प्रदीप सिंह।

खास कर उत्तर प्रदेश में, संगठन के भीतर से ही जिस तरह से नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुई उनकी पहचान कर उनके खिलाफ हो कार्रवाई।

भारतीय जनता पार्टी एकमात्र ऐसी पार्टी है जो चुनाव में हार की बड़ी निर्ममता से समीक्षा करती है। केवल समीक्षा नहीं करती है, बल्कि हर पहलू पर विचार के बाद उसके सुधार के उपाय भी करती है। याद कीजिए,1984 में बीजेपी को लोकसभा की सिर्फ दोसीटें मिली थी। उसके बाद पार्टी में किस तरह से मंथन शुरू हुआ औरकिस तरह से पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद का रास्ता छोड़ा, अटल बिहारी बाजपेयी जैसे सबसे लोकप्रिय नेता को अध्यक्ष पद से हटाया गया। पूरी सेंट्रल टीम और स्टेट की टीम बदल दी गई। एकात्म मानववाद की विचारधारा पर पार्टी लौट आई। इसी तरह से आप याद कीजिए 2009 में जब लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया था और पार्टी बुरी तरह से हार गई थी। उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि वे लोकसभा में पार्टी के नेता नहीं होंगे। लेकिन फिर परिवार और सलाहकारों के दबाव में उन्होंने अपना फैसला बदल लिया और कहा कि वेनेता बने रहेंगे। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ ने हस्तक्षेप किया। उस समय अटल बिहारी बाजपेयी के बाद भारतीय जनता पार्टी में सबसे कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी ही थे। इसके बावजूद उन्हें लोकसभा में पार्टी के नेता पद से हटा दिया गया या कहिए कि नहीं बनाया गया। सुषमा स्वराज को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया गया और इसी तरह से राज्यसभा में जसवंत सिंह की जगह अरुण जेटली को भाजपा का नेता बनाया गया।

Countrywide congratulations to Narendra Modi on being appointed as the PM candidate of the BJP

इसके बाद भी जब दिल्ली के नेताओं के आपसी झगड़े शांत नहीं हो रहे थे और नेतृत्व का फैसला नहीं हो पा रहा था तो 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने में संघ की बड़ी भूमिका थी। भाजपा में ऐसे परिवर्तन गुण-दोष की समीक्षा के आधार पर होते रहे हैं।दूसरी पार्टियां भी हार की समीक्षा करती हैं लेकिन उसके बाद जो नतीजा आता है उसे ठंडे बस्ते में डाल देती हैं।जैसा कि कांग्रेस ने किया। एक के बाद एक हार की समीक्षा या तो की नहीं या फिर किया तो सुधार के जो उपाय सुझाए गए उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। आज कांग्रेस कहां है, दिखाई दे रहा है। लेकिन आज मैं दूसरी बात कह रहा हूं। भारतीय जनता पार्टी की पांचमें से चारराज्यों में जीत हुई है लेकिन उत्तर प्रदेश में पार्टी को पहली बार जीत की समीक्षा करनी चाहिए। यह बात जितनी राजनीतिक दलों के लिए सही है उतनी ही स्पोर्ट्स की टीमोंके लिए भी जरूरी है।

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जीत पर ढक जाती हैं कमियां

होता यह है कि जब आप जीत जाते हैं तो अपनी कमियों को आप ढक देते हैं। उन पर विचार नहीं करते हैं, उनको टाल देते हैं, उनका निराकरण करने की कोशिश नहीं होती है और फिर धीरे-धीरे पता चलता है कि वही कमियां एक दिन हार का कारण बनी।भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में यह सबसे सही मौका है अपनी विजय की समीक्षा करने का। विजय की समीक्षा इसलिए कह रहा हूं कि जिस तरह से पार्टी के अंदर से ही पूरे चुनाव अभियान को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुई उसमें सफलता नहीं मिली यह नतीजे बता रहे हैं लेकिन आंशिक सफलता जरूर मिली।इस कारण दो चीजें हुईं। एक, जो लड़ाई आसान होनी चाहिए थी वह थोड़ी मुश्किल हो गई, जहां जीत का मार्जिन ज्यादा होना चाहिए था वहां कम हो गया और दूसरा, जितनी सीटें आनी चाहिए थी उससे कम आई। कहने को तो जीत हो गई है, दो तिहाई बहुमत मिल गया है, इतनी बड़ी जीत हुई है,पांचसाल सरकार चलाने के बाद हुई है, ऐतिहासिक है, 37 साल बाद ऐसा हुआ है कि कोई सरकार लौट कर आई है, यह सब बातें सही हैं। लेकिन सवाल यह है कि इस जीत को कम करने के पीछे कौन हैं, कौन लोग थे, उनकी क्या मंशा थी और क्यों ऐसा कर रहे थे और क्यों ऐसा होने दिया गया।

