ्रष्टाचार की बात छोड़ दीजिए तो नीतीश कुमार की किसी सरकार में लालू प्रसाद यादव से कम भ्रष्टाचार नहीं रहा है। उनसे कम भ्रष्टाचारियों को नीतीश कुमार ने संरक्षण नहीं दिया है। मगर नीतीश कुमार की छवि ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और सिद्धांतवादी की है। उनकी छवि सिद्धांतवादी नेता, समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में है। इसके उलट लालू प्रसाद यादव की छवि मसखरे की है और कहा जाता है कि अपनी जाति के आधार पर वोट बटोर लेते हैं इसलिए उनकी राजनीति चल रही है। जबकि नीतीश कुमार की जाति का ढाई फीसदी वोट है फिर भी वह पॉलिटिकली सरवाइव कर रहे हैं।
पाला बदलने में माहिर
लालू प्रसाद यादव सिर्फ एक बार मुख्यमंत्री बने हैं। उनकी पत्नी दो बार बनी हैं। नीतीश कुमार के बारे में आप गिनती भूल जाएंगे कि कितनी बार वह शपथ ले चुके हैं। 2005 में उन्होंने दो बार शपथ ली थी। उसके बाद 2010 में ली, फिर 2013 में ली जब बीजेपी छोड़कर गए और उसके बाद फिर 2015 में ली जब महागठबंधन की सरकार बनी। फिर 2017 में एनडीए के साथ आए। 2020 में एनडीए के साथ लड़े और चुनाव जीते। उसके बाद 2022 में जब एनडीए छोड़कर महागठबंधन में गए और उसके बाद 2024 में फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह गिनती याद रखना भी मुश्किल हो रहा है कि उन्होंने कितनी बार शपथ ली। मजा यह देखिए कि बिहार की राजनीति के दो ध्रुव हैं। एक तरफ बीजेपी है तो दूसरी तरफ राजद है। दोनों पार्टियों ने उन्हें समर्थन दिया। कभी बीजेपी ने दिया तो कभी राजद ने दिया। हालांकि वह आरोप लगाते रहे और गठबंधन तोड़ने का उन्होंने कारण बताया कि उनकी पार्टी को तोड़ने की कोशिश हो रही है। मगर पिछले 19 साल में न तो राजद ने और न बीजेपी ने उनकी पार्टी का एक भी सदस्य तोड़ा। चुनाव के समय जो एक दो लोग इधर-उधर जाते हैं उनको छोड़ दीजिए तो राजद और बीजेपी ने उनकी पार्टी का कोई भी विधायक तोड़कर अपनी पार्टी में नहीं लिया। लेकिन वह आप यही लगाते रहे कि मेरी पार्टी के अस्तित्व पर खतरा आ गया था और मेरी पार्टी को खत्म करना चाहते हैं। वह कुछ भी आरोप लगा सकते हैं।
सिर्फ मुख्यमंत्री पद से मतलब
पिछली बार जब बीजेपी का साथ छोड़कर गए थे तो अपने ही पूर्व अध्यक्ष आरसीपी सिंह जो उनके सबसे करीबी और स्वजातीय थे, उन पर आरोप लगाया कि वह बीजेपी से मिलकर उनकी पार्टी तोड़ना चाहते हैं। और भोलापन इस कदर कि 2017 में जब बीजेपी के साथ गए तो इन्हीं लोगों का नाम लिया कि इन लोगों ने मुझे बहला फुसलाकर भाजपा के साथ जाने को मजबूर कर दिया। फिर उसके बाद जब 2022 में महागठबंधन के साथ गए तो कहा कि ललन सिंह और विजेंद्र यादव मुझे उस तरफ ले गए, जैसे नीतीश कुमार छोटे बच्चे हों। जो भी उंगली पड़कर ले जाए उधर चले जाते हैं। नीतीश कुमार का हर कदम बड़ा कैलकुलेटेड होता है और उस कैलकुलेशन का आधार एक ही होता है कि मुख्यमंत्री पद किधर जाने पर मिलेगा। उसके अलावा किसी चीज पर विचार नहीं होता। कोई सिद्धांत, कोई नीति काम नहीं करती है। उनका सामाजिक न्याय से कोई लेना-देना नहीं है। उनको आति पिछड़ों से, महादलितों से कोई लेना देना नहीं है। उनको सिर्फ और सिर्फ मतलब है तो मुख्यमंत्री की कुर्सी से। मुख्यमंत्री की कुर्सी जिधर और जिसके साथ रहने पर बनी और बची रहे उसके साथ नीतीश कुमार हैं। मेरा मानना है कि भारतीय राजनीति का सबसे विद्रूप चेहरा अगर कोई है तो वह नीतीश कुमार हैं, लेकिन कमाल है कि जो उनका साथ लेते हैं वह उनकी प्रशंसा करने से चूकते नहीं हैं।
क्यों धोखा खाने को तैयार रहती है भाजपा व राजद