योगी के खिलाफ पार्टी के लोगों ने चलाया अभियान

इसकी शुरुआत होती है कोरोना की दूसरी लहर के तुरंत बाद से। जिस तरह से अभियान चलाया गया कि मुख्यमंत्री बदला जा रहा है या मुख्यमंत्री को निष्प्रभावी किया जा रहा है, यह सब बातें ये खबरें पार्टी के अंदर से निकलती थी। मीडिया को फीड की जाती थी कि फलां डिप्टी सीएम होने वाले हैं, फलां सीएम बनने वाले हैं। कुछ लोग तो कह रहे थे कि योगी आदित्यनाथ सीएम तो बने रहेंगे लेकिन उनको निष्प्रभावी कर दिया जाएगा, उनके सारे अधिकार छीन लिए जाएंगे और दूसरे लोगों को दे दिया जाएगा। बाकी सब बातें तो छोड़ दीजिएसिर्फ तीन चीजें याद कीजिए। पहला कानून व्यवस्था, पूरे प्रदेश में चाहे समर्थक हों या विरोधी, सुरक्षा का जो अहसास कराया वह सिर्फ योगी आदित्यनाथ कर सकते थे। मैं बिल्कुल दावे के साथ कह सकता हूं कि भाजपा का कोई और नेता मुख्यमंत्री बना होता तो यह नहीं कर सकता था। दूसरा,22 से 24 घंटे बिजली की सप्लाई और तीसरा, जो केंद्रीय और राज्य की योजनाएं थीं उनकी डिलीवरी पारदर्शी तरीके से और भ्रष्टाचार के बिना हो यह सुनिश्चित करना। इनके बावजूद उनकी व्यक्तिगत निष्ठा, ईमानदारी, विचारधारा के प्रति उनका समर्पण, इन सब पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। फिर भी उनको बदलने की बात हो रही थी। आखिर इसके पीछे कौन लोग थे?

दूसरी बात, जो तीन मंत्री और आठविधायक पार्टी छोड़ कर गए, पार्टी जितने विधायकों के टिकट काटने वाली थी इसके बाद उस पर एक तरह से ब्रेक लग गया। कुछ के कटे लेकिन ज्यादातर बच गए। जो बच गए उनके बारे में पार्टी के अंदर से ही ऐसी खबरें आ रही हैं कि कुछ पदाधिकारियों ने टिकट बचने की एवज में उनसे पैसे भी लिए। मुझे नहीं मालूम कि इसमें कितनी सच्चाई है लेकिन इस तरह की चर्चाएं हो रही हैं। मतलब, धुआं उठ रहा है तो आग कहीं न कहीं होगी ही। किसी ने तो कुछ गड़बड़ किया होगा। वह चाहे एक ही विधायक से या एक ही उम्मीदवार के साथ ऐसा क्यों न हुआ हो, सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी जैसे संगठन में यह कैसे हो सकता है और इसे कैसे होने दिया जा सकता है। इसको रोकने की जरूरत है। इसके लिए विजय की समीक्षा जरूरी है। इस जीत की समीक्षा अगर नहीं हुई तो आगे चलकर भाजपा को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।यह बात सभी पार्टियों के लिए है, भारतीय जनता पार्टी के लिए खास तौर से है। उसके 312 अकेले और कुल मिलाकर 325 विधायक थे।इस चुनाव में अगर एक चीज पार्टी के सबसे ज्यादा खिलाफ थी तो वह थी विधायकों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी। विधायकों से भयंकर नाराजगी थी। और बातें तो छोड़ दीजिए, ऐसे विधायकों की संख्या बहुत ज्यादा थी जो पांचसाल तक अपने चुनाव क्षेत्र में गए ही नहीं। लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यही थी। आप इसका अंदाजा इसी बात से लगाइए कि पूर्व आईपीएस असीम अरुण कन्नौज से चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव प्रचार के लिए गए तो उनसे लोगों ने मांग की कि जीतने के बाद एक बार आ जाइएगा चुनाव क्षेत्र में। यह लोगों की अपेक्षा का स्तर हो गया है अपने विधायकों से, अपने जनप्रतिनिधियों से।

वो तो योगी ताल ठोककर खड़े हो गए वरना…

पार्टी पर बोझ होते हैं निकम्मे विधायक

सवाल यह है कि विधायकों के निकम्मेपन की कीमत पार्टी क्यों चुकाए, उस क्षेत्र की जनता क्यों चुकाए?  उसने वोट दिया पार्टी को तो क्या इसकी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी? बहुत से विधायकों की ओर से यह कहा जाता है कि अफसर उनकी सुनते नहीं है, मुख्यमंत्री नहीं सुनते हैं। मुझे एक जिले के कुछ लोगों ने फोन किया और एक विधायक के बारे में कहा कि उसे फिर से टिकट मिल गया है, हम लोग कब तक मोदी और योगी के नाम पर ऐसे लोगों को चुनते रहेंगे।उसकी शिकायत है कि अफसर सुनते नहीं थे इसलिए काम नहीं करा पाए। तो फिर लोग सवाल उठा रहे हैं कि अगर काम नहीं करा पाए तो फिर आपकी संपत्ति कैसे बढ़ गई, किसने काम कराया, किसने मदद की आपकी,2017 में जो आपकी संपत्ति थी 2022 में उसका कई गुना कैसे हो गई। जब तक यह शुरू नहीं होगा कि जनप्रतिनिधियों की आमदनी का ऑडिट हो।कोई आरोप लगाए या ना लगाए, कोई मुकदमा करेया ना करे, लेकिन उस क्षेत्र के लोगों को पता चल जाता है कि कौन सा जनप्रतिनिधि ईमानदार है और कौन बेईमान है, कौन पैसा कमा रहा है, कौन नहीं कमारहा है। यह सिर्फ पार्टी नेताओं को, संगठन को नहीं दिखता है, आम जनता को खूब दिखाई देता है। विधायकों के निकम्मेपन का असर यह होता है कि जनता में केवल पार्टी को लेकर ही नहीं, पूरी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति उनके मन में वितृष्णा का भाव आ जाता है कि सब वैसे ही हैं। किसी को चुनें सब वैसा ही करते हैं। यह जो भाव है, इससे बड़ा नुकसान राजनीति का और कोई भाव नहीं कर सकता है।

विधायकों की हो मॉनिटरिंग

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मुझे लगता है कि बीजेपी को संगठन के तौर पर और सरकार के तौर पर भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समय-समय पर इसकी मॉनिटरिंग होनी चाहिए कि विधायक की अपने चुनाव क्षेत्र में क्या परफॉर्मेंस है, कितनी बार क्षेत्र में गया, कितने लोगों से मिला, कितने लोगों की मदद की, कितने लोगों की समस्या सुलझाई। इसकी कोई व्यवस्था बननी चाहिए। वैसे तो यह व्यवस्था सभी पार्टियों में बननी चाहिए लेकिन सत्तारूढ़ दल जो भी है और जहां भी हैं उसकी जिम्मेदारी और ज्यादा हो जाती है।जब लोग यह देखते हैं कि आपकी संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही हैतो वे इस बात को सुनने को तैयार नहीं होते कि फलां नहीं सुन रहा, फलां काम नहीं कर रहा है। दूसरी बात, यह समस्या पूरे राजनीतिक परिदृश्य में सारे राजनीतिक दलों के सामने है। यह जो चलन चल पड़ा है कि जो सत्ता में होगा उसके विधायकों, कार्यकर्ताओं, समर्थकों को पैसा बनाने की छूट मिलेगी। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं हर जगह यह नाराजगी रहती है कि दूसरे दलों की सरकार आती है तो उसके कार्यकर्ता खूब कमाते हैं, हमको वह मौका नहीं मिलता है। सवाल यह उठता है कि तो क्या सरकार आती है कार्यकर्ताओं को पैसा कमवाने के लिए? जो पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं या जिनसे काम लिया जाता है उनके बारे में निश्चित रूप से कोई संस्थागत व्यवस्था की जानी चाहिए। राजनीतिक दलों को ऐसा करना चाहिए वरना एक ही रास्ता होता है दलाली का। जो भी पार्टी इसकी छूट देती है दलाली का पूरा तंत्र खड़ा हो जाता है। पिछले पांचसाल में उत्तर प्रदेश में यही समस्या हुई कि दलाली का वह तंत्र उस तरह से फल-फूल नहीं पाया।उनमें नाराजगी रहती है कि अपनी सरकार है फिर भी हमारी चल नहीं रही है। नहीं चल रही है क्योंकि हमको रिश्वत नहीं मिल रही है, क्योंकि हमको ठेके का पट्टा नहीं मिल रहा है, क्योंकि हमको दलाली का मौका नहीं मिल रहा है, हमारे कहने से ट्रांसफर-पोस्टिंग नहीं हो रही है, हमारे कहने से नियुक्ति नहीं हो रही है।