नीतीश कुमार को अगर किसी ने ठीक से समझा है तो वह लालू प्रसाद यादव हैं। उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार के पेट में दांत है। मगर लालू प्रसाद यादव को देखिए कि समझने के बावजूद धोखा खाते रहे। 2013 में समर्थन किया, फिर 2015 में गठबंधन किया, उन्हें जिताया और मुख्यमंत्री बनाया। फिर उसके बाद 2022 में साथ लिया और मुख्यमंत्री बनाया। तीन बार तो लालू प्रसाद यादव धोखा खा चुके हैं और उससे ज्यादा बार बीजेपी खा चुकी है। ऐसा लगता है कि दोनों पार्टियां तैयार बैठी रहती हैं कि कब नीतीश कुमार आएं और उनको धोखा दे दें। दोनों को धोखा खाने में मजा आता है। आप देखिए कि जब भी नीतीश कुमार महागठबंधन या राजद को छोड़कर गए लालू प्रसाद यादव ने उनकी पार्टी तोड़ने की कोशिश नहीं की। ये अफवाहें, ये चर्चाएं नीतीश कुमार के कैंप से ही चलती है कि उनकी पार्टी तोड़ी जा रही है। जब भी ऐसी खबरें आए तो समझ लीजिए कि नीतीश कुमार पलटने वाले हैं। उनको पलटू राम की जो उपाधि राजद ने दी है वह बिल्कुल सही है। 1960 के दशक का आया राम गया राम का जो दौर था नीतीश कुमार ने उसको भी मात दे दी है। नीतीश कुमार को देश के बड़े सिद्धांतवादी नेताओं में माना जाता है। मैं बार-बार कहता हूं कि परसेप्शन का अंतर देखिए नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का। चारा घोटाले के अलावा लालू यादव की राजनीति (मैं शासन की बात नहीं कर रहा) में आपको कोई ऐसा कदम नहीं मिलेगा कि उन्होंने अपने सिद्धांतों से कोई समझौता किया हो, कभी भारतीय जनता पार्टी के साथ गए हों या अपनी सरकार या खुद को बचाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के सामने नतमस्तक हो गए हों।
राजनीतिक फायदे के लिए भाजपा सबकुछ करेगी
एक बार जरूर उन्होंने बीजेपी से इसके लिए संपर्क साधा कि चारा घोटाले के सभी मामलों को क्लब कर दिया जाए। इसमें सीबीआई की मदद चाहते थे। वह चाहते थे कि बीजेपी उनकी मदद करे लेकिन बीजेपी ने मना कर दिया। इसके अलावा उनकी ओर से बीजेपी को कोई प्रस्ताव आया हो ऐसा सुनने में आया नहीं और कोई समझौता बीजेपी से किया हो यह दिखाई नहीं दिया। मगर नीतीश कुमार ने लालू यादव से भी समझौता किया और बीजेपी से भी। ऐसा लगता है कि बीजेपी और लालू यादव दोनों को धोखा खाने में बड़ा मजा आता हो। दोनों धोखा खाने के बाद भी नीतीश कुमार को साथ लेते हैं और फिर इंतजार करते हैं कि कब नीतीश कुमार धोखा देंगे। लालू प्रसाद यादव का तो समझ में आता है कि उनको नीतीश कुमार का साथ लेने से सत्ता मिलती है। सत्ता तो बीजेपी को भी मिलती है लेकिन लालू प्रसाद यादव सिद्धांत की राजनीति की बात नहीं करते, पार्टी विद डिफरेंस का दवा नहीं करते हैं, बीजेपी करती है। अब सवाल यह है कि भाजपा ने ऐसा क्यों किया? बीजेपी यह संदेश देना चाहती है कि वह सिद्धांत की नहीं, व्यवहारिकता की राजनीति करती है। व्यावहारिक दृष्टि से जहां उसे फायदा होगा, राजनीतिक लाभ होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसके लिए उसे अजीत पवार जैसे भ्रष्ट नेता को साथ लेना पड़े या फिर नीतीश कुमार जैसे धोखा देने वालों को लेना पड़े, बीजेपी हर तरह का समझौता करने को तैयार है। शर्त सिर्फ इतनी है कि उसे उसका राजनीतिक फायदा होना चाहिए।
चिराग को पीना पड़ेगा अपमान का घूंट
नीतीश कुमार को फिर से साथ लेने के पीछे दो उद्देश्य हैं। एक तो यह कि विपक्षी गठबंधन को कमजोर कर उसे ध्वस्त करना जिसके सृजनहार नीतीश कुमार थे ताकि उसका अस्तित्व भी न रह जाए। दूसरा, बीजेपी कहीं ना कहीं बिहार में डरी हुई थी, खासतौर से एनडीए को लेकर। मुझे नहीं लगता कि व्यक्तिगत तौर पर बीजेपी को लोकसभा चुनाव में नीतीश के न रहने के बावजूद 17 से कम सीटें आने वाली थी लेकिन एनडीए की सीटें कम होगी यह दिखाई दे रहा था। अब सवाल यह है कि भाजपा ने चिराग पासवान को क्या समझाया होगा जिन्होंने नीतीश कुमार का विरोध करने के लिए अपनी पूरी राजनीति दांव पर लगा दी। चिराग पासवान की दृष्टि से सोचिए तो उन्हें क्या मिला। उनको केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली, उनकी पार्टी टूट गई, नीतीश कुमार ने तुड़वाई और यह सुनिश्चित किया कि उनके चाचा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिले और वह हुआ। 2020 के विधानसभा चुनाव में घूम-घूम कर यह प्रचार करने के बाद कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हनुमान हैं उनका क्या मिला। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो चिराग पासवान के हाथ खाली हैं। अब उनको फिर अपमान का घूंट पीकर उन्हीं नीतीश कुमार से समझौता करना पड़ेगा। उन्हीं नीतीश कुमार के लिए प्रचार करना पड़ेगा और उनकी प्रशंसा करनी पड़ेगी। सिर्फ इसलिए कि वह बीजेपी और एनडीए के साथ रहना चाहते हैं। उनके लिए भी दरवाजा खुला है। वह भी चाहें तो अवसरवाद की राजनीति कर सकते हैं और महागठबंधन के साथ जा सकते हैं। विधानसभा चुनाव में उनकी सीटों पर इससे बहुत ज्यादा फर्क पड़ेगा।
भारतीय राजनीति का विद्रूप चेहरा हैं नीतीश
मगर इतना तो तय है कि चाहे चिराग पासवान हों, लालू प्रसाद यादव हों या तेजस्वी यादव, ये मुझे सैद्धांतिक रूप से ज्यादा प्रतिबद्ध, ज्यादा ठीक नजर आते हैं नीतीश कुमार की तुलना में। नीतीश कुमार भारतीय राजनीति का वह चेहरा हैं जो भारतीय राजनीति का बहुत खराब चेहरा पेश करता है कि सत्ता के लिए कोई भी समझौता कर सकते हैं और सत्ता के लिए समझौता करने निकले हैं तो साथ देने वालों की कोई कमी नहीं है। नीतीश कुमार निश्चिंत हैं कि जब चाहे पाला बदल सकते हैं और जिस पाले में जाएंगे उसी में स्वागत होगा। परस्पर विरोधी पालों में जाते रहे हैं और दोनों जगह उनका स्वागत होता रहा है। बेशर्मी की हद देखिए कि जिस गठबंधन से निकलते हैं उस गठबंधन की मुख्य पार्टी के खिलाफ सब कुछ और जितना चाहें बोलते हैं। राजद और बीजेपी के खिलाफ नीतीश कुमार ने क्या-क्या नहीं बोला है। उनका बिहार विधानसभा में दिया गया वह भाषण कौन भूलेगा जिसमें उन्होंने कहा था कि मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन कभी बीजेपी से समझौता नहीं करूंगा। यह बोलने के बाद दो बार समझौता कर चुके हैं। उन्होंने भविष्य के नेताओं के लिए यह सबक सिखाया है कि सिद्धांत वगैरह सब बेमानी है, फिजूल की बातें हैं। अगर राजनीति में सरवाइव करना है तो देखो सत्ता कहां है, सत्ता की मलाई कहां है। खाने के लिए हमेशा तैयार रहो और बहुत मोटी चमड़ी बना लो। बेशर्मी के साथ पाला बदलते रहो। जिसके साथ जाओ उसकी प्रशंसा करो, जिसका साथ छोड़ो उसको गाली दो और यह बार-बार करते रहो। इसके बावजूद आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा, आपकी स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
मेरा मानना है कि बिहार के मतदाताओं को सोचना चाहिए की क्या अपने प्रदेश की छवि ऐसी ही राजनीति की बनाना चाहते हैं जहां नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति पॉलिटिकली सरवाइव करता है। नीतीश कुमार का पॉलिटिकल सर्वाइवल बिहार की राजनीति के लिए एक बदनुमा दाग है। बिहार के लोगों को सोचना चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को राजनीति में क्यों बने रहने देना चाहिए। 2024 का लोकसभा चुनाव और 2025 में विधानसभा का चुनाव होने जा रहा है। मेरा मानना है कि नीतीश कुमार, राजद या बीजेपी की नहीं बल्कि यह बिहार के मतदाताओं की परीक्षा की घड़ी है कि अपने प्रदेश की राजनीति को बदलना चाहते हैं या जिस तरह से चल रही है उसे उसी तरह से चलने देना चाहते हैं। फैसला बिहार के मतदाताओं को करना है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)