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पैर खींचने वालों के खिलाफ हो कार्रवाई

भारतीय जनता पार्टी या और भी कोई पार्टी अगर राजनीति को सचमुच में बदलना चाहती हैतो उसे इस बारे में जरूर सोचना होगा। इसलिए कह रहा हूं कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में अपनी जीत की बड़ी निर्ममता से समीक्षा करनी चाहिए कि वो कौन लोग हैं जिन्होंने पार्टी का पैर पीछे खींचने की कोशिश की। चुनाव से कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री जिस तरह से पूरी ताकत से कूदे, जिस तरह से उन्होंने बनारस की सभा से यह संदेश दिया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर उनका विश्वास कायम है और पार्टी का भी विश्वास कायम है, कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है। फिर लखनऊ से जो तस्वीरें आईं, मुख्यमंत्री के कंधे पर हाथ रखकर प्रधानमंत्री जिस तरह से चल रहे थे और बात कर रहे थे, उसने इस आग को बुझाने का काम किया। प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जिस ऊर्जा के साथ मैदान में कूदे और पूरी ताकत लगा दी। संगठन के बहुत से लोग, मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, कुछ लोगों के नाम मुझे मालूम हैं, नाम लेने से बहुत से लोगों को इसे दूसरा मोड़ देने में मदद मिल जाएगी इसलिए किसी का नाम नहीं ले रहा हूं। अगर इन दोनों नेताओं ने योगी आदित्यनाथ के साथ मिलकर चुनाव अभियान को जी जान से नहीं चलाया होता तो यह जो विघ्न संतोषी हैं भारतीय जनता पार्टी में वह कामयाब भी हो सकते थे। मुझे लगता है कि तब भी नहीं होते लेकिन सीटें और कम हो गई होती। कम से कम 40 से 45 सीटें और आनी चाहिए थी।

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समाजवादी पार्टी की लड़ाई से या समाजवादी पार्टी की मजबूती से या बदलाव की इच्छा रखने वालों की वजह से ऐसा नहीं हुआ। यह हुआ संगठन की अकर्मण्यता से। मैं इससे बड़ा और कड़ा शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता। आप भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के नेताओं-कार्यकर्ताओं से बात कर लीजिए, आपको बहुत से किस्से सुनने को मिलेंगे। बहुत सी कहानियां सुनने को मिलेंगी कि फलां का टिकट कट रहा था कैसे बच गया, फलां को क्यों टिकट मिल गया। अनुपमा जायसवाल के बारे में मैंने पहले बताया था कि उनको कैसे टिकट मिल गया। भ्रष्टाचार के आरोप में निकाली गई थीं, जनता ने हरा दिया। बहुत से ऐसे विधायकों को जनता ने आंख बंद कर जीत जाने दिया कि इनको मत देखो, मोदी और योगी को देखो। लेकिन बहुत जगह लोगों की पीड़ा और तकलीफ इतनी ज्यादा थी कि वह भारी पड़ी। उनको लगा कि अगर इनको जिताया तो इसका गलत संदेश जाएगा। बीजेपी की जो सीटें आई हैं उससे ज्यादा अगर नहीं है तो इसका सबसे बड़ा कारण है उसके विधायकों की एंटी इनकंबेंसी। एंटी इनकंबेंसी का सीधा मतलब है उनका निकम्मापन। जिन लोगों ने अच्छा काम किया, अपने क्षेत्र में जाते रहे उनको दिक्कत नहीं हुई।निकम्मे लोग पार्टी पर बोझ होते हैं। ये पार्टी की मदद करने की बजाय पार्टी को और मुश्किल में डालने वाले लोग हैं। इसलिए मैं कह रहा हूं कि भारतीय जनता पार्टी को एक नई परिपाटी शुरू करनी चाहिए और वह परिपाटी है जीत की समीक्षा की। कमियां क्या रह गईं, क्या और बेहतर हो सकता था? इसके लिए जवाबदेही और जिम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए।